Sunita Shukla

Inspirational

4.0  

Sunita Shukla

Inspirational

दूसरी माँ

दूसरी माँ

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"हेलो...हेलो...उमा...तुम सुन रही हो न.. बहुत बड़ी अनहोनी हो गई है...जितनी जल्दी हो सके, यहाँ आ जाओ अपनी माँ के पास"......और फोन कट गया। कुछ और कहने सुनने का मौका ही नहीं मिला। उस वक्त मोबाइल और इंटरनेट का जमाना भी नहीं था कि आए हुए नंबर का पता लग सके।


जल्दी से दो चार कपड़े बैग में डाला और दोनों बच्चों को वहीं छोड़ अगली गाड़ी से ही उमा मायके को रवाना हो गई। मन में अनगिनत सवाल, और कुछ अनिष्ट की आशंका ने छह-सात घंटे के सफर को मीलों लंबा कर दिया था। किसी तरह यह रास्ता भी पार हुआ और वह अपने घर के सामने खड़ी थी। सबने उसे गाड़ी में से उतरते देखा लेकिन किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। चारों तरफ अफरा-तफरी मची हुई थी, कुछ पहचाने तो बहुत से अनजान चेहरे भी दिखाई दिये। इतने शोरगुल में भी एक मनहूस सा सन्नाटा पसरा हुआ था।


घर के अंदर से करुण क्रंदन और विलाप की आवाजों से तंद्रा भंग हुई तो उमा दौड़कर घर के अंदर भागी। कुछ औरतें उसके आगे पीछे थीं, दुख की इस घड़ी में हर कोई परिवार और सगे संबंधियों को सहारा दे रहा था। शायद यही फर्क है शहर की आधुनिकता और गाँवों की आत्मीयता में।


घर के अंदर का दृश्य देख मुँह से एक चीख निकली और वह गश खाकर गिरने ही वाली थी कि आस-पड़ोस की स्त्रियों ने उसे सँभाल लिया। उसका छोटा भाई अब इस दुनिया में नहीं रहा।.....नहीं ये नहीं हो सकता...भगवान इतना निष्ठुर नहीं हो सकता..वह लगातार बड़बड़ाती जा रही थी। हर कोई उसे सांत्वना देने में लगा हुआ था। पर वह तो सोच रही थी... अभी पिछले महीने ही तो वह इसी आँगन में कितना झूम झूमकर नाची थी। उसके इकलौते भाई की शादी थी और माँ, उनकी खुशी की तो कोई सीमा ही नहीं थी, दोनों हाथों से पैसे लुटा रहीं थी कि कहीं कोई कमी न रह जाए। जिस माँ को उसने कभी सिर पर बिना आँचल के न देखा कभी तेज आवाज न सुनी, वो तब सभी सहेलियों के साथ मंगलगीत और नई दुल्हन के स्वागत की तैयारियों में कमी रहने पर काम करने वालों को डाँट भी रही थी।


और आज वही माँ...बदहवास सी.... विवाह के एक माह बाद ही जवान बेटे की मौत का वज्रपात सीने पर झेल, अपनी विधवा हुई बहु का सिर अपनी गोदी में रख मौन...पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद अपने दोनों बच्चों का जीवन संवारने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी और आज फिर नियति ने कैसा क्रूर मजाक किया है.... निस्तब्ध, भावहीन बिना कुछ कहे वह... उसकी आँखों से निकलते आँसुओं को रोकने का असफल प्रयास कर रही है।


इसी तरह रोते बिलखते तीन-चार दिन निकल गए। तरह-तरह के विधि विधान पूरे किये जा रहे थे। हर तरफ मायूसी और गमगीन चेहरों की भरमार थी। उमा भी भरपूर कोशिश कर रही थी अपनी माँ और भाभी रश्मि को संभालने का। वह हर वक्त उन दोनों के आसपास ही रहती। अगली सुबह आँगन में बैठी औरतों का मजमा लगा हुआ था और वह सभी आपस धीरे-धीरे कुछ बात कर रहीं थी। उनकी फुसफुसाहट से उमा व्याकुल हो रही थी उसने उनके पास जाकर रिश्ते में दादी लगने वाली पड़ोस की एक महिला से पूछा कि क्या बात है।


तब पड़ोस की दादी ने जो बताया उसे सुनकर उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। उन्होंने बताया कि आज विधवा हुई स्त्री के सुहाग संबंधित सारी निशानियों को सभी के समक्ष नष्ट किया जायेगा। दो औरतें कमरे में जाकर भाभी को आँगन में ले आईं और बाहर आती भाभी एक बेजान सा शरीर प्रतीत हो रहीं थी। सूजी हुई लाल आँखें हर कहानी बयान कर रही थीं और उस पर यह घोर मानसिक पीड़ादायक कर्मकांड।


माँ को देख कर तो ऐसा लग रहा था कि उनका शरीर तो यहाँ है पर मन कहीं और भटक रहा था, रोते-रोते अब तो उनके आँसू भी साथ छोड़ चुके थे। समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या ज्यादा कष्टकारी है, ईश्वर का दिया दुख या सामाजिक रीतियों का त्रास।


भाभी को आँगन में बैठाया गया, और इसके आगे कुछ होता उससे पूर्व ही माँ जोर से चीखीं... नहीं...नहीं..! ऐसा कुछ नहीं होगा आज, तन मन से तो यह टूट ही चुकी है लेकिन अब इसकी आत्मा पर वार नहीं होने दूँगी मैं....छोड़ दो सब उसे .....उमा अपनी भाभी को अंदर लेकर जाओ। और उमा भाभी को सहारा देती अंदर आ गई। बाहर से जोर-जोर से आवाजें आ रही थी, तरह-तरह के तर्क-वितर्क दिये जा रहे थे।


लेकिन माँ अपने निर्णय पर अडिग थी और हाथ जोड़कर दो टूक शब्दों में स्पष्ट करते हुए बोलीं कि उन्हें क्षमा कर दिया जाय कि माना वह रीति-रिवाज के खिलाफ जा रहीं हैं लेकिन पुत्र की मृत्यु का दुख माँ से अधिक किसे हो सकता है, यह तो जीवन भर का नासूर है जो हर दिन हर पल चुभता रहेगा..... उसकी यादों के सहारे हम बाकी बचा जीवन भी किसी न किसी तरह काट लेंगे.....जीवन भर के बिछोह का दुख सहने वाली इस मासूम लड़की का उसमें क्या दोष... अभी तो वह इस परिवार से घुल-मिल ही रही थी और उसने इसे अपना परिवार भी बना लिया था तो क्या अब बेटे के न रहने पर मेरा ये कर्तव्य नहीं है कि मैं हर परिस्थिति में उसका साथ दूँ और साथ ही कोई भी ऐसा काम न होने दूँ जिससे उसकी पीड़ा और बढ़े। इस घर में वह बहू बन के आई थी लेकिन अब उमा की तरह वो भी मेरी बेटी बन कर रहेगी। आज से एक माँ की तरह मैं उसकी देखभाल करूँगी और उसे अब कोई कष्ट नहीं होने दूँगी।


हर कोई अपलक निस्तब्ध उर्मिला जी के इस नये रूप को देखकर हैरान था। सब आपस में खुसुर-पुसुर करने लगे, लेकिन माँ के दृढ़ निश्चय को देखकर कोई कुछ नहीं बोला, दो-चार औरतें गुस्साकर वहाँ से उठकर चलीं भी गईं और बाकी वहीं बैठी रहीं शायद शिष्टाचारवश या पारिवारिक संबंधों की खातिर मूक रहकर साथ दे रहीं थीं। जैसे-तैसे भारी मन से आगे के क्रियाकर्म पूरे हुए और तेरहवीं के बाद सब सगे संबंधी अपने घरों को लौट गए। गाँव में लोगों की नाराजगी से बचने के लिये उर्मिला जी भी उमा और रश्मि के साथ शहर वाले अपने मकान में रहने चली आईं।


शहर में कुछ दिन माँ के साथ रहकर उमा भी लौट गई और पीछे रह गए दो अधमरे निर्जीव से शरीर उसकी माँ उर्मिला जी और भाभी रश्मि। दोनों ने एक-दूसरे का हर कदम पर भरपूर साथ दिया, उर्मिला जी के दिल की बीमारी हो या घुटनों का दर्द, रश्मि ने हर वक्त दिल से उनकी सेवा और देखभाल की। उर्मिला जी ने भी उसका कदम-कदम पर साथ देते हुए पहले छूटी हुई पढ़ाई पूरी करने के लिये प्रेरित किया और फिर इंग्लिश स्पीकिंग क्लासेस, कार चलाना, कम्प्यूटर का कोर्स, वो हर चीज जो वो अपनी बेटी के लिए सोचती थीं, करने के लिये उचित मार्गदर्शन किया और उसका आत्मविश्वास बढ़ाकर आत्मनिर्भर बनाया।


रश्मि के पिता ने कई बार उससे अपने घर लौट चलने को कहा पर वह जानती थी मायके में तो मां और पापा के साथ भाई, भाभी और उनके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं तो उनकी तरफ से वह निश्चिंत हो सकती है पर यहाँ, यहाँ तो उसके सिवा और कोई भी नहीं है। अगर वह चली गई तो माँ जी बिलकुल अकेली हो जाएंगी....नहीं...नहीं.... मैं इन्हें छोड़कर नहीं जा सकती। इसी उधेड़बुन मे समय बीतता गया।

रश्मि अब बैंक में नौकरी करने लगी थी और दिनभर व्यस्त रहती। उर्मिला जी भी कोशिश करतीं कि छोटे-मोटे काम उसके आने से पहले कर लें। उन दोनों की दुनिया अब एक थी, अब तो दोनों एक दूसरे के बिना अधूरी थीं। दोनों के शाम का पूरा समय दिनभर की बातें करने में निकल जाता। बीच-बीच में उमा भी कुछ दिनों के लिये बच्चों के साथ आ जाती तो समय कैसे निकल जाता था पता ही नहीं चलता। इसी तरह दिन बीतते गये।


आज जब रश्मि बैंक के लिये निकलने लगी तो उर्मिला जी ने कहा बेटा हो सके तो आज थोड़ा जल्दी आ जाना। जी, माँ जी.... कहकर वह निकल गई और घड़ी में शाम के पाँच बजने से पहले ही वह घर की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी, आखिर पहली बार माँ जी ने उससे कुछ कहा था तो उसे तो पूरा करना ही था। दरवाजे की घंटी पर हाथ रखती उसके पहले ही उर्मिला जी ने एक हल्की मुस्कान के साथ दरवाजा खोल दिया। वह भी हँसते हुए घर के अंदर दाखिल हुई तो देखा सामने सोफे पर उसके अपने पापा-मम्मी बैठे हुए थे। उन्हें अचानक आया देख उसे खुशी तो बहुत हुई पर थोड़ी हैरानी भी हुई क्योंकि हर बार यहाँ आने से पहले वो बताते जरूर थे।


टेबल पर पड़े चाय के खाली कप और नाश्ते की प्लेट बता रही थी कि उन्हें आए काफी देर हो चुकी है। वह भी कपड़े बदल सबके साथ आकर बैठ गई। एक-दूसरे का हाल-चाल पूछकर इधर-उधर की कुछ बातें हुईं और फिर कमरे में कुछ देर के लिये एक सन्नाटा सा छा गया। उर्मिला जी और पापा-मम्मी एक-दूसरे से जैसे आँखों में ही कुछ बातें कर रहे हों और वह सवालिया नजरों से उनकी ओर देखे जा रही थी। तब उर्मिला जी ने ही बोलना शुरू किया- देखो बेटा मैंने ही तुम्हारे माता-पिता को फोन करके बुलाया है और हमने तुम्हारे लिये एक लड़के को पसंद किया है, तुम एक बार उससे मिल लो और अगर अच्छा लगे तो, हम सभी चाहते हैं कि तुम शादी करके अपना घर बसा लो।


रश्मि को मानो काटो तो खून नहीं वह कुछ कहना चाह रही थी पर शब्द रुंधे गले में आकर रुक से गये, बड़ी मुश्किल से वह इतना ही बोल पाई.. अपना घर...माँ जी.. क्या...क्या... ये मेरा घर नहीं है...क्या अब मैं आप पर बोझ हो गई हूँ और वह वही सोफे पर ही निढाल हो सिसक-सिसक कर रोने लगी।


उसकी ये हालत देखकर उर्मिला जी का दिल भर आया उन्होंने उसे अपनी गोद में भर लिया और बोली... "नहीं मेरी बच्ची ऐसा मत सोचो ...तुम तो वो हो जिसने अपने बेटे को खो देने पर मुझे जीना सिखाया..... तुम तो मेरे जीवन का उद्देश्य हो..तुम्हारी खुशी में ही हम सबकी खुशी है... जिन्दगी बहुत लम्बी है बेटी ...अकेले निकालना बहुत कठिन है.. मुझे तो तुम्हारा साथ मिल गया लेकिन तुम्हारा जीवन तो अभी शुरू ही हुआ है।"


उसकी माँ ने उसे समझाते हुए कहा "बेटी हम तुम्हारे माँ-बाप हैं और हमें तुम्हारी बहुत चिन्ता है। लेकिन उर्मिला जी और हम दोनों अब बूढ़े हो चुके हैं, आखिर कब तक तुम्हारे साथ रहेंगे। समाज के डर से जो निर्णय हम तुम्हारे बारे में नहीं कर पा रहे थे वो तुम्हारी सास उर्मिला जी ने कर के दिखा दिया। मैंने तुम्हें जन्म जरूर दिया है लेकिन उर्मिला जी ने तुम्हें नया जीवन दिया है, वह सास नहीं तुम्हारी दूसरी माँ हैं..ठीक वैसे ही जैसे मुरलीधर की यशोदा माँ। उन्होंने ही हमें इसी शहर में रहने वाली अपनी सहेली और उसके बेटे के बारे में बताया, आज हम दोनों उनसे मिलकर आ रहे हैं, वो बहुत अच्छे और शिक्षित लोग हैं। उन्होंने हमसे कहा कि पहले हम तुमसे बात कर लें और तुम उनसे एक बार मिल लो, तुम्हारी हाँ के बाद ही हम लोग कोई फैसला करेंगे।"


उर्मिला जी ने प्यार से रश्मि का सिर सहलाते हुए बोलीं..."मेरी बच्ची तुम मुझसे दूर कहाँ जा रही हो... तुम तो इसी शहर में रहोगी, जब तुम्हारा जी चाहे आ जाना, और मैं भी तुमसे मिलने आती ही रहूँगी...आखिर उमा को भी तो मैंने ऐसे ही विदा किया था एक दिन।" रश्मि, उर्मिला जी के पैरों में गिर पड़ी पर उर्मिला जी ने उसे अपने गले से लगाते हुए कहा बेटियों की जगह दिल में होती है पैरों में नहीं। सब की आँखों से आँसुओं की निर्मल धारा बह रही थी और दिल में एक सुखमय जीवन की आस पल्लवित हो रही थी।

               

                        

             



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