लोक व्यवहार

लोक व्यवहार

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" हमारी भाषा और संस्कृति ही हमें एक नया आंदाज और नया पहलू देती है जिससे हम अपना और अपने परिवार का सर्वोत्तम परिचय देते हैं। "

" हम कभी कभार अपनी बहती जुबान से कुछ दुर्लभ तस्वीरें बनाने वाले शब्द बयां कर देते है जिससे हमारे प्रति जो दृष्टिकोण है लोगो का वी बदल ही जाता है।" 

" एक बार मैं और मेरे साथी किसी शादी में शरीक होने गए।

शादी हमारे किसी गुरुजी कि थी और वो पटियाला (पंजाब ) के थे और हम चूरू ( राजस्थान) के तो भाषा और व्यवहार में कुछ अधिक ही परिवर्तन था। "

हम तीन दिन पहले ही शादी में पहुंच गए।

और खूब मस्ती की।

" क्योंकि हम तो पंजाब पहली बार गए थे तो हमें कोई जानता भी नहीं था लेकिन गुरुजी ने जाते ही अपने परिवार से मिलाया।" 

फिर शाम को शादी की महफ़िल सजी तो हम भी बैठ गए क्योंकि हम तो राजस्थानी थे और बुजुर्गो के मान सम्मान को अच्छी तरह समझ सकते थे।

चर्चा चल रही थी और हम भी बीच बीच में किसी बात में टांग अड़ा ही देते जवाब भी मिलता और हम इग्नोर नहीं थे लेकिन हम जो सोचकर गए थे शायद वो हमे नहीं मिला।

हम जो भी शब्द बोलते पता नहीं क्यों लोग हमारी तरफ देखने लग जाते।

हम पांच जने थे और पांचों ही भोचके से रह जाते फिर एक बार मौका पड़ते ही हमने मिलकर गुरुजी से पूछा कि ये मसला क्या है।

कहीं ये हमें चोर तो नहीं समझ रहे है तो गुरुजी ने कहा कि नहीं ये तुम्हारी भाषा सुनकर हैरान है।

आप सभी राजस्थानी भाषा को मान्यता देते हो और हमारे यहां पंजाबी को।

हमें पंजाबी आती नहीं और वो समझ बैठे कि बोलते नहीं।

हम कभी ऐसी जगह गए ही नहीं जहां बिना गाली के तो बात ही नहीं होती है।

हम गाली सुनकर हैरान हो जाते थे।

फिर भी हमने तीन दिन बीता लिए हमारी कोई कीमत नहीं थी बस काम कर देते और खाना खाकर सो जाते कोई जानता ही नहीं था 

फिर दूल्हे की सहरी का वक्त आया जब दूल्हा बनकर तैयार हो

 जाता है और दूल्हे की पोशाक में दूल्हे को मां का दूध पिलाया जाता है।

 वहां कोई इस बात पर ध्यान ही नहीं दे रहा था।

सब अपने काम में व्यस्त थे।

अचानक मेरे साथी का ध्यान उधर गया और मुझे बोला कि शशि ये क्या है दूध की रस्म तो किसी ने निभाई ही नहीं।

शोर इतना था कि जोर से बोले बगैर सुनाई ही नहीं दे।

मैं तेज आवाज़ में चिलाया- कि अरे कम से कम रस्म तो ढंग से निभाओ।

 तो पीछे से आवाज़ आई कि सही बात है 

मां का दूध तो नहीं पिलाया।

 जब पिलाकर दूल्हा आगे बढ़ा तो सभी की निगाहें मेरे उपर थी।

जहां तीन दिन की महफिल में मुझे कोई जनता नहीं था।

दूसरे दिन उस परिवार के सबसे बूजूर्ग सदस्य ने गले लगाकर कहा,

कि " बेटा में इन्हे नहीं कह सकता था, क्योंकि में अपनी रिवाज के चलते ससुर कभी बहू से बोल नहीं सकता है" 

" और कोई मेरे आवाज़ को शायद इस शोर में कोई नहीं सुनता लेकिन तूने तो मेरे दिल की आवाज सुनकर अपनी रश्म से और लोक व्यवहार नेग रिवाज से खुश कर दिया। 

दो साल बाद फिर मैं उसी घर में किसी अन्य शादी में गया और उन बुजुर्ग को ढूंढा 

वो बुजुर्ग तो नहीं मिले हां उनकी वजह से मिले मान सम्मान को मेरे दिल ने कभी नहीं भुलाया है।

शादी से आते वक्त घर के किसी सदस्य ने बताया कि दादाजी तो चल बसे लेकिन को कहकर गए थे कि उस शशि बेटे को जरूर बुलाना।


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