लोहड़ी
लोहड़ी
नववधू ही तो थी जीतो, 2 महीने पहले ही विवाह हुआ था। पहली लोहड़ी थी।
अनाथ, नरिंदर से विवाह हुआ था, तो वो एक पल उदास हुई, घर में किसी के न होने से, पर बेबस थी।
और अब नरेंदर लोहड़ी से 2 दिन पहले से ही गायब था, साथ में उसका एक दोस्त लाला भी था।
पूरे गांव में ढूंढ मच गई, तालाब में भी जाल डलवा कर देखा गया।
आस पास के गांवों में भी, पर निष्फल---
जीतो का रो-रोकर बुरा हाल था। दिलासा देने वाले भी थक, हार कर चुप बैठ चुके थे। जीतो भी नियति को स्वीकार कर चुकी थी। पीहर जाने से उसने साफ इनकार कर दिया था।
खेती संभालती वो बहादुरी की मिसाल बन चुकी थी।
आज फिर लोहड़ी का शोर था, मक्का, मूंगफली और गुड़----
अपने कमरे में शांत बैठी जीतो की आंखें बंद थी, बंद आंखों में अतीत के, चलचित्र की तरह सामने आ रहे कुछ दृश्य।
नशे में धुत नरिंदर और लाला------
उसका चीखना, कसकर दबाया जाता मुँह, दबती चीखें, और उन नशेड़ियों का उसके ऊपर हावी होते
जाना---
सहसा ही उसके हाथ में दरांती का आना, सोए पड़े उन मित्रों के गले से चीख भी न निकल सकी।
कौन जान सके था गांव के बाहर उस सूखे कुएं का रहस्य----
कुछ सोच कर वो उठी, लोहड़ी का शोर शांत था।
सधे कदमों से वो चल पड़ी लोहड़ी की ओर। 2 शर्ट और दो लुंगी लोहड़ी की अग्नि में समाहित हो चुके थे
और बहती आंखों के मध्य भी गूंज रहा था या अट्टहास