लेस्बियन हूँ, रेपिस्ट नहीं
लेस्बियन हूँ, रेपिस्ट नहीं
गाड़ी के अचानक रुकने से मेरा पारा आसमान में चढ़ गया। ड्राइवर पर चिल्लाती हुई मैं बड़बड़ाने लगी। ड्राइवर देखने गया कि किस कारण जाम लगा है और वापिस आकर उसने बताया कि आगे कोई नुक्कड़ नाटक चल रहा है जिसके कारण भीड़ लगी है और ट्रैफिक जाम हो गया है।
"क्या जमाना आई गवा है मैडम, आजकल लड़की लड़की भी प्रेम लड़ाये रही हैं। न जाने हम आदमियों का, का होई है आगे के जमाना मा!"
उसकी बात सुनकर मेरे माथे में शिकन उभर आई जिसे वो शायद समझ गया और अपने हँसते हुए दाँतो को वापिस मुँह के भीतर कर आकर अपनी सीट पर बैठ गया।
नाटक से आवाज़ें आ रही थीं,"अरे, सुनो, सुनो, सुनो! जिस समाज में तुम रहते हो, उसी का हिस्सा हैं हम भी। जो रोटी तुम खाते हो, उसी का निवाला हम भी तोड़ते हैं..इस समाज में रहने का हक़ हमें भी उतना है, जितना कि तुम्हें....""
आवाज़ें गूँज रही थीं और मेरा मन मेरे शरीर को उस गाड़ी में छोड़ 15 साल पहले पहुँच गया था।
****
बड़े भैया की साली, गहना, हमारे यहाँ आने वाली थी। तीन महीने बाद उसकी कॉमर्स ग्रेजुएशन की परीक्षा थीं जिसके लिए कोचिंग लेने और परीक्षाएँ देने वो हमारे यहाँ यानी कि दिल्ली आने वाली थी।
लक्ष्मी नगर स्थित एक कोचिंग सेंटर में उसको एडमिशन मिला था। उसके लिए ये बहुत बड़ी बात थी, उत्तर प्रदेश के एक बेहद छोटे से गाँव से थी वो, वहाँ इतनी सुविधाएँ नहीं थीं फिर भी उसने यहाँ तक का सफ़र तय किया था, ये बहुत बड़ी बात थी।
घर में सभी के मुँह पर उसकी प्रशंसा और मेरी बुराइयाँ थीं। मैं जो इतनी सुख सुविधाओं के बीच भी बमुश्किल स्नातक पार कर पाई थी और आगे की पढ़ाई को दरकिनार कर अब पॉटरी पर हाथ आज़मा रही थी।
अरे अब घरवालों को कौन समझाता कि जितना मज़ा उस गीली मिट्टी को छूकर सुंदर आकृतियों में बदलने में है, उतना इन किताबों में लिखी बातों को रटने में नहीं! ख़ैर, मेरे गुस्से का कारण उसकी प्रशंसा नहीं थी, वो मेरे कमरे में रुकने वाली है, बस यही सुन सुनकर मेरा खून उबाल मार रहा था।
मुझे याद नहीं कि एक बार ये कमरा हाथ में आने के बाद मैंने किसी और को इस कमरे में एक रात भी सोने दिया हो! और वो यहाँ तीन महीने, या उससे भी ज़्यादा रहेगी! सोच सोचकर ही मुझे पापा पर गुस्सा आ रहा था।
अरे बड़ी भाभी की बहन है, सुलायें अपने कमरे में उसे! उनकी प्राइवेसी प्राइवेसी है, और मेरी? उसका क्या? ।लेकिन पापा के आगे बोलने की हिम्मत कभी थी क्या मुझमें? इस बार भी न बोल सकी। पॉटरी के लिए आज भी उनकी लाल आँखें झेलती थी मैं, अब आगे और कुछ सहने की क्षमता नहीं थी।
बड़ी ही नापसंदगी लेकर उसका आगमन कराया था अपने कमरे में मैंने। गहना! हम्म! नाम भी कितना पुराना है! मन ही मन हँसी छूट गई थी मेरी।
एक छोटा सा कपड़ों और एक बड़ा सा किताबों का बैग थामे वो हमारे घर के भीतर चली आई थी। एक कॉटन सिल्क के सूट में ढँकी, अपने लंबे बालों की मोटी सी चोटी बनाये और आँखों पर एक मोटा सा चश्मा चढ़ाए वो बिल्कुल एक किताबी कीड़ा नज़र आ रही थी। बेहद ही हीन भावना से उसे देखती मेरी नज़रों को विराम लगा जब उसने अपना हाथ मेरे आगे बढ़ाया। भैया की शादी के दौरान भी हमारी ज़्यादा बातें नहीं हुई थीं लेकिन आज जैसा माहौल भी नहीं था तब। भाभी से मेरी ठीक बनती थी। शायद इसी कारण वो मुझसे बहुत आत्मीयता से पेश आई। अपने मन में घुमड़ते उसके प्रति थोड़े तुच्छ विचारों को किनारे रखते हुए मैंने उससे हाथ मिलाया।
और इस तरह शुरुआत हुई उसकी और मेरी दोस्ती की।
न जाने कब मेरे गुस्से से सुलगते मन पर उसने अपने अच्छे व्यव्हार का पानी डाल दिया!
सुबह उठकर उसकी सुरीली आवाज़ में आरती सुनकर हमारा पूरा घर मोहित हो उठता था।
माँ के लाख मना करने के बावजूद भी वो रसोई से लेकर घर के अन्य हिस्सों में अपने काम का योगदान देती। दादी के पैरों के पास बैठकर उनके पुराने किस्से, जो वो अब मेरे साथ ही उसको भी सुनाती, हम दोनों का मनपसंद शग़ल हो गया। रात को उसकी पढ़ाई और मेरी मिट्टी के साथ खिलंदड़ी के बाद अक्सर मैं उसकी गोद में लेट जाती और वो मेरे बालों में हाथ फिराती और मैं एक असीम आनंद का अनुभव करती न जाने कब सो जाती! मिट्टी पर कुछ रंग बिरंगे आकार बिखेरते हुए कब मिट्टी उसके और मेरे गालों पर लग जाती, हमें पता ही न चलता!
उसकी पढ़ाई और घर के कामों के अतिरिक्त उसका बाकी का समय अक्सर मेरे ही साथ गुज़रता।
घर के सभी लोगों पर अपना जादू बिखेरा था उसने तो छोटे भैया कैसे पीछे रहते! उनका डाइनिंग टेबल पर नज़रों के कोनों से गहना को गहनता से देखना, हम सबने भी देख लिया था और आख़िरकार उसकी परीक्षा ख़त्म होने तक माँ ने उसे इस घर की छोटी बहू बनाने का फ़ैसला ले लिया जिसमें मेरी भी ख़ुशी ख़ुशी मंज़ूरी शामिल थी।
****
उस रात मुझे पॉटरी क्लास से लौटने में देर हो गई थी।
बहुत थक गई थी उस दिन मैं। सोचा था कि आज उससे चम्पी कराऊँगी और फिर हम देर रात तक बातें करेंगे, आख़िर अब उसकी परीक्षाएँ भी तो ख़त्म हो गई थीं, अब हमारे पास भरपूर समय था।
घर लौटकर खाने की थाली लिए मैं सीधे कमरे में चली आई। वो बिस्तर पर तकिए में मुँह छुपाए सिसक रही थी। एक पल को मैं डर गई, मुझे कुछ समझ ही न आया कि वो रो क्यों रही है? उसको कंधे से थाम मैंने पूछा उससे तो सिसकती हुई वो बोली," मौसी जी मेरी शादी अनुपम जी( छोटे भैया) से कराना चाहती हैं।"
मैं एकपल को सन्न हुई और फिर ख़ुद को संभालती हुई बोली,"तो? इसमें रोने की क्या बात है? क्या तुम्हें भैया पसंद नहीं?"
उसने जवाब में न में सिर हिलाया तो मैंने उसकी ठोड़ी को छूकर उससे पूछा,"किसी और को पसंद करती हो?"
उसने फिर न में सिर हिलाया।
"तो फिर क्या दिक्कत है?"
वो चुप रही। मैं अब झल्ला सी गई और उसको झंझोरती हुई बोली,"अरे! बोलों न, क्या दिक्कत है? भैया पसंद नहीं, कोई और भी पसंद नहीं! क्या परेशानी है मेरे भैया में?"
शायद मेरे भीतर की बहन के अहम को ठेस पहुँची थी। लेकिन अगले ही पल मेरे अंदर की दोस्त जागी और मैंने उससे फिर पूछा," गहना, बताओ मुझे। क्या बात है?"
"मुझे लड़के पसंद नहीं।"
इस एक वाक्य ने मुझे जड़ से हिला दिया था। जो मैं समझ रही थी, क्या वाक़ई उसका यही मतलब था? ये जानने के लिए मैंने उससे दोबारा पूछा,"क्या मतलब?"
"मुझे लडकों में कोई इंटरेस्ट नहीं, मुझे लड़कियाँ पसंद हैं।"
मैं धक सी बिस्तर पर जा गिरी।
****
थोड़ी देर बाद हम दोनों छत की दीवार पर हाथ में चाय का कप लिए बैठे थे। उसने मेरा हाथ थामा तो मेरे बदन में सुरसुरी सी दौड़ गई। मेरी आँखों में डर उतर आया और मैंने अपना दुप्पटा ठीक किया। इसे देखकर वो ज़ोर से हँसी।
"लेस्बियन हूँ, रेपिस्ट नहीं! डरो मत, तुम्हारा बलात्कार नहीं करूँगी मैं।"इतनी बड़ी बात उसने कैसे हँसी में बोल दी थी!
मेरे चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी देख वो बोली,"क्या हर लड़के के लिए एक सी भावनाएँ आती हैं तुम्हारे मन में?"
"नहीं, नहीं तो।" मैं बोली।
"बस! मेरे मन में भी हर लड़की के लिए प्यार की भावना नहीं आती। और वैसे भी तुम मेरे टाइप की नहीं, तो रिलैक्स हो जाओ।"
मैं बिना पलक झपकाए उसकी ओर देख रही थी और इसी बेवकूफ़ी में एक और सवाल निकला मेरे मुँह से,"लेकिन इतने छोटे से गाँव में रहकर ऐसी भावनाएँ कहाँ से....?"
मेरी बात पूरी होने से पहले ही उसने एक बार फिर ठहाका लगाया," बहुत भोली हो तुम। भावनाएँ नगर और गाँव की सीमाओं में बंधी नहीं होतीं। मैं बचपन से ही ऐसी हूँ। बड़े होने के बाद अपने भीतर की सच्चाई का अनुभव ज़्यादा अच्छे से कर सकी बस।"
"क्या अंकल आंटी जानते हैं इस बारे में?"
"नहीं।"
"तो अब? तुमने सोचा है, जब सबको पता चलेगा तो क्या होगा? ये समाज कभी इसे स्वीकारेगा नहीं। तुम तो जानती ही हो न, ये सब बस फ़िल्मों में ही अच्छा लगता है।"
"समाज, यार इस समाज की दिक्कत क्या है? क्यों सबको एक ही साँचे में ढालना चाहता है ये? और फिर सब एक से तो नहीं होते! जो अलग हैं, वो समाज के लिए, लोगों के लिए अजीब क्यों है?"
"इससे समाज पर बुरा असर पड़ता है।" मैंने भरपूर समझदारी से उत्तर दिया।
"बुरा असर? जिस तरह नॉर्मल लोग अपने जैसे स्वभाव के लोगों से जुड़ना पसंद करते हैं, उसी तरह हम लोग भी उन्हीं के साथ जुड़ते हैं जो हम जैसा सोचते हैं, हमारी जैसी भावनाएँ रखते हैं। इसमें बुरा क्या है?"
मैं हैरान थी। मुझे कुछ समझ नहीं आया फिर भी मैंने उसे समझाने की कोशिश की," यार, स्त्री पुरुष , दोनों के इस प्रकृति, और समाज के प्रति कर्तव्य हैं। उन्हें इस दुनिया को आगे बढ़ाना है। अगर सब ऐसे ही हो जाएंगे तो भूचाल न आ जायेगा इस जहाँ में?"
वो मुझे देख मुस्कुराई, मुझे लगा जैसे हँस रही है मुझपर।
"सब ऐसे नहीं हो सकते पागल। ईश्वर ने सबको अलग बनाया है। अधिकतर सभी अपने से अलग लिंग की ओर ही आकर्षित होते हैं,लेकिन कुछेक हम से भी होते हैं जिन्हें हम जैसे ही पसंद है। और फिर वो लोग बढाएंगे न ये दुनिया आगे। न जाने कितने ही लोग हैं, ऐसा करने के लिए! हमें अकेला क्यों नहीं छोड़ देता ये समाज? क्यों नहीं हम अपने मन की कर सकते? क्यों हमें इसी समाज के तहत चलने की मजबूरी है?और फिर हम लोगों की अपनी एक अलग दुनिया क्यों नहीं हो सकती? सबकी अपनी भावनाएँ होती हैं तो हमारी ही भावनाओं से किसी को क्या फ़र्क़ पड़ जायेगा? सबको ऐसा होने के लिए नहीं कहती मैं। ऐसा संभव भी नहीं। ईश्वर ने सभी प्रकार के लोग बनाये हैं, लेकिन जो हैं हम जैसे, जितने भी हैं, उन्हें स्वीकारने में क्या दिक्कत है? क्यों नहीं हम लोगों को भी सामान्य समझ लिया जाता? क्यों हमें अपनी भावनाओं को मारकर इस समाज के अनुरूप ही ढालना है ख़ुद को?
तुम मुझे देखो, घर पर जब अनुपम जी की बात चलेगी, तो क्या मेरी इस सच्चाई को स्वीकारा जाएगा? मुझपर भी दबाब ही होगा न कि मैं बाकी लड़कियों की तरह शादी करूँ और बाकियों की तरह ही अपना जीवन बिताऊँ! लेकिन क्यों? क्यों नहीं मैं या मेरे जैसे लोग अपनी मर्ज़ी का जीवन जी सकते?"
उस समय वो बहुत आवेश में थी। उसे कुछ भी कहना मुझे ठीक नहीं लगा। या शायद मेरे पास उसके सवालों के जवाब थे भी नहीं।
थोड़ी देर बाद हम नीचे आ गए। कुछ देर तक मैं उसका सिर सहलाती रही और फिर वो सो गई।
आज मेरी आँखों में नींद नहीं थी। पूरी रात मैं उसके सवालों की जस्टिफिकेशन ढूँढती रही लेकिन पा न सकी।
चार दिन तक वो हमारे घर में और रही। इन चार दिनों में उसका चेहरा फिर खिल न सका। शायद वो जानती थी कि आगे क्या होने वाला था!उसके घर जाने के एक महीने बाद ख़बर आई कि उसने आत्महत्या कर ली। कारण किसी को न पता था। पूरे घर में बस यही बात हो रही थी कि इतनी सुशील, सुंदर और पढ़ी लिखी लड़की को ये कदम आख़िर क्योंकर उठाना पड़ गया? जवाब किसी के पास नहीं था।
मैं जानती थी, समाज ने उसे नहीं स्वीकारा था, और उसने इस समाज को। इस समाज के मुताबिक वो जी नहीं सकती थी तो उसने मर जाना ही बेहतर समझा।
घिन चढ़ रही थी मुझे उसपर। कायर निकली वो। अलग होना आसान नहीं होता, अजीब होने के लिए दिल कठोर करना पड़ता है। लड़ती, झगड़ती इस समाज से, लेकिन यूँ अपनी जान ले लेना, कहाँ तक सही था?
लेकिन, न जाने क्यों इतनी नाराज़गी के बाद भी, उसका वो हँसता चेहरा, कचोटता है मुझको! उसकी वो आँखें, जैसे खा जाने को आती हैं मुझे।
****
ये नाटक, ये शोर, अब और बर्दाश्त नहीं हो रहा था मुझसे। न जाने कब तक ये जागरूकता रेल चलेगी। कोई मंज़िल हासिल कर भी सकेगी या नहीं? नहीं जानती मैं। बस इतना ही जानती हूँ कि मंज़िल तक के सफ़र में अभी न जाने कितनी ही गहना को होम होते देखना होगा मुझे!
न जाने कितने ही "अजीब" किरदारों को मरते देखना होगा मुझे।
कानों पर हाथ रख मैंने दिल को उसकी यादों से और ड्राइवर को उस राह से मोड़ लेने का आदेश दे दिया था।