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डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"

Classics

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डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"

Classics

लाॅकडाउन

लाॅकडाउन

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                        रागिनी मंडल जी इलाहाबाद के नैनी में अपने पिता द्वारा दिये गये मकान में अपने परिवार के साथ रहती हैं। यह मकान करीब 1983 का बना है, यहांँ हालत यह है की धीरे-धीरे सड़कें ऊपर और कमरे नीचे होने लगे हैं, करीब चार फुट नीचे। बहुत ही अजीबोगरीब स्थिति में है ये कमरे। बहुत ही कम और बहुत ही जरूरतमंद लोग ही इन बन्द से कमरों को किराए पर लेते हैं।       यह कोरोना का समय था। लाकडाउन लगने के करीब एक महीने पहले ई रिक्शा पर कुछ सामान लादकर एक आदमी कमरा खोज रहा था। उसके साथ उसकी पत्नी और दो बच्चे भी थे जो बार-बार रिक्शे से बाहर झांँक रहे थे। शायद उनमें उस घर को देखने की उत्सुकता हो रही होगी जहांँ उनको रहना था। उन चारों के कपड़ों से ही उनके ग़रीबी का अनुमान लगाया जा सकता था। किसी ने उन्हें बता दिया की उस गली के चौथे मकान में कोई कमरा खाली है। बस वह आदमी पूछ्ते-पूछते ही रागिनी मंडल जी के मकान के सामने जा खड़ा हुआ। रागिनी जी उस समय गाय को रोटी खिलाने के लिए बाहर निकली हुई थीं। उनको देखकर वह आदमी आगे बढ़ा, “मैडम जी नमस्ते।" “नमस्ते, नमस्ते,कहो क्या बात है? रागिनी ने जवाब दिया।       “मैडम मेरा नाम प्रेम प्रकाश है। हम लोग बहुत परेशान हैं,सुना है आपके पास एक कमरा खाली है।"      “हांँ, है तो! पर पहले देख लो।" वह कमरा लोग कम ही पसन्द करते थे, इसलिए रागिनी ने पहले ही उनके सामने कमरा देख लेने की पेशकश की।        अब ई रिक्शे में से उसकी पत्नी भी उतर कर नीचे आ गई। रागिनी ने दोनों को ले जाकर नीचे का कमरा दिखाया।    प्रेमप्रकाश ने तुरंत हांँ कर दिया। उन्हें तो रहने के लिए एक ठिकाना चाहिए था। “मैडम इसका किराया भी बता दीजिए।" “भाई इसका किराया दो हजार है।"रागिनी ने कहा।   “नहीं मैडम, मैं अभी नया-नया ही यहांँ आया हूंँ।मैं इस कमरे का डेढ़ हजार किराया दूंँगा।" प्रेमप्रकाश ने कहा।      रागिनी ने भी तुरन्त ही हांँ कर दिया। आखिर न के बजाय डेढ़ हजार काफी ही था।      प्रेम प्रकाश ने तुरंत डेढ़ हजार रुपए एडवांस निकाल कर रागिनी जी के हाथ में रख दिया । फिर ई रिक्शे से सारा सामान निकाल कर दोनों ने कमरे में रखा। थोड़ा-सा ही सामान था, झटपट कमरे में रख उठा। उन लोगों ने कमरे में झाड़ू लगाकर चटाई बिछा दी। उस पर बैठ कर दोनों पति-पत्नी को एक बहुत बड़ा राहत मिला। अब अपने और बच्चों के लिए कुछ खाने की व्यवस्था करनी थी। इसी समय रागिनी ने पूड़ी-सब्जी बनाकर उन लोगों को लाकर दे दिया। दोनों बच्चे बहुत भूखे थे वे तुरंत खाने पर टूट पड़े। बच्चों के खाने के बाद दोनों पति-पत्नी ने भी खाना खाया। उन्होंने रागिनी जी का बहुत-बहुत आभार व्यक्त किया          बातों ही बातों में पता चला कि इन लोगों को लखनऊ से एक ठेकेदार लेकर आया है। वह उसे ट्रांसफार्मर का काम कराने के लिए लाया था। उस ठेकेदार ने दस दिन के लिए उसको दो हजार रुपए एडवांस भी दिया था।          प्रेम प्रकाश की पत्नी का नाम मधु था।मधु बहुत ही मिलनसार नजर आयी। उनके दोनों बच्चे भी बहुत चंचल और सुन्दर थे। उनका नाम था कान्हा और विनय । वे अभी बहुत छोटे-छोटे थे बड़ा चार साल का और छोटा तीन साल का। दस दिन बाद ही होली का त्योहार पड़ा और होली के बाद कुल चार दिन ही काम चला था कि उसी समय कोरोना महामारी तेज फैलने के कारण लाकडाउन हो गया। अब प्रेम प्रकाश बुरी तरह से फंँस गया। उसके पास में जो थोड़े से पैसे थे वह भी अब खत्म  होने लगा था।         पराया शहर, पराये लोग सभी अपरिचित। प्रेम प्रकाश जब ठेकेदार को फोन लगाता तो वह बिना काम के पैसा देने से साफ मना कर देता। फिर धीरे-धीरे उसने फोन उठाना भी बन्द कर दिया। अब एक तरफ लाकडाउन और हाथ में पैसा भी नहीं। अब वे करें तो क्या करें ? वे परेशान हो गए। प्रेम प्रकाश सामने के दुकानदार के पास गया,“भैया घर के लिए खाने-पीने का कुछ सामान चाहिए,जैसे ही लाकडाउन खुलेगा मेरा काम चालू होगा, भाई मैं तुम्हारे सारे पैसे दे दूंँगा।"   “अरे नहीं भैया, मुझे तो तुम माफ़ ही करना। मैं कभी किसी किराएदार को उधार नहीं देता हूंँ।" दुकानदार महाशय ने उसे टके-सा जवाब दे दिया। “मेरा विश्वास करो भैया, तुम्हारा पैसा कहीं नहीं जायेगा।" प्रेमप्रकाश लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोला।   “नहीं जी, कल तुम चले जाओगे तो मैं तुमको कहांँ, कहांँ तलाशूंँगा।"दुकानवाले ने लगभग उसे झिड़कते हुए कहा।      प्रेमप्रकाश सिर लटकाए हुए वापस घर में चला गया।        रागिनी अपने कमरे की खिड़की में बैठी  हुई गली में दुकानदार से हो रहे इस बातचीत को ध्यान से सुन रही थी। थोड़ी देर बाद वह नीचे आयी तो देखा बच्चे भूख से ‌रो रहे थे और मधु बच्चों को शांँत करा रही थी।  प्रेम प्रकाश अपने ठेकेदार से गिड़गिड़ा रहा था मगर ठेकेदार बिना काम के एक धेला भी देने को तैयार नहीं था।      रागिनी चुपचाप ऊपर कमरे में गई और दस किलो चावल और दाल तथा कुछ सब्जियांँ लाकर मधु को दे दिया, “लो पहले तो बनाओ खाओ, अपने बच्चों को खिलाओ फिर कुछ और करो।" ‌“अरे भाभीजी बहुत-बहुत आभार आपका, जल्दी ही मेरा पैसा आने वाला है। फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा।"मधू ने कहा।      वे लोग रागिनी के इस सहृदयता पर चकित थे। एक वह दुकान वाला जो उधार तक देने के लिए नहीं तैयार हुआ। एक रागिनी जी जो उनको इतना सारा अनाज लाकर दे गयीं।            रागिनी एक धार्मिक स्वभाव की महिला थीं रोज दो मुट्ठी चावल चिड़ियों के लिए छत पर डाला करती थी। उनके यहांँ गाँव में खेतीबारी होती थी तो चावल, दाल ,गेहूंँ तथा अन्य अनाज गांँव से ही आ जाता था। चावल दाल साफ करने के बाद जो छोटे-छोटे टुकड़े निकलते उनको एक बड़े बर्तन में करके सीढ़ियों के नीचे की जगह में रखवा देती थी। फिर कभी उनकी बहू और कभी वे स्वयं ही, उसी में से रोज दो मुट्ठी चावल निकाल कर चिड़ियों के लिए छत पर डाल देती थी। एक दिन मधु ने जब रागिनी से सीढ़ी के नीचे रखे हुए उन गैलनों के बारे में पूछा तब रागिनी ने उसे सब कुछ बता दिया था।          इधर मधु के यहांँ रागिनी द्वारा दिया गया अनाज़ भी खत्म हो गया। बच्चे फिर रोने लगे।भूख की मजबूरी और वह भी अपने बच्चों की भूख किसी भी इंसान को गलत कदम उठाने के लिए बाध्य कर सकती हैं।मधू ने भी आज वही किया। सीढ़ी के नीचे रखे हुए चावल, दाल की किनकी  में से थोड़ा-सा निकाल ले आयी और उसी को पका कर बच्चों के तथा अपनी पेट पूजा की व्यवस्था की। किनकी चावल के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े होते हैं जिसे या तो पशु-पक्षियों को खिला दिया जाता है या उसे पिसवाकर आटा बनाकर कुछ खाने की चीजें जैसे फरा ,इडली डोसा आदि बनाने में प्रयोग किया जाता है। किनकी को चावल के रूप में पका कर खाना कठिन है और स्वाद भी नहीं आयेगा। परन्तु भूख तो बस भूख है, वह स्वाद नहीं देखा करता है।       दूसरे दिन रागिनी की बहू चिड़ियों को डालने के लिए किनकी निकालने चली तो उसे वह गैलन कुछ हल्का लगा। उसने तुरन्त अपनी सासू मांँ को यह जानकारी दी, “मम्मी  किनकी वाला गैलन आज खाली लग रहा है। अभी कुछ समय पहले ही तो उसे भरा था।" “अरे बेटा, उसमें से निकाल कर मैंने थोड़ा-सा गाय को डाल दिया था।" रागिनी ने अपनी बहू रानी को आश्वस्त किया।           रागिनी जानती थी कि उस गैलन से किनकी मधु ले जाती है। रागिनी दो चार दिन के बाद सबकी नजर बचाकर गैलन भर देती थी। यही नहीं अब तो चिड़ियों को दाना डालने का काम उसने अपने हाथ में ले लिया था। अब वह उस किनकी में आधे से भी ज्यादा चावल मिला देती थी। दाल के टुकड़े में दाल मिलाकर रख देती थी। मधु जब दाल-चावल के टुकड़े निकाल कर लातीं तो पति से कहती,“इन लोगों को किनकी निकालना भी नहीं आता है इसमें तो आधे से अधिक साबूत अनाज होता है।"       उसको यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि रोज वह गैलन से दाल और चावल के टुकड़ेनिकाल कर लाती है पर गैलन खाली क्यों नहीं हो रहा है।वह इसे ईश्वरीय लीला मानकर चल रही थी।      एक दिन रागिनी के बेटे को सीढ़ी के नीचे कुछ आवाज सुनाई दी। वह सीढ़ियों की ओर बढ़ा मगर उसकी मांँ रागिनी सामने आ गयी, “नहीं बेटा कोई जरूरत नहीं है वहांँ जाने की। मुझे सबकुछ पता है। सीढ़ियों के नीचे रखे गैलन की किनकी से ही चार लोगों को जिंदगी मिल रही है बेटा। और वह भी पूरे स्वाभिमान के साथ।"       बेटे को सब समझ में आ गया। उसे अपनी मांँ पर गर्व महसूस हो रहा था।      तभी लाकडाउन खुलने का एलान हुआ।रागिनी ने उन लोगों के उनके घर जाने की व्यवस्था भी की । एक हजार रुपए किराया तथा रास्ते में खाने के लिए पूड़ी-सब्जी भी बनाकर दिया और उनको हंँसी खुशी उनके घर भेज दिया। अपने घर पहुंँच कर दोनों ने रागिनी को बहुत बहुत धन्यवाद दिया।वे लोग सच्चे मन से रागिनी को दुआ दे रहे थे। मधु भगवान को धन्यवाद दे रही थी कि कैसे भगवान ने किनकी का गैलन नहीं खाली होने दिया।

 डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा'
दिल्ली 


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