डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"

Inspirational

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डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"

Inspirational

बेटी

बेटी

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 नये इलाके में उन लोगों का अभी तक सभी से पूरा परिचय भी नहीं हुआ था। शाम को श्याम किशोर और उनकी पत्नी जब घूमने निकलते तब वहां कुछ लोगों से बातचीत के माध्यम से परिचय होरहा था। साथ में रहने वाली बीना को केवल अपने ड्युटी और घर से ही मतलब था इसके बाद वह बाहर बहुत ही कम निकलती थी या यूं भी कहा जा सकता है कि उसे बाहर जाने कीकभी जरूरत ही नहीं पड़ती थी। दूध और सब्जी लाने का काम उसके मम्मी पापा ही कर लेते थे और घर का बाकी सामान वह एक साथ ही आनलाइन मंगा लेती थी। 

वहां पर सभी लोग यही समझते थे कि बीना श्याम किशोर जी की बेटी है। अभी उसकी शादी नहीं हुई है। श्याम किशोर से जो भी पूछता , बेटी है ?

  "हां ये मेरी बेटी है।"

   शइसी तरह रानी से भी जो पूछता," ये आपकी बेटी है ? तो यही जवाब मिलता, हां ये मेरी बेटी है और कौन रहेगा मेरे साथ में ?

 " आपके बेटा नहीं है?"

  "नहीं।" वे दोनों पति-पत्नी दृढ़ता से जवाब देते थे।     

   घर में किसी के आने पर भी वह मात्र चाय नाश्ता देने के लिए ही ड्राइंग रूम में आती फिर वापस चली जाती। उसका पहनावा भी बिल्कुल ही सादा था बिल्कुल गैर शादीशुदा लड़कियों जैसा। साथ ही साथ अभी बीना की उम्र भी अभी कितनी थी? मात्र तीस साल। बीस की उम्र में अभी वह ग्रेजुएशन करने के बाद बीएड कर ही रही थी कि यह रिश्ता आ गया था। श्याम किशोर और रानी ने अपने बेटे किशन की शादी उसी शहर के एक अच्छे परिवार की पढ़ी- लिखी लड़की बीना से की थी। बीना अच्छे शक्ल सूरत के साथ ही साथ एक संस्कारी लड़की भी थी।

         बीना ने अपने बीएड की परीक्षा भी शादी के बाद ही दी थी। बीएड के बाद अपनी मां व पिताजी के सलाह पर सरकारी स्कूल में शिक्षक की परीक्षा भी पास कर लिया और पास में ही उसे विद्यालय भी मिल गया था। इसी एक साल में इक्कीस की उम्र पार करते-करते वह एक पुत्री की मां भी बन‌ गई। तेइसवां साल पार करते करते दूसरी बेटी का जन्म भी हो गया। घर‌ परिवार बच्चे तथा नौकरी‌ इन सबके साथ उसको यह भी आभास नहीं हो पाया कि उसका अपना ही पति किसी गैर के हाथों का खिलौना बन चुका है। किशन का मन अब दो‌ बच्चों की मां और‌ वह भी लड़कियों की मां तथा सास ससुर की सेवा करने वाली एक आदर्श महिला से हटकर अपने ही ऑफिस में काम करने वाली फ़ैशन परस्त महिला रूपा में रमने लग गया। पहले तो उसने रात देर देर से आना शुरू किया और फिर एक झटके से उसी ऑफिस में काम करने वाली‌ एक महिला रूपा से विवाह भी कर लिया।‌

   शादी के छठे साल एक दिन किशन अपने पिताजी के पास आकर बैठ गया। 

  " पिता जी मैं आज इस घर से जा रहा हूं।‌"

  " कहां ?"

  " पिताजी यदि सच बताऊं तो मैंने अपने साथ काम करने वाली रूपा से शादी कर ली है। मैं अब उसी के साथ ही रहूंगा।"

 " क्या बोल रहे हो तुम? तुम होश में तो हो ? श्याम किशोर जी गुस्से में तमतमा रहे थे।

  " हां, हां मैं होश में हूं और इससे भी बोलो की यह डिवोर्स पेपर साइन कर दे और अपने घर चली जाए। " किशन ने बीना की ओर इशारा करते हुए कहा।

 "अब डिवोर्स पेपर साइन करने की जरूरत ही क्या है जब आपने शादी कर ही ली है।" बीना ने बिल्कुल शांत भाव से कहा किन्तु उसके आंखों के आंसू उसका साथ नहीं दे रहे थे वे बरबस ही छलक-छलक पड़ रहे थे पर‌ वो उसे छलकने नहीं दे रही थी।

" बेटा इस बुढ़ापे में हम लोगों को छोड़कर जा रहे हो , पत्नी का नहीं तो मां बाप का ही ख्याल कर लिया होता।"

  " पेंशन तो मिल ही रही है , तुम दोनों एक नौकर रख लेना । मेरा अपना भी जीवन है, मैं उसको तुम लोगों के लिए भस्म नहीं कर सकता हूं।" किशन ने बड़े ही ढिठाई से जवाब दिया।

 " ठीक है तो भाग जा इस घर से दुबारा अब कभी अपना मुंह भी मत दिखलाना।" यह कहते -कहते श्याम किशोर जी सोफे पर धम्म से बैठ गये। बीना दौड़कर पानी ले आयी , "पिताजी साहस रखिए, लीजिए पहले थोड़ा सा पानी पी लीजिए। मैं ‌हूं न आप लोगों के साथ ‌।मैं कभी भी आप लोगों का साथ नहीं छोड़ूंगी।"

 श्याम किशोर जी ने उसी समय किशन का सारा सामान उठवा कर बाहर फेंक दिया। यही नहीं कुछ समय बाद अपने उस घर को बेचकर नये मोहल्ले में मकान खरीद लिया। श्याम किशोर और उनकी पत्नी रानी दोनों ही प्रायः बीमार रहा करते थे। उनको अब केवल बीना की ही चिंता थी।

  " बेटा तुम खुद नौकरी करती हो? तुम अगर चाहो तो दूसरा विवाह कर सकती हो।" रानी ने अपनी बहू को समझाते हुए कहा।

 "नहीं मम्मी जी, दूसरा सही ही होगा , इसकी भी क्या कोई गारंटी है ? फिर मेरे आगे मुख्य जिम्मेदारी आप लोगों की है , फिर इन बच्चों की है।‌ इससे ऊपर कुछ भी नहीं है।" बीना ने कहा।

   इस घटना के बाद बीना के माता-पिता व भाई भी उसे लेने आये लेकिन उसने उनके साथ जाने से साफ- साफ मना कर दिया। 

 " मां तुम्हारे साथ तो भाई है किन्तु मम्मी-पापा के साथ तो कोई भी नहीं है। मैं इन लोगों को इस तरह अकेला नहीं छोड़ सकती।"

 "देख लो समझाना मेरा काम है और उसे करना या न करना तुम्हारा।" बीना की मां शान्ति देवी ने कहा।

  "मैंने बहुत ही सोच-समझकर यह कदम उठाया है मां। अब मैं इससे पीछे नहीं हट सकती। आप  सोनू और मोनू को ले जाइए। इनको अपने पास रखकर पढ़ा दीजिए। इनका खर्च मैं भेज दिया करूंगी।" बीना ने कहा।

  "मुझे किसी भी ख़र्च की जरूरत नहीं है। मैं सोनू मोनू को ले जा रही हूं, तुम इन दोनों का ठीक से ख्याल रखना। जब जरूरत हो हमें तुरंत फोन करना।" बीना की मां अपनी बेटी के इस त्यागमयी रूप को देखकर बहुत गर्वानुभूति कर रही थी।

   बीना ने इस बीच कभी भी अपने सास -ससुर का साथ नहीं छोड़ा। उनके इलाज का पूरा पूरा ख्याल रखा। उसने अपनी बेटियों को तो अपने माता-पिता के पास पढ़ने के लिए भेज ही दिया था और खुद अपने सास -ससुर की सेवा में लगी रहती थी।

 घर के बाहर भीड़ लगी थी किशन अपने पिता से अपना हिस्सा मांगने आया था।

  नये जगह पर वहां उन लोगों को कुछ समय रहते हुआ ही था कि श्याम किशोर जी का बेटा किशन उन लोगों को ढूंढ़ता हुआ , ढीठ की तरह अपने पिता जी से अपना हिस्सा मांगने पहुंच गया। अब जाकर वहां के लोगों को यह पता चला कि श्याम किशोर जी के एक बेटा भी है।

"किस बात कि हिस्सा ,जब आपसे हमारा कोई रिश्ता ही नहीं है फिर हिस्सा किसको और क्यों?" श्याम किशोर ने गुस्से में कहा।

 "आप घर में चलिए, वहीं बात करते हैं।‌" किशन बाहरी लोगों के सामने अपनी बेइज्जती महसूस कर रहा था।

 '' मैं किसी अजनबी को अपने घर में नहीं ले जाता, आपको जो भी बात कहनी है वह आप यहीं बाहर ही‌ कहिए।"

  "पापा जी आप कैसी बातें कर रहे हैं, मैं गैर थोड़े नहीं हूं । मैं तो आपका बेटा किशन हूं। " किशन हड़बड़ा गया और मानों लोगों को सुनाकर अपना परिचय देने लगा।

  ‌"मेरे कोई भी बेटा नहीं है, हां पांच साल पहले एक बेटा हुआ करता था। जो कहीं खो गया है। मैं आपको तो जानता भी नहीं हूं।" 

 "ठीक है फिर मैं आपको मैं कोर्ट में घसीटूंगा।"

  " तुम , तुम तो मेरा कुछ भी नहीं कर सकते हो, जो मेरी जायदाद है, मेरे ख़ून पसीने की कमाई है , उसे मैं जिसे चाहे उसे दूं या न दूं यह मेरी मर्जी है। तुमको जहां भी जाना है जा सकते हो , हाईकोर्ट ,सुप्रीम कोर्ट कहीं भी। " श्याम किशोर जी ने कहा।

    किशन गुस्से से बड़बड़ाता हुआ, पैर पटकता हुआ वहां से चला गया। आज उसे अपनी गल्तियों का आभास हुआ कि नहीं पता नहीं, मगर उसे इतना तो पता चल ही गया कि मात्र पुत्र होने के नाते वह अपने पिता की सम्पत्ति का अधिकारी नहीं हो सकता है। पुत्र को अपने कर्तव्यों का भी निर्वहन करना पड़ता है।

   बालकनी से यह सब कुछ नजारा देख रही सास -बहू एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा पड़ीं।

 ‌‌  " मां जी मैं चाय बनाकर लाती हूं।" कहती हुई बीना विजय भाव से रसोई की ओर बढ़ गई।आज वह स्वयं को अपने सास -ससुर की बेटी ही महसूस कर रही थी।



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