दान
दान
" माँ बहुत भूख लगी है।" बच्चे भूख से परेशान थे वे माँ से भोजन की याचना कर रहे थे।
" बेटा थोड़ा सा और इंतजार कर लो, फिर होटल पहुँचकर ठीक से खाना खाया जायेगा।"
रास्ते में अगल बगल होटल भी नजर आ रहे
थे किन्तु रास्ते में गाड़ी रोकना संभव नहीं था क्योंकि पहाड़ी रास्ता था और अंधेरा होने से पहले वे अपने गंतव्य तक पहुँच जाना चाहते थे। रास्ते में जहाँ भी होटल या ढाबा नजर आता वे मन मसोसकर रह जाते। चाहकर भी वे रुक नहीं सकते थे उन्हें पहले मन्दिर फिर अपने होटल जाना था।
मन्दिर की आरती पाने के मोह में उनको रात के ग्यारह बज गये। फिर यह तय हुआ की पहले दर्शन कर लिया जाये फिर कोई होटल तलाशते हैं। खाना खाकर फिर अपने होटल जायेंगे। आरती और पूजा होते रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे। बच्चों का क्या बड़ों का भी ध्यान भगवान से ज्यादा अब खाने पर था। जल्दी जल्दी पूजा आरती करके वे लोग होटल की तलाश में निकल पड़े।
सामने ढाबा देखकर उनकी आँखों में चमक आ गयी। वे जल्दी जल्दी वहाँ पहुँचे पर यह क्या यहाँ तो भट्टी बुझायी जा रही थी ,खाना खत्म हो चुका था। बच्चों की भूख अब और भी बढ़ गयी थी वे रो रहे थे। इसी तरह वह लोग तीन चार ढाबे पर गये पर कहीं भी उनको खाना नहीं मिला।
आखिर एक ढाबे पर उन्होंने फिर कोशिश की कि शायद यहाँ कुछ मिल जाये।
बाबू साहब अब तो भट्ठी बुझायी जा चुकी है नहीं तो कुछ बनवा भी देते पर एक काम कर सकता हूँ। बच्चों को देखकर उसकी आँखों में दया की भावना तैरने लगी थी।
"क्या कर सकते हो, बताओ जल्दी।" हरीप्रसाद जी व्याकुल हो रहे थे।
"बाबू जी मैंने और मेरे तीन कर्मचारियों ने अभी भोजन नहीं किया है, वह भोजन मैं बच्चों को दे सकता हूँ।" ढाबे का मालिक बोला।
हाँ, हाँ दे दो, पर आप लोग ?
"अरे कोई बात नहीं, हम लोग समझ लेंगे की आज एक समय का व्रत रखा है।" ढाबे का मालिक बोला और साथ में उसके तीनों कर्मचारी सहमति में सिर हिला रहे थे। उनकी सहमति में किसी भी प्रकार का अफसोस या दबाव नहीं था।
भाई साहब आप लोगों के इस उपकार के हम लोग आजीवन ऋणी रहेंगे। हरीप्रसाद ने भोजन लेकर पहले बच्चों को खिलाया फिर बचे हुए खाने को ड्राइवर तथा अपनी पत्नी के साथ स्वयं खाया। रात में वे लोग वहीं ठहरे, सुबह जाते समय हरीप्रसाद ने ढाबे के मालिक को उस खाने की कीमत लेने की पेशकश की।
भाई साहब आपके खाने की कीमत तो नहीं अदा कर सकता किन्तु फिर भी कुछ देना चाहता हूँ। उम्मीद है आप मना नहीं करेंगे।
भाई साहब आप यहाँ ठहरे मैं उसकी कीमत तो मैं ले सकता हूँ ,पर खाने की कीमत बिलकुल भी नहीं ले सकता क्योंकि वह तो बच्चों को दिया गया 'अन्नदान '
है, जिसकी कोई कीमत नहीं होती।
हरीप्रसाद की आँखों में आँसू छलक आये थे। वास्तव में जिस समय लोग दूसरों के आगे की थाली भी खींच लेते हो, अपने आगे की थाली परोसने वाले तो बिरले ही होते है।