प्रेम
प्रेम
बाहर तेज बारिश हो रही थी और रह रह के बादल गरज रहे थे । कौशल जी अपने काम जल्दी जल्दी निबटा रहे थे । झाड़ू पोंछा लगाने के बाद बर्तन धोया इसके बाद वे खाना बना रहे थे। उनके चेहरे पर शिकन की एक मामूली सी रेखा भी नहीं थी।
"क्या खाने का मन है रीना ? आज क्या बनाऊँ ?" कौशल जी का रोज का ही यह प्रश्न होता और रीना रोज ही कहती - "जो शुभम को पसन्द हो, वही बनाइये ।"
शुभम हँस देता ,"अरे मम्मी मुझे भी आपकी ही पसन्द का खाना पसन्द है ।"
और फिर तीनों ही खिलखिलाकर हँस पड़ते ।
रीना को अपनी भारी लगती जिन्दगी थोड़ी सी हल्की लगने लगती। तीन साल से वह लगातार बीमार चल रही थी अपना कोई भी काम स्वयं नहीं कर सकती थी। उसे सहारा देकर चलाया जाता था।
कौशल जी शुभम को तैयार करके, बैग तैयार करके, लंचबॉक्स तथा पानी का बोतल देकर सड़क तक जाकर बस में बिठाकर वापस घर आते । रीना को ब्रश आदि कराकर नाश्ता देते और स्वयं भी उसी के साथ नाश्ता कर लेते फिर रीना को दवा खिलाने के बाद कपड़े धोने बैठ जाते । कपड़े धोकर फैलाकर, रीना के लिए बेड से लगाकर रखे टेबल पर दोपहर के लिए खाना व पानी रखते फिर अपने ऑफिस चले जाते । शाम को लौटकर फिर घर के काम में लग जाते ।
रीना बिस्तर पर बैठी अपलक अपने पति कौशल को निहार रही थी, उसे कभी लगता था की वह शायद बोझ बनती जा रही है ,पर पति की मुस्कुराती हुई आँखें उसे एक सुकून प्रदान करती थी। शायद यही असली प्रेम होता है ।