वे दिन
वे दिन
कभी कभी किसी के कार्य ऐसे होते है जो जीवनपर्यंत नहीं भूलते। बात उन दिनों की है जब मेरी नौकरी लगी ही थी। इधर मेरी नौकरी लगी थी और दूसरी तरफ डॉक्टर ने मुझे स्ट्रिक्ट बेड रेस्ट की सलाह दी थी।अब क्या करूँ क्या ना करूँ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। ज्वाइनिंग के समय शहर का बाहरी क्षेत्र चुनने के पीछे भी यही उद्देश्य था की वहाँ ज्यादा भागदौड़ नहीं करनी पड़ेगी।
ईश्वर की कृपा से विद्यालय की दीवार से ही लगे मकान में नीचे का कमरा भी मिल गया। अब समस्या थी की डॉक्टर के अनुसार ज्यादा देर नहीं बैठ सकते थे। विद्यालय में एक अजीब सा भय दिमाग पर हावी था।
विद्यालय में एक दो हफ़्ते बाद ही एक महिला अध्यापिका को मैंने अपनी व्यथा सुनाई तो उन्होंने भी बिल्कुल सगी बड़ी बहन की तरह से मेरा सहयोग किया। उन्होंने मेरी समस्या से प्रधानाचार्या जी को बड़ी संजीदगी से अवगत कराया। अपनी बात किसी बाहरी व्यक्ति से विशेष रूप से बड़े लोगों से कहने में मैं हमेशा ही पीछे रही हूँ। अगर वे प्रधानाचार्या जी से मेरी बात ना कहतीं तो शायद मैं कह भी नहीं पाती।
उनकी बात सुनकर प्रधानाचार्या जी ने हर प्रकार से मेरी मदद की। कभी ज्यादा बैठने का कार्य नहीं दिया ,और हमेशा ही समय पड़ने पर अवकाश भी दिया। नयी नयी नौकरी में उनकी यह मदद मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं थी। उनकी मदद मेरे जीवन को खुशहाल बना गयी। मुझे मेरी सन्तान मिल सकी इसके पीछे माँ सदृश उन प्रधानाचार्या जी का भी हाथ था।
इस दुनिया में हर प्रकार के लोग हैं अच्छे भी और बुरे भी। अच्छे लोगों की संख्या मेरी समझ से अभी भी ज्यादा ही है। मैं हमेशा उन दोनों को याद करती हूँ और तहे दिल से हमेशा नमन करती हूँ।