चाय
चाय
हमलोग चार परिवार मिलकर दार्जिलिंग घूमने गये हुए थे । दार्जिलिंग की पहाड़ियों को जब पहली बार देखा तो ऐसा लगा की इस पर भला लोग कैसे रहते होंगे ?पर यह क्या जैसे जैसे जीप आगे बढ़ती रास्ते नजर आने लगते । रास्ते में छोटी छोटी दुकानें भी होतीं जो लकड़ी की बल्लियों के सहारे टिकाकर बनायी गयीं थीं। उनमें चाय पीकर हम फिर आगे चल देते ।
दुकानों पर कोई ताला नहीं लगा होता था पूछने पर पता चला की वहाँ कभी चोरी नहीं होती ,हाँ कभी कभी बाहरी लोग जरूर कुछ सामान उठा लेते हैं पर ऐसा बहुत ही कम होता है । वे लोग दुकान का कूड़ा भी दुकान के सामने रखे कूड़ेदान में ही डालते थे । कौतूहल वश मेरी सहेली ने एक महिला से पूछ ही लिया---
"आप तो अपना कूड़ा दुकान के पीछे गहरे खाई में फेंक सकती हैं ,वहाँ कौन देखेगा ।"
"मैम जी बस कहने का है, पकड़े जाने पर दो हजार का जुर्माना है । वह कौन भरेगा ?"
हमें अब बात समझ आ गयी थी की आखिर वे लोग कूड़ेदान में ही कूड़ा क्यों फेंकते है ।
फिर होटल भी आ गया जहाँ हमें ठहरना था । सभी बहुत खुश थे तथा नयी जगह, नये परिवेश तथा नये लोगों के बीच हम एक नवीन मानसिक बोध से लिप्त हो रहे थे। नयी जगह में नये नये लोगों के बीच बहुत ही सुन्दर अनुभव जुड़ रहे थे । उन लोगों के बीच कई बार स्वयं में ही बहुत सी कमियाँ नजर आतीं तो उन लोगों में
एक आदर्श तथा ग्रहण करने लायक बहुत सी चीजें दृष्टिगत होतीं थीं ।
एक दिन हम लोग घूमकर होटल आये तो उसदिन मेरे सिर में बहुत ही तेज दर्द हो रहा था ।दर्द की दवा लेने के बाद भी दर्द बना हुआ था । खाना खाने के समय हम लोग नीचे के हॉल में आये । सभी ने खाना खाया पर सिरदर्द के कारण मुझसे कुछ भी नहीं खाया गया । मैने
अपने साथ बैठी सहेली से कहा , "चाय मिल जाती तो कुछ आराम मिल जाता ।"
" चाय! यह कोई चाय का समय है जो चाय मिलेगी, वह भी इतनी रात को।" वह हँसते हुए बोली ।
तभी खाना परोस रहे एक वेटर ने पूछा, "क्या बात है मैम ?"
"अरे कुछ नहीं, क्या चाय की व्यवस्था हो सकती है ?"
" नहीं मैम अब इस समय चाय कहाँ ? सामान भी नहीं है ,क्या हुआ ? वह परेशान सा हो उठा।
"अरे इनके सिर में दर्द है इसलिए, कोई बात नहीं।"
"नहीं मैम मैं कुछ तो करेगा, आप अपने रुम में पहुँचो मैं कुछ तो व्यवस्था करता।" दूसरे वेटर ने जवाब दिया ।
हम लोग सभी अपने अपने कमरों में चले गये । मेरी सहेली और उनके पतिदेव हमारे ही कमरे में बैठ गये। हम लोग आपस में यही बात कर रहे थे की देखो इन लोगों में कितनी इंसानियत है, नहीं तो उसे क्या पड़ी थी चाय बनाने की ।
तभी दूसरे सर बोल पड़े ,अरे ऐसे ही कोई चाय वाय न लाने का, देख लेना । वह भी इतनी रात गये दिन होता तो कोई बात भी थी ।
अभी हमलोगों में यही सब बातें हो ही रही थीं की दरवाजे पर ठक ठक की आवाज़ हुई । दरवाजा खोलने पर वही वेटर सामने खड़ा था । उसके हाथ में केतली और गिलास था ।
"मैडम देरी तो नहीं हुई मैं कहीं और से चाय बनवा कर ला रहा हूँ । केतली और गिलास मुझे ही दीजिएगा, किसी और की है।
मैं अवाक उसका चेहरा देख रही थी ,आखिर यह मेरा लगता ही कौन है ? पर मेरे लिए चाय बनवाने के लिए उसने कितनी परेशानियों का सामना किया ।
इसका कितना पैसा हुआ ? कहने का साहस मुझमें नहीं था।