डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"

Inspirational

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डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"

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एक थी मीता

एक थी मीता

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अरे जानती हो, मीता को, वही जो तुम्हारे साथ पढ़ती थी।

हाँ, हाँ क्या हुआ ?

उसके साथ बहुत बुरा हुआ।

क्या ?

वह पागल सी हो गयी है। मायके में ही रहती है।

मेरी एक पुरानी सहेली उसके बारे में बतानेलगी तो बहुत सारी बीती बातें चित्रपटल सी आँखों के सामने घूम गयी।

मीता गांगुली, हमारे विद्यालय की सबसे खूबसूरत लड़की थी।सभी लडकियाँ उससे ईर्ष्या करती थीं। मीता जितनी सुन्दर थी उतनी ही पढ़ाई में भी तेज थी।पढ़ाई के साथ ही साथ खेल कूद में भी सबसे आगे थी। विद्यालय से लेकर दुर्गा पूजा के पंडाल तक उसके नृत्य और गायन की धूम थी। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता

है कि वह सही मायने में सर्वगुण सम्पन्न लड़की थी। यही नहीं उसकी आवाज मे अजीब सी कशिश थी। लोग उसे

मंत्र मुग्ध होकर उसे सुना करते थे। भरतनाट्यम नृत्य करते हुए उसे देखकर लगता था जैसे स्वर्ग की कोई परी आसमान से उतरकर नृत्य कर रही हो।

उसका नाम लेते ही उसकी छवि आँखों के आगे ज्यों की त्यों आ जाती है। उसका हमेशा ही मुस्कुराता

हुआ चेहरा याद आ जाता है।उसकी मुस्कान पर तो सभी शिक्षिकाएँ आकर्षित सी हो जाती थीं। उसे हमेशा ही कक्षा में प्रथम स्थान मिला करता था। हम लोग हमेशा यही सोचते थे कि इसका भविष्य तो बहुत ही उज्जवल है। हर क्षेत्र में यह अव्वल जो है।

लेकिन सब कुछ शायद विधाता केअधीन ही है।हम मात्र कठपुतली मात्र है। सफल होने पर हम अपनी पीठ थपथपा लेते हैं और असफल होनेपर विधाता को उसका उत्तरदायी बना देते हैं। हम समझ ही नहीं पाते की मुख्य कर्ता धर्ता आखिर में है कौन? कई बार सारी परिस्थितियों के अनुकूल होते हुए भी एक झटके से कुछ ऐसा हो जाता है कि हमारे हाथ से हमारी मंजिल छूट जाती है और हम कुछ भी करने में असमर्थ होते है तब लगता है कि कुछ तो है। साथ ही एक बात और की

हमें अपने लक्ष्य से कभी भटकना नहीं चाहिए। एक साथ दो नाव पर पैर रखकर नदी पार नहीं की जा सकती है।

बारहवीं की पढा़ई करते समय तक तो मीता बहुत ही सही थी, सब कुछ ठीक -ठाक चल रहा था लेकिन बारहवीं के बाद उसके कदम लड़खड़ाने लगे थे। उसको पता नहीं क्यों शिक्षा के बजाय किसी का और का आकर्षण आकर्षित कर लेता है।इतना सब कुछ होते हुए भी दुर्भाग्यवश वह पास में रहने वाले एक लड़के के चक्कर में फँस गई। वह पढ़ाई छोड़कर उससे विवाह के

लिए माँ व पिता पर दबाव बनाने लगी। कुछ समय तक तो माँ, पिता सभी रिश्तेदारों ने उसे समझाया। लड़का गरीब व बेरोजगार था, मीता भी कुछ नहीं करती थी और गृहस्थी की गाड़ी बातों से नहीं चला करती। लेकिन मीता नहीं मानी, हारकर उसके माँ-बाप ने उसकी शादी उसी लड़के से करा दी।

कुछ समय तक तो सब ठीक ठाक चला। परन्तु आकर्षण का जादू खत्म होते ही और यथार्थ के धरातल पर पैर रखते ही वास्तविकता समझ में आ गयी। अब महत्वाकांक्षा सिर उठाने लगी थी। आये दिन दोनों के बीच लड़ाई होने लगी। मीता दूसरी लडकियों से बराबरी करना चाहती लेकिन कर नहीं पाती तो झल्लाने लगी थी।कुछ समय तक तो मीता के माँ -बाप ने मदद किया लेकिन वे भी कितना मदद करते। आखिरकार मीता गहरे डिप्रेशन मे आ गई। वह लगभग पागल सी हो गई उसकीअपनी आकांक्षाएँ बहुत ऊँची थी और समाधान कुछ भी नहीं था। उसका इलाज कराने उसके पति व घरवाले दूसरे शहर ले जाते हैं। दूसरे शहर ले जाते वक्त रास्ते में उसके पति ट्रेन के पावदान पर खड़े होते है उसी वक्त एक खम्भे से टकराने के कारण खत्म हो जाते हैं। अब सभी को वापस लौटना पड़ता है,वह भी इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद पूरी तरह टूट कर। अब मीता के ससुराल वाले अपने बेटे के मृत्यु का कारण मीता को ही मानने लगते हैं। वे उससे अपना नाता तोड़ लेते हैं। आसपास के

लोग भी उसी को दोषी बनाते हैं।

अब मीता और भी डिप्रेशन में चली जाती है। पति के ना होने के कारण उसकी माँ उसे अपने घर लाती है। अब उसकी जिन्दगी मे रिक्तता छोड़कर कुछ भी नहीं बचा था। एक अच्छी खासी जिन्दगी जो चरम ऊँचाइयों को छू सकती थी, कहाँ से कहाँ पहुँच गयी?कल तक जो उसके जैसा बनने का ख्वाब देखा करती थी, अब उससे बात करने में भी शर्म महसूस किया करती हैं। कहा जाता है कि बने दिन पर सब साथ देते हैं बिगड़े दिन पर कोई नहीं।मीता को उसकेअपने ससुराल में भी स्थान नहीं मिला अतः उसे माँ व पिता ने अपने पास रख लिया।उसका इलाज भी कराया। पर माँ व पिता के बाद वह क्या करेगी ?अगर भाई -भाभी ने साथ न दिया तो।एक प्रश्न मुँह -खोल खड़ा ही हो जाता है। 

मीता को ईश्वर ने सब कुछ दे रखा था, पर उसने अपनी पढ़ाई क्यों नहीं पूरीकीएक अजीब -सा प्रश्न बनकर रह गया। कोईभी उसकी मानसिकता को नहीं समझ पाया। रहा प्रेम तो वह पढ़ाई के साथ-साथ प्रेम भी कर सकती थी और पढा़ई पूरी होने के बाद विवाह कर लेती। यदि विवाह कर भी लिया तो पढ़ाई नहीं छोड़नी चाहिए थी। दोनों छोटी नौकरी करके भी अपना निर्वाह कर सकते थे। पर फिर वही कहना पड़ जाता है कि जिन्होंने अपने आप पर नियन्त्रण नहीं किया, जिन्दगी पर से भी उनका नियन्त्रण छूट ही जाता है। और हमेशा उड़ान अपने पंखों से होती है गैरों के पंखों से नहीं।


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