'कुछ' बात तो थी
'कुछ' बात तो थी
आज मिलने पर उसने कहा,"आज आप को दूर से देखकर लगा की अरे,यह तो अपनी संगीता लग रही है।पास आकर देखा तो कन्फर्म भी हो गया है।"
यह मात्र एक वाक्य नहीं था।इसमें 'कुछ' बात थी बल्कि सच कहूँ तो मुझे यह कोई संदेश लगा था। कहीं न कहीं मै उसकी गिनती में तो थी।इतने दिनों से हमारी बातचीत थी, लेकिन वही,'आप और तुम' वाली एकदम फॉर्मल बातचीत!
आज पहली बार उसने मुझे मेरे नाम से सम्बोधित किया था! यह मेरे लिए अचरज की बात थी।और इसी अचरज में एकदम मेरी निगाहों का उसकी निगाहों से सामना हुआ।कभी नज़रों ही नज़रों में बात होने का सुना था...लेकिन आज महसूस भी हुआ....यह अहसास बिलकुल जुदा था..... इतने दिनों का वह फॉर्मल रिश्ता जैसे पिघलने को होने लगा....ठीक वैसे ही जैसे हल्की धुप पड़ने पर बर्फ पिघलने लगती है! क्योंकि हम एकदूसरें की फीलिंग से अनजान थे! हम दोनों ही चौंक से गये.....क्या यह प्यार है? इस रिश्तें को प्यार में बाँधना क्या जायज़ होगा?
शायद नहीं.....इस रिश्तें की पवित्रता को हमे महफूज़ रखना होगा।
शायद हाँ .....प्यार क्या कम पवित्र होता है?
बिल्कुल नही!शायद प्यार के साथ हम कुछ और ढूँढने लगते है
वही सब कुछ.........
हक़ .........
जिम्मेदारी.........
केयर .........
कंसर्न .........
इन सबमें शायद प्यार कुम्हलाने लगता है!
इधर उधर हो जाता है!!
या फिर कहीं खो जाता है!!!
फिर क्या कहें ऐसे प्यार को और ऐसे रिश्तें को ?
शायद वह प्यार नहीं है .........
एक बिखराव वाला सम्बन्ध है.....
या कुछ और है जो जायज़ नहीं है!