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Saroj Verma

Tragedy

3  

Saroj Verma

Tragedy

कस्तूरी...!!

कस्तूरी...!!

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बात उस समय की है, जब मैं छे -सात साल का रहा हूंगा, अब मेरी उम्र करीब चालीस साल है, वो उस समय का माहौल था, जब लोगों को शहर की हवा नहीं लगी थी, जब लोग कहीं से अगर दूर की रिश्तेदारी निकल आए तो बहुत मान -सम्मान के साथ अपने घर में रात गुजारने देते थे, सब अपना ही अपना था पराया कुछ भी नही,अ गर गांव में किसी पड़ोसी के यहां चले जाओ तो लोग तुरंत चूल्हा जलवा कर ताजा खाना बनवाते थे।

मुझे याद है बचपन में जब किसी के घर शाम को जल्दी चूल्हा जल जाता था, तो हम लोग पास-पड़ोस से ही कण्डो-उपलों में आग मांग लाते थे कि अगर घर में माचिस ना हो, और लोग खुशी-खुशी ये सब करते थे ताकि प्यार बना रहे।

तब शादियां तीन-तीन दिन की होती थीं, बारातियों की तीन-तीन दिन तक खातिरदारी होती थीं ,बैलगाड़ियों और ट्रैक्टर से बारात जाती थीं, ऐसी ही एक बारात में बचपन में गया था और वो थी राघव काका की बारात, बारात क्या कहेंगे, शादी तो उनकी पहले हो गई थी और गौना (विदाई) तीन साल बाद तो मैं उनके गौने में आया था, वही मेरी पहली मुलाकात हुई थी उनसे, जिनकी कहानी मैं आप सब से कहने वाला हूं।

गौना करवाने आए थे तो, बारातियों के नाम पर हम दस-बारह लोग थे, बारात जहां ठहराई गई थी, वो खेत था, जहां आठ-दस पेड़ आम के और कुछ कटहल के पेड़, कुछ चिल्ला के पेड़ थे, नहाने के लिए कुआं था और साथ में ट्यूब बेल लगी हुई, कुंए की पास वाली जगह जहां नमी थी वहां खीरा और करेले की न कुछ बेले लगी थी , कुछ दो -चार भिण्डी के पौधे थे, कुछ हरी मिर्च भी लगी थीं,बस बाकी खेत सूखा पड़ा था क्योंकि अप्रैल का महीना था, खेतों की कटाई हो चुकी थी और उस साल गजब की गर्मी थी, हमारे पीने के लिए पांच-छै मटके पानी भरकर रखें जाते और हम दिन भर में पी जाते, और दिन भर आम के पेड़ों की हवा में चारपाई में पड़े रहते।

गर्मियों की छुट्टियां और ये बारात , मुझे तो जैसे दोहरा खजाना मिल गया था, मैं तो खुश था लेकिन पूडियां खाकर मेरा मन भर गया था,हम घर से भी पकवान खाकर आए थे और रास्ते में भी पकवान, यहां भी पकवान, एक दिन तो मैंने बिता लिया, पकवानों के साथ, लेकिन अब मुझे दाल-चावल और मां के बनाये खाने की याद आने लगी।

तभी मैंने पिता जी से कहा ,कि कुछ कच्चे आम तोड़ दे, आम तो टूट गये, लेकिन चटनी कहां से बने, तभी किसी ने कहा अपनी नई काकी से काहे नहीं बनवा लाते, बस ,अब मैं चल पड़ा, उनके घर की तरफ कच्चे आमों को लेकर, घर ज्यादा दूर नहीं था, दो -चार गलियां पार करते ही, मैं घर में घुस गया और जोर-जोर से नई काकी-नई काकी आवाज देने लगा, तभी काकी की भाभी और बोली___

तुम की के लल्ला हो?

हम बारात में आए हैं मैं बोला

और हल्ला काय मचा रऐ?

हम तो अपनी नई काकी को ढूंढ रहे हैं, कहां है, मैंने पूछा

काहे, तुम्हारी गाड़ी छूटीं जा रई का, भाभी बोली

नहीं, चटनी बनवानी है, मैं बोला

अच्छा, अभे गौना भओ, नइया और तुम काम करवाने आए गये, भाभी को मुझसे बातें करने में मजा आ रहा था, लेकिन वो बोली लल्ला हमाये पास इत्तो टेम ना है, बहुत काम पड़े हैं।

और नई काकी के पास ले गई, मैंने काकी की तरफ देखा तो उनकी बड़ी-बड़ी काजल लगी आंखों को देखकर मेरे मुंह से निकल गया कि ___

तुमाई आंखें तो गाय जैसी है, तो वो खिलखिला कर हँस पड़ी।

उन्होंने मुझे ठीक से नहलाया, मेरे कपड़े धो दिए और अपने भतीजे के कपड़े दे दिए, मेरे लिए चूल्हे पे दाल-चावल बनाया और आम की चटनी पीस कर, खाना परोसा, मैंने पेट भर कर खाना खाया, मैं अब दिन भर उनके ही पास रहता।

और उन दो दिनों में मुझे उनसे और उन्हें मुझसे मां-बेटे का लगाव हो गया।

मेरी उनकी यही पहली मुलाकात थी।

मेरी मकर संक्रांति की छुट्टियां हो गई थीं, तो पिताजी ने मां से कहा कि चलो गांव होकर आते हैं, मां और मैं भी यही चाहते थे तो दूसरे दिन हम गांव आ गये, पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई, और मैं तो समान रखकर तुरन्त काकी के घर भागा,

देखा तो काकी खाना बना रही थी, चूल्हे की हल्की रोशनी और लालटेन की लौ में उनका चेहरा बुझा-बुझा सा लग रहा था, उन्हें ऐसे देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा और ताई जी की दोनों बेटियों का उनके बगल में बैठ कर खाना, खाना पता नहीं, मैं कुछ समझ नहीं पाया, बस उलझन में था।

अरे, लल्ला कब आए? काकी ने पूछा

थोड़ी देर पहले, मैंने कहा

चलो खाना खा लो, तुमाय पसंद की कढ़ी बनाई है, चलो आसन बिछाकर बैठ जाओ, काकी बोली।

लेकिन मुझे सब बदला -बदला सा लग रहा था, उस माहौल में मेरा मन घबरा रहा था, तो मैंने कहा काकी अभी मैं जाता हूं, कल आऊंगा , हाथ-पैर भी नहीं धुले और यहां चला आया, मां राह देख रही होगी, और मैं घर आ गया।

घर आया तो मां और मेरी खुद की सगी काकी रसोई के कामों में लगी हुई थी, काकी गर्म-गर्म रोटी सेंक रही थीं, चूल्हे पर, और मां थालियां परोसने का काम कर रही थीं,

फिर मां बोली, मिल आया, कस्तूरी काकी से, चल अब खाना खाने बैठ जा, हां यही नाम था उनका कस्तूरी।

फिर मैं वहीं मां और चाची के पास बैठ गया खाना खाने और काकी ने मां से कहा, जीजी बहुत बुरा हुआ बेचारी कस्तूरी के साथ, काम-काज में इतनी चतुर, और देखने में इतनी खूबसूरत, भाग्य फूट गये बेचारी के जो ऐसे आदमी के पल्ले बंध गई,

का हुआ, बेचारी के साथ, मां ने पूछा।

का होना है, ऐसी पत्नि को देवर जी छोड़ कर चले गए,

आप गांव आई नहीं, सात-आठ महीने से तो आपको कुछ पता नहीं, वो देवर जी जब शहर में पढ़ते थे तो उनके साथ में पढ़ने वाली किसी लड़की को पसंद करते थे, लेकिन बड़े ताऊ जी ने ज़बरदस्ती देवर जी की शादी कस्तूरी से करवा दी अब उनकी नौकरी लग गई तो उन्होंने उसी लड़की से शादी कर ली और उसी के मायके में रहने लगे हैं क्योंकि वो अपने मां-बाप की इकलौती संतान थी।

और इधर कस्तूरी रोज अंदर ही अंदर घुटी जा रही हैं, रात-रात भर आंसू बहाकर, उसकी ना जाने क्या हालत हो गई है, पता नहीं कौन सा वनवास काट रही है।

तीन महीने पहले बेचारी की जिठानी तीसरे बच्चे को जन्म देते समय नहीं रही अब तीनों बच्चों को वहीं सम्भाल रही है, सास तो पहले ही ना थी, उसी से सुख-दुख की बातें कर लेती थी, अब वो भी ना रही।

मैं ये सब बड़े ध्यान से सुन रहा था, तभी काकी का चेहरा उतरा हुआ था और मैं उनका दिल दुखा कर चला आया, शायद मुझे बुरा लग गया था कि उनकी जेठानी की बेटियां उनके पास बैठ कर खाना खा रही थीं।

हमें गांव में दो-चार दिन ही हुए थे कि दादाजी मतलब काकी के ससुर भी नहीं रहे, वो इन सब का दोषी खुद को मानते थे, उनको लगता था कि उनकी वजह से एक निर्दोष लड़की की जिंदगी बर्बाद हो गई, उन्होंने काकी से दूसरी शादी करने के लिए भी कहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया, लेकिन मरते वक्त उन्होंने अपनी जायदाद से कस्तूरी काकी के पति को बेदखल कर दिया और आधी जायदाद काकी के जेठ के नाम और आधी कस्तूरी काकी के नाम कर दी, वो मेरी सगी काकी नहीं थी, लेकिन मेरे मन में उनके लिए बहुत अपनापन था,

फिर हम गांव से वापस आ गये__

यूं तो मैं नोएडा में रहता हूं, और मेरा ऑफिस दिल्ली स्थित मयूर बिहार में है, रोज का वहीं तनाव भरा जीवन, ऐसा लगता है समाज से सारी शुद्ध चीजों का नाश हो गया है, चारों तरफ बनावटी पन, वो चाहे खाना हो या रिश्ते, अब तो नारी में ना वो शालीनता नजर आती है और ना नजाकत,ब स रंगी-पुती गुड़ियों जैसी, कितना अंतर आ गया है, कहां हमारी मां और काकी, बुआ, मौसी एक मार्यादित जीवन जिया करती थी और आज की नारी___

खैर, मैं अब रहता हूं, बड़े शहर में, लेकिन मैं भी उत्तर प्रदेश स्थित बुंदेलखंड के एक छोटे से कस्बे महोबा, जो पान की खेती और आल्हा ऊदल के लिए प्रसिद्ध है, वहां से पांच-छह किलोमीटर मेंरा गांव है, जहां मैं पैदा हुआ, कैसे भूल जाऊं,उस गांव और उसकी यादों को____

और उस दिन का वाक्या मैं अपने जीवन में कभी भी नहीं भूल सकता, उस समय तो नहीं लेकिन कुछ समय बाद उस घटना का मतलब समझ में आया, वो कितनी डरी हुई थी, कितना वीभत्स था वो सब उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे और वो कांप रही थीं, उसने जल्दी से अपना पल्लू ठीक किया और मुझे गले से लगा लिया, मैंने पूछा भी कि काकी क्या हुआ, तुम रो काहे रही हो, और वो मुझे लेकर मेरे घर आ रही थीं कि ताऊजी कमरे से बाहर आए।

हुआ कुछ इस तरह था, चैत का महीना चल रहा था, खेतों की कटाई के दिन थे, सब बड़े बच्चों को छोड़कर खेतों में चले जाते थे कटाई के लिए ,उस दिन काकी नहीं पहुंचीं तो ताऊ जी पूछने के लिए आये होगे ।

ताऊ जी की दोनों बेटियां, अपने भाई के साथ मेरे घर खेलने आ गई, मैं थोड़ी देर तक तो खेलता रहा, लेकिन मेरी सीटी काकी के पास रह गई थीं, तो मुझे उसकी ध्यान आ गई तो मैं काकी के घर आ गया, देखा तो सब खुला था, और अंदर वाले कमरे के दरवाजे अंदर से बंद थे, मैं जाने लगा तो मुझे कुछ आवाजें आई तो मैंने दरवाजे को जोर-जोर से पीटना शुरू कर दिया कि काकी खोलो, सीटी चाहिए-सीटी चाहिए।

तब काकी बाहर आई और उनकी ऐसी दशा थी।

उस हादसे के बाद, ताऊजी डर गये या उन्हें अपनी गलती पर पछतावा था, वो कुछ परेशान रहने लगे थे।

फिर कुछ ऐसा हुआ कि शायद कभी किसी ने नहीं सोचा होगा ,गेहूं कटकर खलिहानों में आ गया था, तो ताऊजी थ्रेसर से गेहूं काट रहे थे, उनका ध्यान ना जाने कहां था तो उनका एक हाथ कट गया, और कुछ दिनों बाद उनके हाथ में सड़न लग गई, और इन्फेक्शन की वजह से उनकी मौत हो गई, लेकिन ताऊ जी के अन्तिम समय में वो ही उनका ख्याल रखती रही।

अब काकी ने खेतों का काम भी सम्भाल लिया और बच्चों की देखभाल भी करती, चाहती तो सब छोड़ कर चली जाती, वहां था ही क्या उनका, लेकिन करती गई और कभी मायके वाले लेने आए तो मना कर दिया कि अगर किस्मत में सुख होता तो इसी घर में मिलता, और अगर होगा तो मिल जाएगा।

मैं एक पुरुष हूं, तो नारी के जीवन के बारे में मैं क्या कहूं, लेकिन जो नारी एक नए जीवन को दुनिया में लाती हैं, वो कमजोर तो कभी नहीं हो सकती, बस वो मजबूती का दिखावा नहीं करती, ताकि हम पुरुषों का मनोबल बना रहे, अपने लिए सम्मान नहीं चाहती, ताकि हम पुरुषों का स्वाभिमान बना रहे, जय\ सारी उम्र सिर्फ वो त्याग ही तो करती हैं और कभी जाहिर नहीं करती, कोई दिल दुखा दे तो कोने में जाके दो आंसू बहाकर अपना मन हल्का कर लेती है, वो कमजोर नहीं होती, बस अपनी शक्ति को वो उजागर नहीं करती।

बस, ऐसी ही थी कस्तूरी काकी____

मैं अब पच्चीस साल का हो गया था और इंजीनियरिंग पास करके रेल विभाग में नौकरी कर ली थी, इसी बीच काकी ने दोनों बेटियों को ब्याह दिया था और अपनी सारी जायदाद तीनों बच्चों में बराबर-बराबर बांट थी, और बेटे के साथ रह रही थीं, उसे पढ़ा-लिखाकर कुछ बनाना चाहती थी, वो भी आई.टी.आई. का कुछ कोर्स कर रहा था, दसवीं पास करने के बाद काकी ने उसकी सगाई पक्की कर दी थीं, तो हमें भी परिवार सहित न्यौता मिला था और हम गांव गये।

लेकिन उस दिन कुछ ऐसा हुआ जो नहीं होना चाहिए था, पता नहीं राघव काका कहां से आ गए, सब लोगों के सामने अपना हिस्सा मांगने लगे, काकी ने भी सीधे-सीधे मना कर दिया कि आप कौन हैं ? मैं आपको नहीं जानती, चले जाओ यहां से___

इतने सालों बाद आए हो वो भी हिस्सा मांगने, तुम्हें अपने किये पर कोई पछतावा नहीं है, थोड़ी तो शर्म करो, तुम अपनी गलती मानते, इन बच्चों के सिर पर हाथ रखते तो मैं शायद तुम्हें माफ भी कर देती, इतने सालों बाद शकल दिखाने आए हो, और ऐसी ओछी हरकतें कर रहे हो, कुछ नहीं मिलेगा तुम्हें यहां से, ये सब बच्चों और मेरी मेहनत का नतीजा है, कहां थे उस वक्त ,जब हम सबको तुम्हारी जरूरत थी, तुम तो इस तरह ठोकर मारकर गये हम लोगों को, बूढ़े बाप के बारे में ही सोच लिया होता___

लेकिन राघव काका कहां सुनने वाले थे, उन्होंने वहीं काकी को मारना शुरू कर दिया, सब मेहमानों के सामने, मेरे पिताजी ने बीच-बचाव करके मामले को निपटाया।

और राघव काका से पन्द्रह दिन का समय मांगकर, बात को सम्भाला, उस समय तो काका चले गए, लेकिन पन्द्रह दिनों बाद काका पूरी तैयारी के साथ आए, और उन्होंने गांव के पंचायत के आगे अपनी बात रखी।

एक घने बरगद के पेड़ के नीचे और कुंए के पास पंचायत बैठी, काका ने पहले ही पंचायत को शराब और पैसे खिलाकर फैसला अपने पक्ष में करवा लिया था, बस पंचायत को अपना फैसला सबके सामने सुनाना था, और पंचायत ने कहा कि कस्तूरी का राघव से अभी भी कानूनी तौर पर तलाक़ नहीं हुआ है और वो अब भी राघव की पत्नी है, और उसे राघव के साथ रहना होगा।

इतना सुनते ही काका ने काकी का हाथ पकड़ा और साथ में ले जाने लगे, लेकिन काकी की आंखें गुस्से से लाल थी और उन्होंने अपना हाथ छुड़ाकर कहा कि मैं भी सतयुगी सीता की तरह अपने आत्मसम्मान की रक्षा करना जानती हूं, जैसे वो राम के साथ नहीं गई थी और धरती में समा गई थी उसी तरह मैं भी कलयुगी सीता हूं और मुझे भी अपने आत्मसम्मान की परवाह है, इतना कहकर काकी कुंए की तरफ भागी और कूद गई, और जब तक उन्हें कुंए से निकाला गया, उनकी जान जा चुकी थी।



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