कलश स्थापना
कलश स्थापना
सुनो, ‘माँ जी को दीदी के घर छोड़ आओ।’
क्यों ? रितेश ने अपनी पत्नी से पूछा।
कलिका-सोच रही हूँ इस वर्ष माता रानी का कलश बैठाऊँ।
रितेश-तो !”और अच्छी बात है, ना।”माँ रहेंगी तो तुम्हें भी सहूलियत होगी और माँ को भी मन लगेगा।
कलिका-अरे ! समझ नहीं रहे हो तुम।”माँ जी के कमरे में ही माँ की स्थापना करूँगी और तो कहीं जगह नहीं है।”
बात, माँ को सुना कर कही गई थी।
माँ-बेटा, सोच रही हूँ प्रभा के घर दो चार दिन हो आऊँ।
रितेश-ठीक है माँ ! शाम को चलेंगे।
माँ-अरे ! नहीं आज तो बुधवार है,तुझे ऑफिस से आते देर हो जाती है।शनिवार को छुट्टी रहेगी तुम्हारी तब ले चलना।
कलिका-नहीं ,माँ जी ! आज हॉफ डे कर लेंगे।
डूबते सूरज की लालिमा और सागर के ऊँचे उठते लहरों को तट पर थपेड़ों संग अठखेलियाँ करते, बैग में दो चार साड़ियाँ रख बॉलकनी में बैठ निहारती माँ जी ने कलिका को बुला कर हज़ार रूपये हाथ में धर दिए। लो बहू,”माता रानी की सेवा में कोई कमी नहीं करना।”
प्रभा-अरे ! माँ बहुत अच्छा की तुम आ गई।माता रानी ने मेरी इच्छा पूरी कर दी। प्रतिमा पूजन सेपहले ही साक्षात माँ मेरे घर आ गई।
रितेश और कलिका, आँखें चुराते हुए माँ का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेकर विदा हुए।