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V. Aaradhyaa

Abstract

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V. Aaradhyaa

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क्लांत मन शिथिल तन

क्लांत मन शिथिल तन

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जीवन एक अबूझ सा सफर अनजाना है,

कहा था सच किसीने कि ये देश विराना है।


कुछ पता नहीं किस ओर कब मुझे जाना है,

कुछ पता नहीं मुझे क्या खोकर क्या पाना है।


मैं एक लक्ष्यहीन पथिक पक्षी जैसे कि बया हूँ,

खुद मुझको पता ही नहीं चलता कि मैं क्या हूँ।


ना जाने कैसी व्यग्रता सी भरी रहती है मन में,

क्या खोज रही हूँ पता नहीं खुद अपने जीवन में।


बहुधा अपने पग आप कुठार मारती रहती ,

जिस डाल बैठ जाऊं उसे ही काटती रहती।


अन्याय सदा साथ अपने ही करती आई मैं,

यह विडंबना शायद जन्मतःसाथ लेकर आई मैं।


अपने सपने खुद किसीको सौंप दिए हैं मैंने,

ऐसे कुछ खुद के प्रति अपराध किए हैं मैंने ।


मुझे ना है पाप पुण्य का पता न जोड़ घटाना,

ना आया कभी मिथ्या संबंध व्यवहार निभाना।


कुछ पता नहीं कैसे मन की ये क्लान्ति मिटेगी,

शायद मोक्ष मिलने पर ही अब शांति मिलेगी।


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