किताब
किताब
उस दिन रूपा को लाइब्रेरी के बाहर परेशान देखकर उत्पल से रहा नही गया ।
" हे रूपा क्या हुआ ?"
"बैचलर डिग्री लेने से पहले नो ड्यूज क्लियर करने आई हूं मगर यहां एक किताब की एंट्री क्लियर नहीं हो रही है पता नहीं पिछले तीन सालों में कब ये बुक ली ? मुझे तो याद ही नहीं "
" फाईन कितना है ?"
" बहुत ज्यादा "
" मुझे किताब का नाम और लेखक दोनों बताना मैं पुरानी किताबों के मार्केट में ढूंढकर देखता हूं मिल गई तो उसे जमाकर देना । मुझे थोड़ा समय देना ।नही तो फाईन भर देना "
रूपा ने कृतज्ञता से सिर हिलाया ।
उत्पल चला गया और रूपा सोच में डूब गई । उत्पल उसका बचपन का मित्र और पड़ोसी हैं । वे साथ ही खेलकर बड़े हुए हैं ।वो हमेशा उत्पल की टांग खींचने और मजाक उड़ाने में व्यस्त रही हैं उसने उसे कभी भी सीरीयली लिया ही नहीं ।
आज लाइब्रेरी के बाहर हैरान प्रशांत बैठी रूपा को अपने बचपन से लेकर जवानी के हर उस क्षण की याद आ रही थी जब उत्पल ने उसकी परेशानियों को चुटकियों में दूर किया था ।आज भी मई की चिलचिलाती गर्मी में वो लखनऊ के अमीनाबाद की किताबों वाली गली की खाक छानने बाईक से निकल गया ।
पसीने से लथपथ दो घण्टे बाद ,उत्पल हाथों में वहीं किताब थामे हाज़िर था ।किताब देखते ही रूपा के चेहरे पर मुस्कान छा गई और उत्पल के चहरे पर सुकून ।