Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Deepak Kaushik

Drama Romance Inspirational

4.3  

Deepak Kaushik

Drama Romance Inspirational

खिड़कियां

खिड़कियां

13 mins
94


विश्वरूप ने अपनी कार रोक ली। क्योंकि विश्वरूप का घर आ गया था। डैश बोर्ड में रखे रिमोट को उठा कर कार की खिड़की से बाहर निकाला और घर के विशाल दरवाजे की ओर करके रिमोट का बटन दबा दिया। दरवाजा सर-सर करता एक तरफ को खिसक गया। विश्वरूप ने कार आगे बढ़ा दी। कार के भीतर प्रवेश करते ही दरवाजा स्वयं ही बंद हो गया। कार को भवन के पोर्टिको में खड़ा करने के बाद पुन: रिमोट से भवन के मुख्य द्वार को खोला। यहां भी विश्वरूप के भवन में आते ही दरवाजा स्वयं ही बंद हो गया। इस विशाल भवन में अधिकांश चीजे स्वचालित थी और रिमोट द्वारा संचालित होती थी। इक्यावन हजार वर्ग मीटर के विशाल भूखण्ड पर बने इस चार मंजिला महलनुमा भवन में विश्वरूप अकेला ही रहता है। यहां तक कि भवन की देखरेख करने के लिये नौकरो और मालियो की जिस सेना को विश्वरूप ने नियुक्त कर रखा था वे भी सुबह शाम केवल एक-एक घंटे के लिये ही भवन में प्रवेश करते थे। और यही वो समय होता था जबकि भवन में चहल-पहल होती थी। ये सेना इसी एक घंटे में अपना काम करती और एक घंटा पूरा होते ही वापस हो जाती थी।

भवन के भीतर आकर विश्वरूप सीधे अपने शयनकझ में पहुंच गया। अपने वस्त्र उतारे कुर्ता-पैजामा पहना और भवन के बार में पहुंच गया। बार में पहुंच कर विश्वरूप ने व्हिस्की की एक बोतल, सोड़ा, नमकीन और एक गिलास उठाया और सामने रखी कीमती मेंज पर रखकर बैठ गया। विश्वरूप ने एक पैग बनाया। नमकीन मुंह में डाल कर चबाने लगा। पैग उठाकर होठो से लगाया और एक सांस में गिलास खाली कर दिया। दूसरा पैग बनाया। दूसरा पैग भी खाली कर दिया। दूसरा पैग अंदर होते ही विश्वरूप के अतीत की खिड़कियां खुलने लगी।

पहली खिड़की।

विश्वरूप सदैव से इतना धनी नहीं था। अपितु एम. काम. करने तक तो उसकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि उसे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिये ट्यूशन आदि का सहारा लेना पड़ता था। विश्वरूप जब एम. काम. द्वितीय वर्ष का छात्र था तभी उसके जीवन में विशाखा नाम के एक तूफान ने प्रवेश किया था।

विश्वरूप का घनिष्ठ मित्र था विशाल। विशाल की बहन के विवाह समारोह में पहली बार विश्वरूप और विशाखा मिले थे। विशाल की बहन के विवाह में विश्वरूप ने बहुत परिश्रम किया। वह परिवार के एक सदस्य के रूप में कार्य कर रहा था। इस तरह विशाल के सभी परिचितो से विश्वरूप परिचित हो गया था। विशाखा से भी कई बार आमना-सामना हुआ। कुछ शुरूआती झिझक के बाद दोनो एक दूसरे से खुले। पहल विशाखा ने की।

"आप चाय लेंगे।"

"अभी तो पी है चाय।"

"तो क्या हुआ? जिस तरह आप मेंहनत कर रहे है, चाय आपको एनर्जी देगी।"

"यदि ऐसी बात है तो दीजिये, पी लेंगे।"

विशाखा ने एक कप में चाय निकाली और विश्वरूप की ओर बढ़ा दिया। विश्वरूप ने कप हाथो में ले लिया। इस समय यहां इन दोनो के अतिरिक्त और कोई नहीं था। विश्वरूप ने चाय का पहला घूंट लिया और कहा-

"चाय तो मैने बहुत पी। मगर इस चाय की बात कुछ और ही है। शायद आपके हाथ का प्रभाव है।"

विशाखा ने मुस्कुरा कर पलके नीची कर ली। इधर विश्वरूप ने कहने के साथ ही अपनी आंखे फेर ली।

"बनाने के लिये मै ही मिली थी।"

"सच कहूं तो हां।"

विश्वरूप ने एक बार तो विशाखा को देखा। फिर पुन: आंखे फेर कर कहा-

"इस भरी भीड़ में मैने आपके अतिरिक्त और किसी को देखा ही नहीं।"

"मै जाती हूं।"

विशाखा ने उठते हुए कहा और जाने लगी।

"शायद आपने मेंरी बात का बुरा मान लिया है।"

विश्वरूप ने कहा। परंतु विशाखा ने कोई जवाब नहीं दिया और वहां से हट गयी। इसके बाद दोनो ने एक दूसरे से कोई बात नहीं की। ऐसा नहीं कि दोनो का आमना-सामना नहीं हुआ। हुआ! मगर दोनो एक दूसरे से आंख चुराते रहे। कोई एक घंटे के बाद दोनो पुन: एकांत में एक दूसरे के सामने हुए।

"आप शायद नाराज है मुझसे।"

"नहीं! बल्कि आपकी नाराजगी से भयभीत हूं।"

" आपके लिये कुछ लायी हूं मै ।"

कहकर विशाखा ने स्टील का एक डिब्बा उठाया। डिब्बे में बर्फी भरी थी। विशाखा ने एक बर्फी उठायी और विश्वरूप के मुंह में डाल दी। विश्वरूप ने भी एक बर्फी उठायी और विशाखा के मुंह में डाल दी। अभी दोनो के मुंह में बर्फी घुली भी नहीं थी कि विश्वरूप ने विशाखा को अपने सीने से लगा लिया। विशाखा के होठो पर अपने होठ रख दिये। कुछ पलो के बाद ही विशाखा ऊं... ऊं... करके कसकमाने लगी। विश्वरूप ने विशाखा को छोड़ दिया। इस तरह विश्वरूप और विशाखा के पहली दृष्टि के प्यार ने आकार ग्रहण किया। पहली खिड़की बंद हो गयी।

विश्वरूप ने तीसरा पैग बनाया। तीसरा पैग अंदर जाते ही दूसरी खिड़की खुली।

दूसरी खिड़की।

विश्वरूप के घर में माता-पिता के अतिरिक्त दो छोटे भाई बहन थे। पिता की आय से घर का खर्च बड़ी मुश्किल से चलता था। सबसे बड़ा होने के कारण विश्वरूप के ऊपर परिवार की जिम्मेंदारी भी थी। अत: विश्वरूप ने एम. काम. की परीझा से पूर्व ही नौकरी की तलाश शुरू कर दी थी। विश्वरूप को नौकरी के लिये कोई बहुत अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा। इधर एम. काम. का परिणाम आया उधर विश्वरूप को नौकरी की उपलब्धि हो गयी। विश्वरूप मध्यम वर्गीय परिवार से था। अत: उसने कोई बहुत हाई-फाई नौकरी की आशा नहीं की थी। उसके अपने खर्चो के अतिरिक्त पिता का सहयोग हो जाये, विश्वरूप के लिये इतना ही पर्याप्त था। विश्वरूप के माता-पिता को विशाखा के बारे में पहले ही पता चल गया था। विशाखा भी सामान्य मध्यम वर्गीय परिवार से थी। विश्वरूप के माता-पिता को विश्वरूप और विशाखा के संबंध को लेकर कोई आपत्ति नहीं थी। सो दोनो का विवाह भी सम्पन्न हो गया। विवाह के बाद विशाखा का चरित्र खुलकर सामने आने लगा। यूं विशाखा का व्यवहार घर के सभी सदस्यो के प्रति अच्छा ही था। परंतु वह अति महत्वाकांझी थी। विवाह के कुछ समय बाद ही घर के खर्च को लेकर दोनो में तू-तू मै-मै होने लगी। विवाह के छह माह व्यतीत हो गये थे। एक तरफ विशाखा मां बनने वाली थी तो दूसरी तरफ पति-पत्नी के मध्य दूरियां बढ़ने लगी थी। समय आया। विशाखा ने एक स्वस्थ बालक को जन्म दिया। जब बालक एक वर्ष का हुआ तब एक दिन विशाखा ने विश्वरूप से कहा-

"घर के खर्च बढ़ गये है। सोचती हूं मै भी नौकरी कर लूं।"

" मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है। बस मां-बाबूजी को आपत्ति न हो।"

"तुम बात करोगे या मै करूं।"

"मै करूंगा।"

विश्वरूप ने अपने माता-पिता से बात की। माता-पिता को कोई आपत्ति नहीं थी। अब विशाखा ने भी नौकरी खोजनी शुरू कर दी। जल्दी ही विशाखा भी एक प्राइवेट फर्म में नौकरी पा गयी। दूसरी खिड़की बंद हो गयी।

विश्वरूप ने चौथा पैग बनाया। उसे भी अंदर किया। तीसरी खिड़की खुल गयी।

तीसरी खिड़की।

विशाखा को नौकरी करते एक वर्ष हो गये थे। इस एक वर्ष में बहुत से परिवर्तन हो गये। विश्वरूप की मां दुनिया से चली गयी। पिता ने खाट पकड़ ली थी। विश्वरूप की बहन बी.ए. में आ गयी थी। विशाखा देर रात तक ड्यूटी पर रहने लगी थी। सहज है कि एक ही वर्ष में उसने इतनी उन्नति कर ली थी कि काम के बोझ के कारण उसे देर हो जाया करती थी। नौकरी से देर रात वापस आने के कारण विशाखा अब घर-परिवार, पति-बच्चे किसी की तरफ भी ध्यान नहीं दे पाती थी। सबसे बड़ी बात, विशाखा शराब पीने लगी थी। उसका कहना था कि यदि उसे आगे बढ़ना है तो समाज के तौर-तरीके अपनाने पड़ेंगे। विशाखा शराब पीने लगी थी तो हो सकता है उसके पर पुरुषो से संबंध भी बनने लगे हो। बहरहाल जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था। पति-पत्नी के मध्य अनबन भी बढ़ रही थी। फिर वो काली रात आयी जब विशाखा ने अपने हिसाब से शुभसूचना दी परंतु विश्वरूप के अमंगल सूचना थी। जिसने विश्वरूप के जीवन को पूरी तरह बदल कर रख दिया। विशाखा ने कहा-

"मेंरी फर्म न्यूयार्क में अपनी नयी शाखा खोल रही है। और मुझे उसका हेड बनाया जा रहा है। क्या कहते हो?"

"तुम क्या चाहती हो।"

विश्वरूप जानता था कि विशाखा के ऊपर उसकी सलाह का कोई असर नहीं होगा।

"सोचती हूं, ऐसे अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते। वहां मुझे एक बहुत अच्छा वेतन मिलेगा। गाड़ी मिलेगी, फ्लैट मिलेगा। एक अच्छा जीवन जीने लायक हर सुख-सुविधा मिलेगी। चली ही जाऊं। बल्कि मै चाहती हूं तुम भी ये नौकरी छोड़ कर मेंरे साथ चलो। वहां छोटी से छोटी नौकरी भी यहां से अच्छा वेतन दे देगी।"

"मै अपना देश छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता।"

"क्या धरा है इस देश में?"

"अपनी माटी, अपने लोग। वेतन कम लेकिन सकून की सांस। सूखी रोटी मगर चैन की नींद।"

विशाखा हंसी।

"इन कविताओं से तुम्हारा मन भरता होगा। मगर मुझे वैभव चाहिये। मान-प्रतिष्ठा चाहिये। और ये सारी चीजे मुझे न्यूयार्क में मिल सकती है।"

"ये सारी चीजे तुम्हे शोभा देती है। तुम जाओ। मेंरे ऊपर अभी मेंरे पिता और छोटे भाई-बहन की जिम्मेंदारी है। मै उससे अपना मुंह नहीं मोड़ सकता।"

"तुम्हे लगता है कि जिन लोगो के लिये तुम जान दिये पड़े हो वे तुम्हारे काम आयेंगे।"

"न आये। मै अपना कर्तव्य जानता हूं। दूसरो का बदला नहीं।"

"पछताओगे।"

"मुझे उसी में सुख है।"

विशाखा न्यूयार्क चली गयी। साथ ले गयी अपने दो वर्षीय बालक को। तीसरी खिड़की भी बंद हो गयी।

विश्वरूप ने पांचवां पैग बनाया। उसे भी अंदर किया। चौथी खिड़की खुली।

चौथी खिड़की।

ऐसा नहीं था कि विश्वरूप को विशाखा से प्रेम नहीं था। वह उसे ह्रदय से चाहता था। फिर उसका बालक।

विशाखा के जाने के बाद उसका दुनियादारी से मन उचट गया। बार-बार आत्महत्या का खयाल मन में आने लगा। लेकिन वह चाह कर भी मर नहीं सकता था। बीमार पिता, छोटी बहन का विवाह, भाई की नौकरी, उसका विवाह। सबका बोझ उसी के कंधो पर था। फिर भी अपने मन के आगे वह नतमस्तक हो गया। पहले नौकरी छोड़ी, फिर कुछ दिन पागलो की तरह यहां-वहां भटकता रहा। इस बीच उसके पिता भी स्वर्ग सिधार गये। अब अपने भाई-बहन के लिये वही उनका पिता था, वही उनका पालनहार--संरझक। नौकरी की इच्छा अब नहीं थी। मगर जीवन को चलाने के लिये कुछ ना कुछ तो करना ही था। उसने अपनी बची-खुची पूंजी लगाकर बीच बाजार में एक चाय की दुकान खोल ली। भाग्य ने फिर साथ दिया। चाय की दुकान चल निकली। इतनी चली कि बहन का विवाह एक अच्छे परिवार में कर दिया। भाई को भी अच्छा व्यापार करा कर उसका भी विवाह कर दिया। अब विश्वरूप स्वतंत्र था। चाहता तो दुनिया से मुंह मोड़ सकता था। परंतु अब तक विश्वरूप को धन की चाह लग चुकी थी। धन की लालसा तो उसे अब भी नहीं थी। मगर बदले की एक भावना जरूर उसके मन में जाग चुकी थी।

बदला ?...

किससे ?...

शायद विशाखा से। अब वह उसे दिखाना चाहता था कि वैभव कमाने के लिये विदेश का मुंह देखना जरूरी नहीं होता। कर्म और भाग्य साथ दे तो अपनी माटी से मिलकर भी वैभव कमाया जा सकता है। चाय की दुकान से उसने नये-नये व्यापार करने शुरू कर दिये। मिट्टी को हाथ लगाया वो भी सोना हो गयी। और आज विश्वरूप इतना धनी है कि चाहे तो सोने की सिल्लियो पर अपना बिस्तर लगा कर सोये। धन तो आया। भरपूर आया। आशा से अधिक आया। मगर सकून चला गया। आज वो इस विशाल वैभव के बीच अकेला है। इसे भोगने के लिये उसके अलावा और कोई नहीं। चौथी खिड़की बंद हो गयी।

विश्वरूप ने व्हिस्की की बोतल को देखा। फिर सोड़े की बोतल को। क्या बकवास है। मदिरा में भी मिलावट। ह...ट्ट...। उसने सोड़े की बोतल को उठा कर फेंक दिया। गनीमत यह थी कि बोतल प्लास्टिक की थी। अन्यथा बार में कांच ही कांच बिखर जाता। जो बाद में स्वयं उसी को घायल करता। विश्वरूप ने व्हिस्की की बोतल सीधे मुंह से लगा लिया। और दम साध कर चढ़ाने लगा। नीट व्हिस्की झटके से अंदर होना शुरू हुयी। और तेजी के साथ दिमाग पर चढ़ने लगी। अब विश्वरूप अपने ऊपर से नियन्त्रण खोने लगा। नशा चढ़ा तो विश्वरूप ने अपने वस्त्र फाड़ने शुरू कर दिये। ऐसा करने में उसे एक अजीब सा आनंद आ रहा था। थोड़ी ही देर में उसके शरीर पर जो वस्त्र रह गये थे उन्हे वस्त्र के स्थान पर चीथड़े कहना अधिक उपयुक्त होगा। अब वो उन्ही चीथड़ो में अपने पूरे भवन में इधर-उधर डोलने लगा। जब थक गया तब जहां था वहीं गिर कर सो गया। संगमरमर की फर्श पर बिना बिस्तर के बड़ी गहरी नींद सोया।

रात के दो बजे होंगे जब विश्वरूप के लैण्डलाइन की घंटी घनघना उठी। कुछ घंटे गहरी नींद में सो लेने के कारण विश्वरूप के दिमाग पर चढ़ा नशा कुछ तो हलका हुआ था। परंतु अभी भी उसे अपने देह का होश नहीं था। डगमगाते कदमो से चलकर वह फोन तक पहुंचा। फोन उठाया।

"हैलो..."

"भैया, आप कहां हो ?"

दूसरी तरफ विश्वरूप की बहन थी।

"घर पर।"

"मैं दरवाजे पर खड़ी हूं। दरवाजा खोलिये।"

"अच्छा।"

विश्वरूप ने कहा तो लेकिन नशे और नींद की अधिकता के कारण वही ढ़ेर हो गया। कुछ मिनटो की प्रतीझा के बाद फोन पुन: घनघना उठा। विश्वरूप ने पुन: उठाया।

"भईया दरवाजा खोलो।"

अब विश्वरूप को कुछ-कुछ समझ आया।

"तुम कहां हो ?"

"आपके घर के सामने।"

"अच्छा खोल रहा हूं।"

"भैया! अब फिर से मत सो जाना। मुझे दुबारा फोन करने की जरूरत न पड़े।"

"अच्छा।"

कहकर विश्वरूप हंसा। फोन यथास्थान रखकर रिमोट उठाया और मुख्य द्वार की तरफ चल पड़ा। मुख्य द्वार खोलते ही सबसे पहले जिस व्यक्ति पर विश्वरूप की दृष्टि पड़ी, वह थी, विशाखा। विशाखा और विश्वरूप ने एक दूसरे को देखा। विश्वरूप का सारा नशा छू हो गया। दूसरी तरफ विशाखा ने पति को चीथड़ो में लिपटे देखा तो पहले तो एकबारगी लाज से पलके झुका ली। फिर कहा-

"ये क्या हुलिया बना रखा है।"

"अंदर आओ।... और कौन है साथ मेंं ?"

"वैभव और श्रुति।"

वैभव विश्वरूप के बेटे का नाम था और श्रुति उसकी बहन का। अब विश्वरूप का ध्यान अपनी बहन और साथ खड़े लड़के पर पड़ी। बेटे पर दृष्टि पड़ते ही विश्वरूप के भीतर का पिता जाग गया। दस वर्ष के अन्तराल के बाद देखा था अपने बेटे को। उसने अपनी बाहें फैला दी। बेटा अपने पिता को देखकर हैरान था। उसने अपने मन में अपने पिता के लिये जो छवि बना रखी थी, इस व्यक्ति से वो किसी तरह मेंल नहीं खाती थी। उसकी झिझक को देखकर विश्वरूप ने कहा-

"परेशान मत हो मेंरे बच्चे। ये मेंरा स्थायी रूप नहीं है। अकेलेपन की भावना और नशे ने आज मेंरी ये हालत बना दी है। मेंरा ये रूप हमेंशा नहीं रहेगा।... अच्छा रुको। मै अभी आया।... श्रुति अपनी भाभी और भतीजे को डाइनिंग हाल में लेकर चलो। मै वहीं आता हूं।"

विश्वरूप अपने शयनकझ की तरफ चला गया। श्रुति अपनी भाभी और भतीजे के साथ डाइनिंग हाल में आ गयी। विशाखा और वैभव के लिये यह भवन किसी अजूबे से कम नहीं था। हर दरवाजा स्वचालित था। रिमोट के साथ ही प्रत्येक दरवाजे के समीप कुछ स्विच भी लगे थे। जिनकी सहायता से बिना रिमोट के भी दरवाजो को खोला जा सकता था। कोई पन्द्रह मिनट बाद विश्वरूप भी वहां आ गया। इस समय विश्वरूप सूट-बूट में बिल्कुल अलग ही दिख रहा था।

"अब तो मेंरे पास आजा मेंरे लाल।"

विश्वरूप ने अपने बेटे से कहा। बेटा अपने पिता के सीने से आकर लग गया।

"तुम्हारे लिये व्हिस्की लाऊं।"

विश्वरूप ने विशाखा से कहा।

"मैने शराब छोड़ दी है।"

"आश्चर्य है। जब तुम भारत में थी तब तो शराब पीती थी। और अब जब तुम न्यूयार्क में रहती हो तब शराब नहीं पीती।"

"समय का फेर है। जिस फर्म ने मुझे न्यूयार्क भेजा था उसमें आज मै सोलह प्रतिशत की हिस्सेदार हूं। मगर तुमने सच कहा था, ऐश्वर्य तो आया मगर सकून चला गया। लगभग एक वर्ष हो गये होंगे शराब छोड़े हुए।"

"चलो, शराब न सही। क्या पियोगी?"

"अब आयी हूं तो पियूंगी भी और खाऊंगी भी। तुम मुझे मेंहमान समझने की गलती मत करना। मै अब यहीं शिफ्ट हो रही हूं।"

"ये तो मेंरे लिये खुशी की बात है। दस वर्ष के बाद तुम्हे मेंरा खयाल आया ये क्या कम बड़ी बात है।"

"खयाल तो हमेंशा आता रहा है। मगर अपनी जिम्मेंदारियो के चलते कभी भारत आयी ही नहीं। तुम्हारी नाराजगी का खयाल था इसलिये कभी कोई फोन नहीं किया। कई बार तुम्हे पत्र लिखा मगर पोस्ट नहीं किया।"

"तुम भारत नहीं आयी और मै कई बार न्यूयार्क हो आया हूं।"

"हां...! तो मिले क्यो नहीं?"

"क्यो मिलता? तुम छोड़ कर गयी थी मुझे। तुम एक बार भी मिलने की कोशिश करती तो मै बजाय होटल के तुम्हारे पास ही रुकता।"

"सचमुच बहुत बड़ी मूर्ख थी मै।"

"खैर जो हुआ सो हुआ। अब नये सिरे से जिन्दगी शुरू की जा सकती है।... श्रुति! बैठी क्या देख रही हो। जाओ रसोई में। रसोई से मिठाई लाकर अपनी भाभी और भतीजे का मुंह मीठा कराओ।"

श्रुति रसोई की तरफ चली।

"रुको..."

श्रुति रुक गयी। विश्वरूप ने रिमोट से कुछ किया।

"अब जाओ।"

श्रुति रसोई की तरफ चली गयी। विशाखा ने पूछा-

"क्या किया तुमने?"

"इस भवन के सभी दरवाजे आटोमैटिक है। ये रिमोट से आपरेट होते है। मगर इसमें आटोमैटिक सिस्टम को बंद करने का सिस्टम भी है। मैंने उसी को बंद कर दिया है। शायद अब इसकी जरूरत न पड़े।"

"शायद नहींं ! नहींं ही पड़ेगी।"


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