ख़ामोशी
ख़ामोशी
"क्या हुआ बहू, इतनी चुपचाप क्यों हो? क्या मेरा गांव से तेरे पास आकर रहना तुझे अच्छा नहीं लग रह?"
"माँ जी ऐसा क्यों कह रही हैं, ऐसी कोई बात नहीं है। मैं तो बस यूं ही कुछ सोच रही थी........."
"क्या तेरी तबीयत ठीक नहीं है?"
"माँ जी सब ठीक है, मैं तो सोच रही थी कि वह पास वाले घर में जो पति-पत्नी रहते है उनको देखकर कितना अच्छा लगता है; कितना प्रेम है दोनों में, कभी टहलते हुए आइसक्रीम खाने निकल जाते हैं, कभी बाहर बालकनी में घंटों बैठे चाय पीते हुए बातें करते रहते हैं। बड़ा अच्छा लगता है दोनों को देखकर।" निशा खुश हो कर बोली।
"अच्छा ऐसा है, क्या कहना चाहती हो कि विक्रम तुमको प्रेम नहीं करता?" माँ तुनक कर बोली।
"नहीं- नहीं माँ जी मैं ऐसा कुछ नहीं कह रही......."
मैं जब से आई हूँ मैंने एक दिन भी नही देखा वो कही और सोया हो हमेशा तेरे साथ ही कमरे में सोता है।"
निशा को समझ न आया वो क्या बोले, वो चुप-चाप सुनती रही।
"लो कर लो बात प्रेम नही करता........." माँ जी गुस्से में बुदबुदाते हुई रसोई में चली गईं।
निशा जो ख़ामोशी वर्षो से ओढ़े थी उसी ख़ामोशी में लिपटी वो अपने काम में लग गई।