कचरे का मोल
कचरे का मोल
अकेला व्यक्ति जब शहर में नौकरी करने आता है तो लोगों से पहले वो शहर से दोस्ती करने की कोशिश करता है ! वो उस जगह के माहौल, वहाँ के रहन-सहन, इत्यादि को समझने की कोशिश में लग जाता है ! इसी तरह का एक इन्सान मैं भी हूँ, जो कि समय के अप्रत्याशित "ट्विस्ट एंड टर्न्स" की वजह से परिवार के होते हुए भी शहर में अकेला रह रहा था !
ख़ैर, रोज़मर्रा की तरह ही मैं चाय की दुकान पर बैठा भारत के दिवा-समय का राष्ट्रीय पेय पी रहा था कि अचानक गल्ले की तरफ से आती तेज़ आवाज़ों ने मेरा ध्यान चाय से हटकर उस गल्ले पर चला गया ! एक कृशकाय और मैला-कुचैला व्यक्ति जिसके कंधे पर एक प्लास्टिक का थैला लटक रहा था जिसमें शायद उस काया द्वारा उठाया गया कचरा था, उसे दुकान का मालिक बहुत भला-बुरा कह रहा था ! तब तक मैंने चाय पी ली थी और मैं गल्ले पर हिसाब करवाने पहुँच गया था ! मैंने पुछा,"क्या हुआ भैया, क्यों इस गरीब को इतना भला-बुरा कह रहे हो ? क्या किया इसने ऐसा ?"
मैं दुकान के मालिक को ये कहकर उस व्यक्ति की तरफ मुड़ गया, "क्यों भाई, हुआ ऐसा कि इन सज्जन को तुम्हें इतना सुनाने का मौक़ा मिल गया ?" मैंने जैसे ही ये कि वो सुबकते हुए कहने लगा, "साहब ! मैं बाहर कचरा उठा रहा था कि एक साहब ने मुझे आवाज़ देकर बुलाया और पूछा कि चाय-नाश्ता करोगे क्या ? एक भूखा आदमी अन्न के अलावा क्या चाहेगा साहब ?
मेरे हाँ कहने पर उन साहब ने बिस्कुट का एक पैकेट और चाय मँगा लिया ! जब मैं खाने लगा तो पेशाब जाने के बहाने वो चले गए। जब मैं खा-पीकर जाने लगा तो फिर ये साहब मुझसे उनके नाश्ते और मेरे नाश्ते के पैसे माँगने लगे। साहब ! अब कैसे मैं इन्हें पैसे दूँ जब मैं ख़ुद अपने लिए दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर पाता हूँ।"
जैसे ही उसने बात ख़त्म की कि उसका सुबकना तेज़ हो गया, मुझे उस पर दया आ गयी, कुल ७० रुपये का भुगतान कर मैंने उस व्यक्ति को बाकी बची हुई बेइज़्जती से विमुक्त करवाया और वापिस अपने ऑफिस आ गया।
अब जब भी मैं चाय पीने आता तो वो मुझे उस दुकान के निकट ही कचरा उठाते हुए मिल जाता और मुझे देखता तो हाथ उठाकर "हाई" वाला इशारा करता और पास आकर मेरा हालचाल पूछता। दिन बीते और इसी तरह से उसका आना, हाथ हिलाकर "हाई" करना और निकट आकर मेरा हालचाल जानना, उसकी और मेरी दिनचर्या का एक हिस्सा बन चुका था।
एक दिन जब मैं चाय पीने उस दुकान पर आया तो देखा वो वहाँ बर्तन साफ़ कर रहा था। इस बार उसके निकट जाने की बारी मेरी थी और उसके सामीप्य को प्राप्त कर मैंने पूछा,"क्या भाई, वो कचरा उठानेवाला काम छोड़ दिया क्या ?"
उसने भी कहा,"हाँ साहब !" उस कार्य-त्यजन का कारण जानना चाहा तो उसने कहा, "साहब ! कचरा उठाकर बेचकर पैसे कमाना मेरा धंधा है, परन्तु जबसे वहां छोटी-छोटी बच्चियों का मिलना शुरू हुआ है, मेरी नज़र में कचरे का मोल कम हो गया है और जब धंधे का मोल कम हो जाए तो उसे छोड़ देना चाहिए।" मुझे उसके इस उत्तर ने निरुत्तर कर दिया था और मैं आश्चर्यचकित था कि प्रशंसा किसकी करूँ उसकी वणिकवृत्ति की या उसके इस उत्तर कि जिसने इंसान के कृत्य को कचरे से भी कम आँका है। मेरा असमंजस जारी है परन्तु अगर आपको कुछ साफ़ नज़र जाए तो मुझे ख़बर ज़रूर कीजियेगा, मैं प्रतीक्षारत हूँ !