इच्छित जी आर्य

Tragedy Inspirational Children

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इच्छित जी आर्य

Tragedy Inspirational Children

कौन देगा जवाब?

कौन देगा जवाब?

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जैसे ही उसने दो कदम सिल्की की ओर बढ़ाये, मधूलिका बिल्कुल अन्दर तक सहम गयी...

आखिर कैसे ? ? ?

बिटिया मधूलिका की खिलखिलाहट तो जैसे आज थमने को ही नहीं तैयार थी। आखिर थमती भी कैसे? आज एकाएक एक साथ ही उसके पास चार नये खिलौने जो आये थे। चार खिलौने मतलब चार छोटे-छोटे, प्यारे-प्यारे, एकदम मासूम से दिखते कुत्ते के वो चार बच्चे!


अब ये चार खिलौने मधूलिका के अपने होने की भी अलग ही कहानी थी। पूरे मुहल्ले में ये एक मधूलिका ही तो थी, जो सिल्की नाम के उस कुत्ते को रोज रोटी खिलाती थी। वरना, जब से सिल्की के चेहरे पर वो अजीबोगरीब से दिखने वाले दाग पड़े थे, एक वक्त पूरे मुहल्ले के बच्चों की पसन्द बनी हुई उसी सिल्की को, किसी ने पास तक न फटकने दिया था। और आज, जब सिल्की ने एक साथ चार बच्चों को जन्म दिया था, मधूलिका की तो जैसे बाँछें ही खिल गयी थीं। सिल्की से ज्यादा इस वक़्त वो खुद उन चार मासूम जानों की माँ बनी हुई थी।


अब, जब से मधूलिका उन चार नन्ही मासूम जानों की माँ बनी थी, उसने तो न जाने क्या-क्या कर डाला था! एक सहेली रचना को साथ लेकर पहले तो उसने पूरे मुहल्ले के और बच्चों को साथ लिया, फ़िर सब ने मिलकर उन चारों का ही नाम पिल्लू रख दिया। दूध, रोटी, बिस्कुट और जितने भी खाने-पीने की चीजें मुनासिब थीं, बच्चों ने मिलकर सब जुटा डालीं। और फिर शुरू हुई चारों पिल्लूओं के आने की पार्टी।


बच्चों के खुशी मनाने के अपने तरीके थे। अब चार-चार पिल्लू थे उनके सामने। किसी ने एक पिल्लू को गोद में उठाया, तो किसी ने दूसरे पिल्लू को हवा में उछाला, कोई तीसरे पिल्लू को सर पर बिठाकर नाचने लगा, तो कोई चौथे पिल्लू को दूध पिलाने में जुट पड़ा। और फ़िर इसी बीच अचानक से एक आवाज़ हुई... कैं... कैं... कैं... कैं...!


किसी एक पिल्लू के कराहने की ये आवाज़ सुनते ही अगले ही पल वो सिल्की, जो अभी तक इस बच्चों की पार्टी की तिकड़मों से दूर, आँखें बन्द करके सोने की कोशिश में बैठी हुई थी, भौं-भौं-भौं-भौं की तेज चीखती गुर्राहट के साथ बिल्कुल गुस्से में भरी हुई बच्चों पर टूट पड़ने को उनके सामने खड़ी थी। पर सिल्की इसके आगे कुछ भी करने को एक भी कदम बढ़ा पाती, उससे पहले ही चारों पिल्लू दौड़कर उसके पास आकर दूध पीने को उससे चिपट गये। मौका देखकर सहमे हुए सारे बच्चे फौरन वहाँ से अपने-अपने घरों को दौड़ गये। पर, मधूलिका को तो जैसे अभी भी भरोसा था कि उसे रोज़ रोटी देने वाली लड़की को वो अपने पिल्लूओं से खेलने से नहीं रोकेगी।


सारे बच्चों के दौड़कर भाग जाने के बाद पहले कुछ देर तो वो वहीं सिल्की के सामने खड़ी रही, फिर जैसे ही उसने दो कदम सिल्की की ओर बढ़ाये, वो इतनी जोर से भौंकी कि मधूलिका बिल्कुल अन्दर तक सहम गयी। फ़िर तो जो आँखों में जो बूँदें छलक उठीं, उनके साथ वो दौड़ती हुई सीधी घर को चली आयी। घर पहुँचते ही उसने सुबकते-सुबकते अक्षर-अक्षर पूरी कहानी सारे घर वालों को सुना डाली। बेटी की आँखों में आँसू देखकर भला कौन बाप गुस्से में न आता?


ठीक अगले ही पल म्युनिसिपालिटी के ऑफिस में फ़ोन करके मुहल्ले में एक कुत्ते के पागल कुत्ते की तरह बर्ताव करने की सूचना दे दी मैंने। अगली सुबह ही जंग लगी जालियों की खिड़की वाली एक गन्दी सी दिखने वाली बड़ी सी गाड़ी दनदनाते हुए आकर हमारे मुहल्ले में आकर रुकी। 


हालाँकि गुज़री रात में ठंडे पड़े गुस्से के बाद अब मन तो था, इस म्युनिसिपालिटी की गाड़ी को खुद ही बोलकर मुहल्ले से चलता करवा दूँ। पर, तीर कमान से निकल चुका था। वो थे सरकारी कर्मचारी, सरकारी नियमों के गुलाम। तो फिर उनको तो वो काम पूरा करके ही जाना था, जिसका वो फरमान लेकर आये थे। मधूलिका को चुपके से बहलाकर अन्दर के एक कमरे में बिठा दिया। फ़िर खुद बाउन्ड्री-वॉल से बाहर निकलकर दरवाज़े के सामने खड़ा हो गया, ताकि जो कुछ भी मौका मिल सके, शायद मैं कुछ कर सकूँ। पर, ये तो उनके लिए रोज का खेल था।


एक मोटे से डण्डे में बंधे तार के फंदे की जकड़ में सिल्की को कैद करने में ज़रा वक़्त न लगा उनको। मैं खामोश खड़ा बस देखता ही रहा। देखता रहा, क्योंकि गलती भी मेरी थी और मैं कर भी कुछ नहीं सकता था। वो चारों पिल्लू कैं... कैं... कैं... कैं... करते हुए बस दुहाई माँग रहे थे, कि कोई तो बताये, उन्हें ज़िन्दा रहने के लिये अब दूध कहाँ से मिलेगा? कौन उनकी रक्षा करेगा और कौन उन्हें इस दुनिया में खतरों से बचते हुए इन खुली सड़कों पर जीने के काबिल बनायेगा?


जवाब किसी के पास नहीं था। मेरे पास भी नहीं। शायद उनके पैदा होने का जिम्मा लेने वाले भगवान के पास भी नहीं। और शायद ये पढ़ने वाले आप सभी के पास भी नहीं। है क्या, किसी के पास कोई जवाब?


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