काश! काश! 0.24...
काश! काश! 0.24...
अश्रुना की बात पर मेरा मन किया कि मैं उसकी बड़ी बहन बन कर उससे व्यवहार करूं। यद्यपि मेरी कोई छोटी बहन नहीं थी, मैंने तब विचार किया कि यदि कोई होती तो मैं उससे किस तरह व्यवहार करती। सोचने के बाद मैंने अश्रुना से कहा -
"अश्रुना, यद्यपि मैं तुमसे कोई और बात करने के विचार से यहाँ आई थी परन्तु तुम्हारी विवशता वाली बात पर मैंने उसे स्थगित रखने का निर्णय किया है। मैं 10 वर्ष पहले तुम्हारी ही उम्र की लड़की थी। तब अपने लिए दुनिया से जिस व्यवहार की अपेक्षा करती थी, उसे स्मरण करते हुए वही मैं तुमसे करुँगी। "
अश्रुना मेरी बात ने अचंभित किया, वह अचरज से मुझे निहारने लगी थी तब मैंने कहा -
"अश्रुना मैं अभी तुमसे सुनना चाहूँगी कि तुम्हारे साथ ऐसी कौ नसी परिस्थितियाँ हैं जो न चाहते हुए भी तुम्हें मुझ पर विश्वास करने को विवश कर रही हैं। "
अश्रुना ने दीर्घ श्वास उच्छवास के बाद बताया - "मैम, मुझे 40 हजार रुपए की अभी ही सख्त जरूरत है और उसकी व्यवस्था का मेरे पास कोई उपाय नहीं है।"
मेरा माथा ठनका कि कहीं यह लड़की ठग तो नहीं है। तब भी अपने संदेह के भाव मैंने अपने चेहरे से हटाते हुए पूछा - "तुम्हें इतने रुपए क्यों चाहिए हैं?"
अश्रुना ने कहा -" कल ही गाँव से मेरी मम्मी का फोन आया है कि इस बरसात में, घर में पानी भरने की परेशानी से बचने के लिए तुरंत ही सामने वाले कमरे का फर्श ऊँचा कराना आवश्यक है।"
मैंने पूछा -" क्या तुम्हारे पापा नहीं है?"
अश्रुना ने इस पर जो बातें बताई वे, वहीं थीं जो अश्रुना ने नवीन को बताईं थीं और मुझे नेहा के माध्यम से पता हुईं थीं। अश्रुना ने यह सब बताकर अंत में कहा -
"इस तरह पापा का गायब रहना हमारे परिवार पर संकट के हेतु बनकर आए हैं। ये मुझे लाचार कर रहे हैं कि चाहे जैसे भी हो मैं रुपयों की व्यवस्था करूं। "
उसके बताए विवरण पर मैं अश्रुना से यह पूछने की सोच रही थी कि वह नवीन से ये रुपए क्यों नहीं माँग रही है। मैंने इस विचार को त्याग दिया कि अब तक अश्रुना ने नवीन के घर जाने और वहाँ की बात मुझसे नहीं कही है इसलिए अभी इस भेंट में उन बातों की पुष्टि का लोभ मुझे त्याग देना चाहिए।
बहुत सी बातों पर कुछ ही पलों में विचार करते हुए मैंने कहा -
"अश्रुना मैं तुम्हें 40 हजार रुपए दे दूंगी। अपनी आज की इस भेंट को, मेरे मंतव्य सिद्ध करने वाली के स्थान पर इसे मैं तुम्हारी परेशानी दूर करने वाली भेंट में बदल देना चाहती हूँ।"
अश्रुना यह सुनकर चौंक गई थी। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था - उसने मुझसे कहा आप कोई परी कथा वाली साक्षात परी तो नहीं हो, मैम? मेरी जैसी युवा और आकर्षक लड़की की सहायता के लिए किसी पुरुष के सहायता को बढ़ते हाथ के पीछे के मंतव्य तो समझ आते हैं। मगर कोई युवती किसी अनजान लड़की की ऐसी बड़ी सहायता करे यह मेरी समझ से बाहर है।
मैंने बोलने की जगह उसे देख के स्नेह से मुस्कुरा दिया। तब वह कुछ सोचती हुई दिखी थी। वह बोली -
"परी मैम, इतने बड़ी सहायता राशि आपसे लेने की मेरी एक शर्त है।"
मैंने कहा - जेडअश्रुना, तुम मुझे रिया मैम ही कहो, मुझे परी नहीं बनाओ। (फिर मुस्कुराते हुए) शर्त तो रुपए देने वाले की ओर से अपेक्षित होती है। क्या यह विचित्र नहीं जो तुम रुपए लेते हुए शर्त की बात कह रही हो? "
अश्रुना ने कहा - "मैम, वास्तव में मैं बुरी नहीं एक मजबूर लड़की हूँ। जिसकी मजबूरी का फायदा उठाने वाले बहुत लोग हैं। मेरी सहायता का प्रस्ताव करते हुए मैं आपके मन में चल रहे किसी भी संदेह को मिटाने के लिए शर्त की बात कह रही हूँ। )"
मैंने सोचा शर्त में अश्रुना मुझसे कहेगी कि सहायता की ली जाने वाली राशि वह दान जैसे नहीं, उधार जैसे ग्रहण करेगी और कुछ समय में मुझे लौटा देगी। तब भी मैंने पूछा - अश्रुना तुम्हारी शर्त क्या है?
अश्रुना ने कहा - "आप मेरे साथ गाँव चलकर पहले यह पुष्टि कर लें कि वास्तव में ये रुपए मुझे घर के रेनोवेशन के लिए ही चाहिए हैं। "
मैंने सोचते हुए कहा -" मुझे स्वीकार है मगर गाँव तुम्हारे साथ मैं नहीं मेरे पति ऋषभ जाएंगे।
अश्रुना ने कहा - जी, यह चलेगा। "
मैंने कहा - "ठीक है इस रविवार ऋषभ को अपने साथ तुम गाँव ले जाना। वहाँ तुम्हें ऋषभ की कार में जाना-आना होगा। "
अश्रुना ने सहमति में सिर हिलाया था। फिर गाँव का नाम, यहाँ से दूरी आदि के विवरण मुझे बताए थे। स्पष्ट था कि कार से गाँव जाना-आना छह-सात घंटे में संभव था।
अंत में अश्रुना और मैंने एक दूसरे को अपना अपना मोबाइल नं. दिया था। रेस्टारेंट का बिल चुकता करने के बाद मैंने, अश्रुना को कॉलेज गेट पर छोड़ा था।
ऐसे लगभग दो घंटे गायब रहने के बाद जब मैं ऑफिस पहुँची तो मेरी टेबल पर कामों का अंबार लगा था। जिन्हें निबटाने के लिए मुझे ऑफिस के समय के बाद 2 घंटे तक अतिरिक्त समय में काम करते रहने पड़ा था।
मैं घर विलंब से लौटते हुए भी कोई थकान अनुभव नहीं कर रही थी। यह शायद परोपकारी काम से मिली ऊर्जा थी जो मुझे इस हेक्टिक डे में भी संतोष प्रदान कर रही थी। मैं पथभ्रष्ट होने को उन्मुख एक लड़की को सही पथ पर बनाए रखने की समाज भलाई वाले कार्य को अपना सामाजिक दायित्व मान रही थी।
घर पहुँची तो अन्य दिनों से विपरीत आज मेरे प्रियतम-मेरे पति ऋषभ, बच्चों के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे।
एक एक बार दोनों बच्चों एवं ऋषभ को प्यार से आलिंगन करते हुए मैं वॉशरूम गई थी। चेंज करके जब लौटी तो ऋषभ चाय-बिस्किट्स के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे।
उस रात बिस्तर पर लेटे लेटे मैंने अश्रुना से हुईं सभी बातें ऋषभ से कहीं थीं। जैसी मुझे आशा थी, ऋषभ ने 40 हजार रुपए अश्रुना को दिए जाने की बात पर कोई आपत्ति नहीं की थी। साथ ही उन्होंने रविवार को अश्रुना के साथ गाँव जाने की सहमति भी दे दी थी।
मेरे हृदय में उनके लिए अथाह प्रेम उमड़ आया था। मैंने कहा - ऋषभ, आपकी पत्नी होना गर्व की बात है। मेरी इच्छाओं का इतना ध्यान आप कैसे रख लेते हैं? ऋषभ ने कहा - हमारे समाज में घर परिवार की पहचान पुरुष के नाम से होती है। मैं चाहता हूँ रिया तुम ऐसे काम करो कि हमारे परिवार की पहचान ‘रिया’ नाम से हो।
मुझे ऋषभ पर प्यार आया था। मैंने उन्हें अपने से भींच लिया था।
पत्नी को प्यार में अपनी समर्पिता बनाने की यह ऋषभ में अनूठी कला थी।
उस रात प्रणय संबंध के बाद मैं तकिए पर नहीं अपितु ऋषभ के कंधे पर सिर रखकर सो रही थी …