Anil Makariya

Classics Inspirational

4.8  

Anil Makariya

Classics Inspirational

जर्नी विथ अ गांधी

जर्नी विथ अ गांधी

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मैं वक्त पर गांव पंहुच गया। यह अच्छा हुआ कि दादी की अंतिम क्रिया का सारा इंतजाम गांव वालों ने मेरे पहुंचने के पहले ही कर रखा था।

अंतिम क्रिया के तुरंत बाद गांव वालों ने दादी की अंतिम निशानी मुझे सुपुर्द कर विदा ले ली

और यह अंतिम निशानी थी दो हजार की एक गुलाबी नोट।

दादी के मरने के साथ ही मकान भी स्वर्गीय दादा द्वारा लिए कर्जे की भेंट चढ़ गया था। मेरे परिवार के रूप में रह गया केवल दो हजार कि नोट पर छपा गांधी जोकि मेरी दादी के मुताबिक 1959 में भारत आये गांधीवादी अश्वेत नेता 'मार्टिन लूथर किंग जूनियर' ने उन्हें गांधीवाद के व्यापक प्रसार में दिए योगदान के बदौलत उन्हें दिया था।

अब मेरी 106 साल की दादी को कौन समझाए? की इस दो हजार की नोट का वजूद गांधीवाद की वजह से नही है बल्कि कुछ साल पहले हुई नोटबंदी की बदौलत है।

बुढ़ापे की टाइम लाइन हमेशा किसी नौंवी कक्षा के इतिहास को पढ़ते छात्र की तरह ऐतिहासिक चरित्रों और घटनाओं की तारीख में घालमेल करती रहती है।

खैर, उस नोट में छपे गांधीजी उनके विचारों की तरह बूढ़े हो चुके थे और नोट आज के भारत की तरह कड़कड़ाती जवान थी।

मेरे लिए तो इसी बुढ़ापे और जवानी का मिश्रित संगम थी दादी की यह अंतिम निशानी।

जेब में इस नोट के अलावा फूटी कौड़ी न थी। वैसे भी आजकल फूटी कौड़ी की तो छोड़ो, साफ और साबूत कौड़ी की भी कोई कीमत नही है लेकिन फिर भी,

इस आखिरी गांधी को खर्च किये बिना मंजिल पर पहुंचना था, तो सोचा क्यों न चालीस करोड़ लोगों के 'नंगे फ़क़ीर' द्वारा अविष्कृत सविनय अवज्ञा, असहयोग और अहिंसा द्वारा ही यह सफर तय किया जाए।वैसे भी उस 'नंगे फ़क़ीर' ने ही कहा था 'पवित्र साध्य तक पंहुचने का साधन भी पवित्र ही होना चाहिए'।

"ऐ.. भाई .. ऑटो वाले भैया!" ऊंघते हुए भविष्य को मैंने झंझोड़ा।

"बोलो साहेब ..किधर कु चलने का?" आंखों में खुमारी लिए ऑटो वाला थोड़ा झुंझलाया।

"शिवाजी नगर बस स्टॉप।" मैंने शांत स्वर में उत्तर दिया।

मीटर डाउन होते ही ऑटो गंतव्य की ओर दौड़ पड़ी।

"एकुनसाठ रुपये ... नौ रुपये छूटे देने का।" बस स्टॉप पर ऑटो रिक्शा रुकते ही मीटर देखकर ड्राइवर ऊंचे स्वर में बोला।

"पैसे तो नही है मेरे पास, आप को इसके लिए जो दंड देना हो मुझे कुबूल है।"

मैंने विनयपूर्वक उसकी आज्ञा का उल्लंघन किया।

"क्या फालतू आदमी है ..पहले बोलने का न? ..ये रिक्शा क्या समाजसेवा के वास्ते दिखरेला था तेरे कु?"

ऊंची आवाज में बोलकर ड्राइवर ने एक चांटा मेरे बाएं गाल पर रसीद कर दिया।

मैंने अपने चहेरे पर अपनी सिल्वर जुबली मुस्कान चस्पा की और अपना दांया गाल भी आगे कर दिया।

ऑटो रिक्शा वाला अचकचा गया। मुझे नीचे से ऊपर तक देखता हुआ ऑटो की ओर बढ़ा।

"तू ...तू ...तू मिल मेरे कु फुरसत में फिर देखता है.. मैं तेरे कु।"ड्राइवर गुस्से में ऑटो स्टार्ट कर निकल गया।

मैं उस बस में जा बैठा जो मुझे मेरी मंजिल तक पंहुचाने वाली थी। बस शुरू होते ही कंडक्टर की 'टिकिट टिकिट....टिकिट टिकिट' की आवाज बस में गूंजने लगी।

"ऐ.. यहां टिकिट..टिकिट!" कंडक्टर मुझ से मुखातिब हुआ।

मैं हौले से सीट से उठा और बेहद अहिंसक लहजे से कंडक्टर के कान में बोला। "टिकट के पैसे तो नही है।"

कंडक्टर की आंखों में लालच की चमक आ गयी।

"मी परत येतो।" बोलकर वह आगे बढ़ गया।

और जब मेरा स्टॉप आने ही वाला था कि कंडक्टर आ धमका।

"चलो..निकालो चाय-पानी।" वह धीरे-से मुझे बोला।

मैं साफ समझ गया कि वह टिकट नही काटने के बदले में रिश्वत मांग रहा है। मैंने इस अवैध काम में असहयोग करने की ठान ली।

"मेरे पास टिकट के लिए पैसे नहीं है और मैं आपके भ्रष्टाचार में कदापि सहयोग नही करूँगा।" मैंने दृढ़ता से कहा।

'अगर मुझे कायरता और हिंसा में से किसी एक चुनना पड़े तो मैं निःसन्देह हिंसा चुनूँगा'

गांधीजी की ये उक्ति शायद बस कंडक्टर ने भी सुन रखी थी और उसने यह उक्ति मेरे ऊपर चरितार्थ करने का बीड़ा उठा लिया।

बस में मेरे साथ खूब धक्का-मुक्की करने के बाद उसने मुझे धीमे चलती बस से बाहर धकेल दिया।

अस्तव्यस्त कपड़ों के साथ मैं अपनी मंजिल के करीब ही खड़ा था, वह भी अपने सबसे महंगे गांधी के साथ। मैंने 2000 की नोट पर छपे गांधीजी को बड़े गौर से देखा, उनकी मुस्कान मुझे व्यंग्यात्मक लगी लेकिन मुझे गर्व था कि मैंने सफलतापूर्वक गांधीजी के तीनों सिद्धांतो को साधन के रूप में अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए प्रयोग किया था।

परसों जब दादी के मरने की खबर मैंने अपने बेटे को दी थी, तो फोन पर उसकी प्रतिक्रिया बेहद ठंडी थी।

"पापा ..जो भी कर्मकांड है आप तीन दिन में निपटाकर सीधा मेरे कॉल सेंटर पर आकर मिलो, वर्कलोड ज्यादा होने की वजह से मैं तीन दिन तक अपने ऑफिस से हिल भी नही सकता।" फोन पर अपने बेटे का यह संदेश सुनने के बाद मैं सारे कर्मकांड निपटाकर उसकी परदादी की उसके लिए आखिरी निशानी लेकर उसके कॉलसेंटर के ऑफिस में पंहुच चुका था।

"यह 2000 का नोट तेरी परदादी तेरे लिए देकर गई है।" मुस्कुराते हुए गांधी को मैंने अपने बेटे के हाथों में सौंपा।

नेपथ्य में मानो कहीं गाना बज रहा था।

'हम लाये हैं तूफानों से किश्ती निकाल के...'

"यह वही है न ? 1959 का मार्टिन लूथर किंग जूनियर वाला?" वह ठठाकर हँस पड़ा।

मैं उसके चहेरे पर दादी की मौत का गम ढूंढता रह गया।

"अरे...दिनेश इधर आ जरा!" उसने अपने साउंडप्रूफ ऑफिस का दरवाजा जरा-सा खोलकर आवाज दी।

दिनेश उस आवाज के साथ ही रिसेप्शन से तुरंत ऑफिस में दाखिल हुआ।

"दिनेश..यह लो और एक ब्लैक डॉग का हॉफ लेकर आओ।" वह दादी का मुस्कुराता हुआ गांधी अब दिनेश के हाथों में था।

"आज हम पापा-बेटा दादी के मुक्त होने की खुशी में साथ बैठकर पियेंगे।"

दादी की श्रद्धांजलि के साथ ही हमने शायद गांधीजी के विचारों को भी तिलांजलि दे दी थी।

मेरा तो साधन ही दूषित था, तो साध्य को दोष देकर क्या फायदा ?

गांधीजी तो हमेशा मुस्कुराते ही रहेंगे।


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