Anil Makariya

Inspirational Thriller Children

4.7  

Anil Makariya

Inspirational Thriller Children

ब्लैकबोर्ड

ब्लैकबोर्ड

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453


आसान की चाह में कठिन को ख़ारिज कर देना, हममें से अधिकतर की आदत में शुमार है और मैं अपनी यह कमजर्फ़ी बेशर्मी से स्वीकार भी कर लेता हूँ।

सातवीं क्लास में था और किसी रोज मेरा ज्यामिति बॉक्स चोरी हो गया या फिर शायद मेरी लापरवाही से गुम हो गया होगा। मैंने क्लास टीचर को बताया तो उन्होंने स्कूल के चपरासी को तलब किया, उस दौर में 'खोया-पाया विभाग' घंटी बजाने वाले चपरासी के मत्थे मढ दिया जाता था और यह चपरासी खोई हुई चीजें अगर मिल जाये तो खुद रख लेते और ना मिले तो कुछ दिन रुक जाने की नसीहत देकर मामले को रफा-दफा देते।

इस चपरासी ने भी क्लास टीचर और मुझे आश्वासन देकर मेरे ज्यामिति बॉक्स का मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया।

अब आगे मुसीबतें मेरे लिए तैयार खड़ी थी। मेरे ज्यामिति बॉक्स गुम होने की बात मेरे घरवालों से अधिक समय तक छुपी नहीं रहने वाली थी और अगर मैं खुद ही बता देता कि ज्यामिति बॉक्स चोरी या गुम हो गया है, तो चार बच्चों की पढ़ाई व अन्य खर्चों से चरमराती घर की अर्थव्यस्था वाली मीनार मेरे ऊपर ही ढह जाने वाली थी और मैं तब अपने बाप के प्रचंड उपदेशों को सहने करने लायक उम्र तक तो पहुँचा भी नहीं था। कठिन को खारिज करके आसान अपनाने वाले मेरे दिमाग ने अपना काम करना शुरू कर दिया था।

मैंने दो दिनों तक सहपाठियों के ज्यामिति बॉक्स का छुपकर अवलोकन किया और उनमें से दो ज्यामिति बॉक्स को अपने गुम हुए बॉक्स के समान चेहरे-मोहरे के रूप में चिन्हित किया।

न तो मेरे घर के संस्कार मेरे सोचे हुए को सही ठहरा रहे थे और ना ही मेरी संगत ने कभी ऐसा कुछ करने के लिए उकसाया था लेकिन उस समय मेरे लिए यह एक आसान व नई चीज़ थी जिसके जरिये मैं अपनी खोई हुई चीज़ बिना किसी मेहनत अथवा मानसिक प्रताड़ना के वापस प्राप्त कर लेता।

अगर आपको लग रहा है कि मैं अपने किसी सहपाठी के ज्यामिति बॉक्स की चोरी करने की योजना बना रहा था तो आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं !

मेरे द्वारा चिन्हित दो बॉक्स में से एक चाय की गुमटी चलाने वाले के बेटे 'तोलाराम' का था तो दूसरा बॉक्स फुटपाथ पर नेलपॉलिश और बिंदिया बेचने वाले के बेटे 'दिनेश' का। मेरे दिमाग ने चोरी का वक्त किसी शुभ मुहूर्त की भांति ग्रह-नक्षत्रों के आवागमन को ध्यान में रखकर निकाल रखा था जोकि स्कूल का मध्यावकाश था।

मध्यावकाश में स्कूल के अधिकतर बच्चे या तो अपने क्लास रूम से बाहर टिफिन खा रहे होते या फिर आपस में खेल रहे होते और मेरे लिए यही इकलौता समय था जब मैं उन दोनों में से किसी एक के बस्ते से ज्यामिति बॉक्स चुपके से निकाल लेता।

मध्यावकाश होते ही मैं सोचे हुए मुताबिक अपने सहपाठियों के साथ क्लास रूम से बाहर आ गया ताकि मेरे अकेले के क्लास रूम में रुकने से किसी को शक न हो । कुछ देर बाद जब सभी अपने क्रियाकलापों में व्यस्त हो गए तो मैं वापस क्लास रूम में पहुँचा और बड़ी ही आसानी से दिनेश के बस्ते से ज्यामिति बॉक्स निकालकर अपनी पेंट की जेब के हवाले किया । जब सरलता से मिली यह कामयाबी मेरे माथे पर चढ़ गई तो मैंने तुरत-फुरत तोलाराम के बस्ते से भी ज्यामिति बॉक्स निकालकर अपनी दूसरी जेब में घुसेड़ दिया।

मैंने पूरे क्लास रूम व उससे बाहर झाँकती खिड़कियों पर नजरें घुमाकर यह तस्दीक कर ली कि कोई मुझपर नजरदारी तो नहीं कर रहा और फिर मैं बिजली की तेजी से क्लासरूम से बाहर निकल आया। मैंने पहले ही सोच रखा था कि फौरी तौर पर मुझे इन बॉक्स को कहाँ रखना है ? ताकि स्कूल से छुट्टी मिलने के बाद मैं वह अपने बस्ते में डालकर घर ले जा सकुं । मैंने स्कूल परिसर से बाहर निकलते ही नजदीक की सब्जी मंडी की ओर दौड़ लगा दी और मेरे लिए 300 मीटर की यह दौड़, गुनाह की ओर पहली या अंतिम दौड़ साबित होने वाली थी। सब्जीमंडी में मेरा एक दोस्त था जो अपने माँ-बाप के साथ सब्जी बेचता था मैंने दोनों ज्यामिति बॉक्स उसे दे दिए यह बोलकर की मैं दोपहर को आकर लेकर जाऊंगा।

मध्यावकाश के कुछ समय बाद ही तोलाराम व दिनेश ने मेरी उम्मीद के मुताबिक अपने ज्यामिति बॉक्स गुम होने की शिकायत क्लास टीचर के पास दर्ज करवाई और क्लास टीचर ने अपनी सहानुभूति उनके साथ-साथ मेरे साथ भी जतलाई क्योंकि उनके मुताबिक तो ज्यामिति बॉक्स गुम होने का सिलसिला तो मुझसे ही शुरू हुआ था।

मैंने घर जाते समय दोनों बॉक्स उस सब्जीमंडी वाले दोस्त से वापस तो ले लिए लेकिन अब यह आसान कामयाबी आत्मा को कचोटने लगी थी।

जिस कठिनाई को खारिज़ करके मैंने यह आसानी चुनी थी, अब वह कठिनाई मुझे इस कामयाबी से बेहतर लग रही थी। पता नहीं क्यों ? चंद घंटों में ही मेरी कामयाबी वाली ख़ुशी काफ़ूर हो गई और मैं सोच में डूबने लगा।

'सब्जीमंडी वाला मेरा दोस्त अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर अपने माँ-बाप के साथ सब्जी बेचता है और तोलाराम या दिनेश के माँ-बाप भी स्कूल की फीस माफ करवाने के बावजूद बड़ी मुश्किल से उन्हें पढ़ा पाते हैं लेकिन फिर भी कभी तोलाराम, दिनेश या सब्जी बेचने वाले उस दोस्त ने सिर्फ अपने माँ-बाप की डाँट के डर से चोरी जैसा नीच काम नहीं किया है जबकि इन सभीके माँ-बाप तो कई बार इन्हें न केवल डांटते हैं बल्कि मार भी बैठते हैं और मैं अपने पिता की मामूली समझाइश के डर से चोरी जैसा घिनौना काम कर बैठा हूँ !'

उस रात शायद मैं सो नहीं पाया था और सुबह जब स्कूल पहुँचा तो दोनों ज्यामिति बॉक्स मैंने क्लास टीचर को यह कहते हुए सुपुर्द कर दिए कि मुझे वह पीने के पानी की टंकी के पीछे रखे हुए मिले।

क्लास टीचर ने जब मुझसे पूछा कि "क्या तुम्हें तुम्हारा ज्यामिति बॉक्स नहीं मिला?"

मैंने 'ना' में सिर हिला दिया।

तोलाराम और दिनेश की खुशी उनके चेहरों पर झलक रही थी।

मैंने अपनी माँ को बतला दिया कि मेरी लापरवाही की वजह से मेरा ज्यामिति बॉक्स गुम हो गया है और मुझे अब नए ज्यामिति बॉक्स की जरूरत है।

माँ ने पहले तो नकली गुस्सा दिखाया और फिर खुद के बचाये पैसों में से मुझे नए ज्यामिति बॉक्स के पैसे देते हुए कहा "अपने पापा को मत बताना की तुमने अपना ज्यामिति बॉक्स खो दिया।"

वैसे किसी भी ज्यामिति बॉक्स में हमें वह टूल नहीं मिलेगा जो नापकर बता सके कि किस दौर के किस निर्णय ने आगे हमारी जिंदगी को कितना आसान बनाया अथवा कितना कठिन ?

जिंदगी की आसान दिखने वाली राहों में ही सबसे मुश्किल पड़ाव होते हैं।


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