जलन
जलन
"अमृता मुझे जानती है मैं अमृता को। दुनिया मे एक ही आदमी काफी है आपको जान ने के लिये।"
- इमरोज
मैने जब से पढा है , इमरोज को खुद मे घूमता देखने लगी हूँ।सोच रही हूँ कि कोई और इमरोज जैसा हो सकता है? शायद नही , पता नही । मगर ये जज्बात कहीं मुझमे भी हैं । अक्सर मेरी पसंदीदा महिला किरदार "झल्ली" अपने करीबियों से यही कहती मिलती है-
"ज्यादा लोग क्यूँ चाहिये तुम्हे?!"
वाकई, मुझे लगता है कि दुनिया है तो मेले भी होंगे,उनमे शिरकत भी होगी मगर वीराने मे आप जिसको ढूंढते हैं ,वो ही आपका इमरोज होता है।
अमृता, साहिर के लिये दीवानी थीं मगर साहिर चाह कर भी अपना न सके । अप्ने खयालों मे एक गुस्ताखी कर रही हूँ की शायद साहिर के बाद अमृता के जीवन मे इमरोज का आना किसी रोते बच्चे को मां की गोद मिलने जैसा रहा होगा।
और एक ख्याल ये भी है की साहिर की आंच ने अमृता को इमरोज के संग किसी एक नाम मे बन्धने से रोका होगा। शायद वो हर पाकिज़ा रिश्ता जीती होंगी 'अपने इमरोज़' के साथ।अपने अन्तिम दिनो मे एक जगह इमरोज़ से फिर मिलने पर खुद ही वो इमरोज़ को कहती हैं -
मैं तुझे फिर मिलूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहींमैं तुझे फिर मिलूँगी!!
-अमृता प्रीतम
इधर जब इमरोज़ को पढ़ती हूँ तो सच कहूँ एक इमरोज़ , अपने अन्दर अमृता के साथ बैठे , बतियाते देखती हूँ। इमरोज़ किस स्तर पर अमृता से जुड़े थे ये उनकी कविता मे कितनी सहजता से दिखता है,जो उन्होने अमृता के लिये लिखी थी ।
लोग कह रहे हैं...
लोग कह रहे हैं उसके जाने के बाद
तू उदास और अकेला रह गया होगा
मुझे कभी वक़्त ही नही मिला
ना उदास होने का ना अकेले होने का ..
. वह अब भी मिलती है
सुबह बन कर शाम बन कर
और अक्सर नज़मे बन कर
हम कितनी देर एक दूजे को देखते रहे हैं
और मिलकर अपनी अपनी नज़मे ज़िंदगी को सुनाते रहे हैं।
-इमरोज़
अमृता मुझे जलन होती है आपसे और इमरोज़ से। कहां से लाये थे तुम दोनो अपनी- अपनी रूहें या कहूँ दिल।कैसे बचाये रखा तुमने अप्ने बीच का प्यार। इतना प्यार की अमृता की रुखसती पर भी अमृता रुखसत नही हुई इमरोज़ की दुनिया से।
और इमरोज़ आप को कितना कुछ पूछना है मुझे ,आपके ही बारे मे। कभी किस्मत मेहरबां हुई तो आपसे मिल "अमृता" को गले लगाऊंगी। हाँ, "अमृता" को , क्यूँकी जितना पढा है आपको, ये जान रही हूँ की तब अमृता इमरोज़ थी अब इमरोज़ ही अमृता है ।या शायद मैं यहां भी गलत हूँ , " इमरोज़-अमृता" कहां अलग थे कभी।
हाल मे मैने जब पढा की अमृता पीछे स्कूटर पर बैठ कर ,आपकी पीठ पर "साहिर- साहिर " लिखती थीं और किसी ने आपको पूछा की आपको बुरा तो नही लगता था ? तो आपका जवाब मुझे रूला देता है, , सच आपकी बन्दगी करने को जी करता है ।
" मुझे बुरा क्यूं लगता,मेरी पीठ भी उसकी, नाम भी उसके मनचाहे का ।"
कुछ तो है जो आपसे मेरा मन जोड़ता है, काश की आप दोनो को एक साथ रूबरू देख पाती।