जीवन यात्रा
जीवन यात्रा


"रुक जाइए पापा, मत जाइए।"
"हां पापा! मत जाइए। आपके बिना अच्छा नहीं लगेगा। घर गृहस्थी में छोटी-मोटी बातें तो लगी ही रहती हैं।"
"दादाजी, क्या आप सचमुच चले जाएंगे।"
लेकिन हरि नारायण शुक्ला ने किसी की नहीं सुनी। वे अपने कपड़े और कुछ जरूरी सामान लेकर ओल्ड एज होम में चले आए। उन्हें लगता था कि उनके बेटा-बहू उनका तिरस्कार और अपमान करते हैं। दरअसल कुछ माह पूर्व ही उनके अभिन्न मित्र सूर्य कुमार टंडन के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा था। उन्होंने अपने जीवन भर की कमाई, जो लाखों की चल-अचल संपत्ति के रूप में थी अपने तीन बेटों और दो बेटियों के बीच बांट दी थी। जब तक सम्पत्ति पर उनका स्वामित्व रहा तब तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चला। परंतु जैसे ही उन्होंने बंटवारा किया उनकी संतानों का व्यवहार बदल गया। अब उन्हें पहले जैसा सम्मान मिलना बंद हो गया। यही बात हरि नारायण शुक्ला के मन में बैठ गई और उन्हें छोटी-छोटी बातें खटकने लगीं। स्थिति यहां तक आ पहुंची कि हरि नारायण शुक्ला ने अपने मित्र के पास ओल्ड एज होम में रहने चले गए। हालांकि सूर्य कुमार टंडन ने उन्हें समझाने की कोशिश भी कि उन दोनों की परिस्थितियां भिन्न-भिन्न हैं। हरि नारायण की एकमात्र संतान है उनका बेटा और वो उनका सम्मान भी करता है। हरि नारायण की बहू भी उनकी अच्छी तरह देखभाल करती है। और पोता... वो तो सारे दिन उन्हीं के आगे-पीछे घूमता रहता है। जबकि उनकी पांच संतानें, पांच बहू-दामाद और दस पोते-पोतियां हैं। पांचों परिवारों के बीच आपसी खींचातानी चलती रहती है जिसके कारण उनकी पांचों संतानें उनकी देखभाल नहीं करती। फिर भी हरि नारायण समझ न सके। अपना हरा-भरा सुखमय संसार पीछे छोड़कर यहां चले आये। सप्ताह भी नहीं बीता था कि उनका बेटा संदीप सपरिवार उनसे मिलने के लिए आया था।
"पापा, घर चलिए। आपके बिना घर काटने को दौड़ता है।"
उसने रुआंसे से स्वर में कहा।
"मैं वापस नहीं आऊंगा।"
बहू नीलिमा ने मनाने की कोशिश की।
"पापा, हमसे कोई ग़लती हुई हो तो हमें बताइए। हमें सजा दीजिए, मगर वापस चलिए।"
"मुझे नहीं लगता कि मुझे तुम लोगों को किसी तरह की सजा देनी चाहिए। तुम लोग समझदार हो, स्वयं अपने आप को सुधार लोगे, ऐसा मुझे विश्वास है।"
पोते बिट्टू ने कहा-
"दादाजी, आप नहीं हैं तो मेरे साथ कोई नहीं खेलता। सारे दिन अकेले मैं बोर हो जाता हूं।"
जवाब में हरि नारायण ने बिट्टू के सिर पर हाथ फेर दिया। संदीप आँसू बहाता वापस लौट गया। हरि नारायण संदीप और उसके परिवार को जाते हुए देखते रहे। जब वे कुछ दूर चले गए तब हरि नारायण ने अपनी दोनों हथेलियां अपने बेटे के परिवार की तरफ करके कहा-
"मेरे बच्चों, सदैव सुखी रहो।"
और अपनी आंखों पर चढ़े चश्मे को उतार अपने दाहिने अंगूठे के कोरों से आंखों में छलक आये आंसूओं को पोंछा। यह देख उनके मित्र ने कहा-
"ये क्या? तुम्हारी आंखों में आँसू क्यों? यदि परिवार से बिछड़ने का इतना ही दुख है तो घर वापस क्यों नहीं चले जाते। तुम्हारे बेटा-बहू खुद तुम्हें बुलाने आये थे। वे तुम्हारा सम्मान भी करते हैं। फिर क्यों इस ओल्ड एज होम में पड़े हो। ये जगह तुम्हारे जैसे लोगों के लिए नहीं है। ये जगह तो हमारे जैसों के लिए है। जो अपने परिवार में तिरस्कृत जीवन जीते हैं।"
"तुम नहीं समझोगे।"
"ऐसा क्या है जो तुम समझाओ और हमारी समझ में न आए?"
"सच जानना चाहते हो।"
"हां!"
"तो सुनो। मैं इस ओल्ड एज होम में इसलिए नहीं आया कि मेरे बेटा-बहू मुझे परेशान करते हैं। बल्कि इसलिए आया हूं कि मैं एक प्रयोग कर रहा हूं।"
"प्रयोग!... कैसा प्रयोग?"
"अच्छा बताओ... इस ओल्ड एज होम का कांसेप्ट कहां से आया है?"
"शायद यूरोप से। क्योंकि वहां की संस्कृति एकल परिवार की है। लोग शादी करते हैं, उनके बच्चे होते हैं, बच्चे जैसे ही थोड़े बड़े हो जाते हैं उन्हें बोर्डिंग स्कूलों में भर्ती करा दिया जाता है, बच्चे बड़े होते हैं। अब तक वे भी अकेले रहने के आदी हो जाते हैं। अपना जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं। शादी करते हैं और फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है।"
"यूरोप की संस्कृति के बारे में तो ठीक कहा मगर ये ओल्ड एज होम की परम्परा हमारे देश की बहुत पुरानी परम्परा है। हां इसका नाम कुछ और था और इसका स्वरुप भी।"
"मतलब?"
"हमारे ऋषि-मुनियों को मानव मनोविज्ञान का बहुत अच्छा ज्ञान था। वे मनुष्य के व्यवहार को भली-भांति जानते थे। पीढ़ियों के टकराव का भी उन्हें भली प्रकार ज्ञान था। इसलिए उन्होंने मनुष्य जीवन को चार आश्रमों में बांट दिया था। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। जन्म से पच्चीस वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य, पच्चीस से पचास तक गृहस्थ, पचास से पचहत्तर तक वानप्रस्थ और अंत में पचहत्तर से मृत्यु पर्यन्त संन्यास। एक सद् गृहस्थ अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के बाद वानप्रस्थी हो जाता था। वानप्रस्थ आश्रम में रहते हुए मनुष्य अपने-आप को धीरे-धीरे समाज और अपने परिवार से काटना शुरू करता था। सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन का भार अपनी संतानों पर डालना शुरू कर देता था। इससे जहां एक तरफ संतानों में अपने उत्तरदायित्वों के प्रति चेतना जागृत होती थी वहीं दूसरी तरफ उनकी समाज के प्रति समझ भी बढ़ती थी। इस अवस्था तक आते-आते मनुष्य का शरीर भी कमजोर पड़ने लगता है। अब वह श्रम करने लायक नहीं रहता। लेकिन उसकी मानसिक अवस्था उच्च स्थिति में होती है। इसीलिए वानप्रस्थियों को केवल मार्गदर्शन और ईश्वाराधन का काम सौंपा गया था। यह एक सुलझी हुई और वैज्ञानिक प्रक्रिया थी। परंतु मध्य काल में आयी संस्कृतियों ने भारत की श्रेष्ठ परम्पराओं का नाश किया। फलत: आज जब हम अपने शरीर के ढल जाने के बाद भी अपना घर-परिवार नहीं छोड़ते तब हमारे और हमारी संतानों के बीच वहीं टकराव शुरू हो जाता है जिसे हम पीढ़ियों के टकराव के नाम से जानते हैं।"
"तो क्या तुम ये कहना चाहते हो कि मेरे बेटे-बेटियों ने जो किया वो ठीक था और मैं गलत था?"
"इस प्रश्र का औचित्य ही नहीं उठता यदि तुमने समय रहते वानप्रस्थी जीवन स्वीकार कर लिया होता।...
और मेरी एक बात तुम भूल रहे हो... मैंने अपनी बात शुरू करते ही कहा था कि मैं एक प्रयोग कर रहा हूं।...
याद आया?"
"हां, याद आया।"
"साल भर तक मैं यहां हूं। इस बीच देखूंगा कि मेरे परिवार की मानसिक स्थिति क्या होती है। यदि उन्होंने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया तो फिर मैं उन्हें सारी स्थिति को समझाकर आगे संन्यास की तरफ बढ़ जाऊँगा। नहीं तो एक वर्ष और दूँगा अपने परिवार को। यानी अधिक से अधिक दो वर्ष। इसके बाद हर अवस्था में संन्यास।"
संदीप बीच-बीच में अपने पिता से सपरिवार मिलने आता रहा। हर बार उसने कोशिश की कि उसके पिता घर वापस लौट चलें। लेकिन हरि नारायण नहीं लौटे। मगर आठ माह बीत जाने के बाद न संदीप आया और न ही उसका परिवार। हरि नारायण ने भी उसे नहीं बुलाया। साल पूरा हो जाने पर हरि नारायण ने संदीप को फोन करके अपने पास बुलाया। संदीप आया। साथ में नीलिमा और बिट्टू भी आये। आते ही संदीप ने अपना सर पिता के घुटनों पर रख दिया। देर तक रखें रहा। हरि नारायण ने बड़े प्यार से उसके सर को सहलाते रहे।
"मुझे बहुत खुशी है पापा कि आपने घर चलने का फैसला कर लिया।"
संदीप ने कुछ देर बाद पिता के घुटनों से सर उठाते हुए कहा।
"नहीं बेटा! मैंने तुम्हें यहां इसलिए नहीं बुलाया कि मुझे घर वापस चलना है।"
संदीप और नीलिमा ने एक-दूसरे को देखा। दोनों की आंखों में प्रश्नसूचक भाव थे।
"मैंने तुम्हें यहां अपना फैसला सुनाने के लिए बुलाया है।"
"फैसला! कैसा फैसला?"
"देखो बेटा, तुम बहुत अच्छी तरह जानते हो कि मुझे भारत की प्राचीन संस्कृति में अटूट विश्वास है। उसी का पालन करते हुए मैं साल भर पहले वानप्रस्थ जीवन बिताने यहां आ गया था। अब मैं आगे संन्यास आश्रम में प्रवेश करना चाहता हूं। इसलिए मैं सारी मोहमाया का त्याग कर आगे जाना चाहता हूं। अभी हफ्ता-दस दिन मैं यहां और हूं। इस बीच मुझसे जहां कहीं साइन करवाना हो करवा लो। फिर पता नहीं मौका मिले ना मिले।"
रो पड़ा संदीप।
"पापा, हमें आपका साइन नहीं आशीर्वाद चाहिए।"
"आशीर्वाद तो रहेगा ही बेटा। मगर मैं चाहता हूं कि तुम एक आदर्श पुत्र की तरह मेरी इच्छा पूरी करो।"
"पापा, आपको घर पर नहीं रहना था, हमने इच्छा न होने पर भी स्वीकार कर लिया। लेकिन अब ये संन्यास की बात!..."
"इसे भी स्वीकार कर लो।"
"आप जायेंगे कहां?"
"अभी कुछ सोचा नहीं। शायद उत्तराखंड या हिमाचल के किसी अंदरूनी इलाके में जा बसूं। अभी कुछ कह नहीं सकता। हां इतना कह सकता हूं कि कुछ लोगों को तुम्हारा पता अवश्य दे दूंगा। ताकि मेरे अंत समय में तुम मेरे प्रति अपने अंतिम कर्त्तव्य का पालन कर सको। बीच-बीच में तुम्हें अपने पास बुलाता रहूंगा ताकि तुम लोग मेरे और मैं तुम लोगों के हालचाल से परिचित हो सके।"
कहकर हरि नारायण संदीप के जवाब का इंतजार करने लगे। मगर संदीप ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर के बाद हरि नारायण ने पुनः कहा-
"ठीक है बेटा! तुम यदि धर्मसंकट में हो तो मैं तुम्हें उससे भी मुक्त कर देता हूं। ... एक सप्ताह बाद मुझसे मिल सकोगे?"
"पापा, आप जब कहेंगे मैं आ जाऊँगा।"
"तो ठीक है एक सप्ताह बाद आ जाना।"
संदीप कुछ देर और रुका फिर वापस लौट गया। एक सप्ताह बाद जब संदीप अपने पिता से मिलने आया तो हरि नारायण ने उसे कागज़ का एक पुलिंदा पकड़ा दिया।
"क्या है ये?"
"मेरी वसीयत की कॉपी। मैंने सबकुछ तुम्हारे और बहू के नाम कर दिया है।"
संदीप समझ चुका था कि अब उसके हाथ में कुछ भी नहीं है। विधि का विधान समझकर उसे पिता की इच्छा को स्वीकार करना ही होगा।
हरि नारायण अपनी आगे की यात्रा पर निकल गये।