जीत हार
जीत हार
युद्ध के मैदान में लाशों के ढेर लगे थे। इस ढेर में दोनों पक्षों के सैनिकों के शव थे। गिद्धों का झुंड उन्हें नोच खाने के लिए मंडरा रहा था। किसी को भी उनकी फिक्र नहीं थी। जीतने वाले राजा और उसके सैनिक जीत का जश्न मना रहे थे। हारा हुआ राजा अपने बचे हुए सैनिकों के साथ युद्धभूमि छोड़कर भाग गया था।
एक सन्यासी कई राज्यों में घूमता हुआ इस राज्य में आया था। वह राजधानी के अंदर जाना चाहता था। इसके लिए उसे उस युद्धभूमि से गुज़रना था जो भीषण रक्तपात का गवाह थी। शाम ढल रही थी। गिद्ध लाशों को नोचकर खा रहे थे। भीषण दुर्गंध के कारण वहाँ से गुज़रना कठिन हो रहा था। सन्यासी विचलित हो गया था। वह जल्दी से जल्दी उस जगह से भाग जाना चाहता था।
वह तेज़ कदमों से चल रहा था तभी किसी सैनिक के कराहने की आवाज़ कानों में पड़ी। आवाज़ सुनते ही सन्यासी के पैर रुक गए। उसने आवाज़ की दिशा में कान लगाए। इस बात का अंदाजा लगने के बाद कि आवाज़ कहाँ से आ रही है वह उस तरफ बढ़ गया। वहाँ कई शवों के नीचे एक घायल सैनिक कराह रहा था। सन्यासी ने शवों को हटाकर उस घायल सैनिक को अलग किया।
सैनिक की उम्र बहुत कम थी। ऐसा लगता था जैसे कि कुछ ही समय पहले युवावस्था में कदम रखा था। उस घायल सैनिक ने कराहते हुए पानी पीने की इच्छा जताई। सन्यासी ने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई। लेकिन पानी मिलने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आई। सन्यासी ने सोचा कि पानी के लिए पास की बस्ती में जाना पड़ेगा। पर उस घायल सैनिक को इस तरह छोड़कर नहीं जा सकता था। वह सैनिक इस वक्त मंडराते हुए गिद्धों से अपनी रक्षा नहीं कर सकता था।
सन्यासी के लिए उसे कंधे पर उठाकर ले जाना संभव नहीं था। वह सोचने लगा कि क्या किया जाए ? उसी समय एक घोड़ा वहाँ आ गया। शायद उसका स्वामी लाशों के ढेर में ही कहीं था। सन्यासी ने इसे ईश्वर का संकेत माना। घायल सैनिक को किसी तरह उस घोड़े की पीठ पर लादा। उसकी लगाम पकड़ कर पैदल किसी बस्ती की तलाश में आगे बढ़ गया।
कुछ दूर चलने के बाद एक बस्ती दिखाई पड़ी। सूरज डूब चुका था। अंधेरे की चादर ने हर चीज़ को ढक लिया था। वह मानव बस्ती थी पर वहाँ श्मशान जैसा वीराना था। कहीं किसी घर से दीपक का प्रकाश नहीं आ रहा था। सिर्फ क्रंदन के स्वर बता रहे थे कि मकानों के भीतर जीवित लोग हैं। सन्यासी ने एक घर का दरवाज़ा खटखटाया। एक स्त्री ने अंदर से ही पुकारा,
"कौन है ?"
"एक संन्यासी हूँ माँ। मेरे साथ एक घायल है। उसके लिए जल चाहिए।"
कुछ देर में दरवाज़ा खुला। एक स्त्री बाहर आई। उसके एक हाथ में दीपक और दूसरे हाथ में जलपात्र था। सन्यासी उस घायल सैनिक को घोड़े से नीचे उतार चुका था। उसने जलपात्र लिया और उस सैनिक को पिलाने लगा। तभी उस स्त्री ने जलपात्र को छीनते हुए कहा,
"शत्रु को पानी नहीं पिलाने दूँगी।"
सन्यासी को आश्चर्य हुआ। उस स्त्री ने कहा,
"इसकी पोशाक पर इसके राज्य का चिन्ह है। इन लोगों ने हमारे राज्य की शांति भंग की है। इसे लेकर यहाँ से चले जाइए।"
"माँ यह एक घायल सैनिक है। जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा है। इसकी सहायता करना ही धर्म है।"
"मुझे यह सब नहीं सुनना है। इन लोगों के हाथों मेरा बेटा मारा गया। कल ही उसका दाह संस्कार किया था। अपने पुत्र के हत्यारे के प्राण नहीं बचाऊँगी मैं।"
वह अपने घर के भीतर जाने लगी। सन्यासी ने उसके पैर पकड़ कर कहा,
"माँ इसे ऐसे मत छेड़िए। जो हुआ इसकी इच्छा नहीं थी। यह तो अपने राजा के आदेश से युद्ध कर रहा था। आपका पुत्र नहीं बच सका। लेकिन आप इसे बचा सकती हैं।"
तभी घर के भीतर से एक पुरुष बाहर आया। वह अस्वस्थ लग रहा था। उसने कहा,
"शुभा तुम एक वैद्य की बेटी और पत्नी हो। बीमार और घायल का उपचार और सेवा करना तुम्हारा कर्तव्य है।"
शुभा कुछ पल अनिर्णय में रही। फिर जलपात्र सन्यासी को पकड़ा दिया। सन्यासी ने घायल सैनिक को पानी पिलाया।
सन्यासी उस घर में रहकर घायल सैनिक की सेवा करने लगा। वैद्य ने उपचार के लिए औषधियां प्रदान कीं। शुभा उन्हें भोजन कराती थी। कुछ ही दिनों में सैनिक स्वस्थ हो गया।
स्वस्थ होने के बाद उसने सन्यासी से पूछा कि वह किस प्रकार यहाँ आया ? उसके प्राण कैसे बचे ? सन्यासी ने उसे सारी बातें बताईं। सब जानकर उसका मन अपने रक्षकों के लिए कृतज्ञता से भर गया। पर युद्ध की विभीषिका के बारे में जानने के बाद मन में ग्लानि उत्पन्न हुई। अपने परिवार की परंपरा निभाते हुए वह सैनिक बना था। अपने राज्य के प्रति कर्तव्य निर्वहन की भावना से वह युद्ध में उतरा था। उसने विपक्षी दल के कई सैनिकों को मारा था। अंत में खुद घायल हो गया था।
उसके राजा ने सिर्फ राज्य विस्तार के लिए इतना रक्तपात किया। लोगों के घर उजाड़े। इस बात ने उसका मन वितृष्णा से भर दिया। उसे अपने राज्य की जीत अर्थहीन लगने लगी। रात भर उसके मन में एक झंझावात चलता रहा। भोर के समय उसके मन में एक निर्णय ने जन्म लिया।
सन्यासी शुभा और वैद्य से विदा लेकर सैनिक के पास आया। उसने कहा,
"चलता हूँ पुत्र। तुम भी अब अपने परिवार के पास चले जाना।"
सैनिक सन्यासी के पैर पकड़ कर बोला,
"आपने मुझे जीवन दान दिया है। नए जीवन के साथ इसे एक नई दिशा दी है। अब मैं आपकी दिखाई राह पर चलूँगा। मानव सेवा ही अब मेरा धर्म है। सारा संसार मेरा परिवार। मुझे आशीर्वाद दीजिए।"
सन्यासी ने उसे आशीर्वाद दिया। फिर निकल गया।
सैनिक कुछ समय तक वैद्य और उसकी पत्नी के साथ उनके पुत्र की भांति रहा। जब वह कुछ संभल गए तो वह समाज सेवा के अपने संकल्प के साथ वहाँ से चला गया।