झाँकियाँ और चुनौतियाँ (लघुकथा)
झाँकियाँ और चुनौतियाँ (लघुकथा)
नवरात्रि की 'एक झांकी' के समानांतर एक और झांकी! नहीं, एक नहीं 'तीन' झांकियां! मां दुर्गा की 'स्थायी झांकी' में चलित झांकियां! चलित? हां, 'चलित' झांकियां! उस अद्भुत संदेश वाहिनी झांकी से प्रतिबिंबित अतीत की झांकियां, उसके समक्ष खड़ी हुई सुंदर युवा मां के सुंदर कटीले बड़े से नयनों में! उसके मन-मस्तिष्क में! दुर्गा सी बन गई थी वह उस जवां मर्द के शिकंजे से छूट कर और कुल्हाड़ी दे मारी थी उस वहशी के बढ़ते हाथों पर! दूसरे धर्म का था वह दुष्ट! जाति-बिरादरी के मर्दों के हाथों बेमौत मारा जाता वह! उसके पहले ही उसने उस निर्लज्ज को सबक़ सिखा दिया था! हां, वह भी नवरात्रि का ही अवसर था! परिचित ही था, पर जम कर पिये हुए था। फंस गई थी उसके जाल में, लेकिन बचा गई स्वयं को ऐसी ही झांकियों के असरात से! भला हो याक़ूब का, उसने न सिर्फ निकाह में लिया, बल्कि उस पर कभी कोई शक और सवाल भी नहीं किया! सात साल बाद मायके आई, तो अपने दोनों बच्चों को लेकर अम्मी-अब्बू को बताये बग़ैर माथे पर बिंदी लगाकर पड़ोस में स्थापित नवरात्रि की झांकी देखने चली तो आई, लेकिन डरी-सहमी सी! सटी हुई खड़ी उसकी पहली संतान यानि बिटिया भी वैसी ही किसी अज्ञात भय के साथ सहमी सी व डरी हुई थी कि अम्मी-अब्बू या कोई मुसलमान कहीं उन्हें यहां खड़े हुए देख न ले! विसंगति यह थी कि उसकी दूसरी संतान यानी गोदी में एक खिलौने से खेलता उसका बेटा, झांकी, रौशनी और चहल-पहल देख, मंद-मंद मुस्करा रहा था धर्मों की विसंगतियों से बिल्कुल ही अनजान!
"डर मत मेरी बच्ची! तुम्हें मुझसे भी ज़्यादा मज़बूत और सच्ची हिन्दुस्तानी लड़की बनना है!" उस महिला ने बेटी के मौन को भंग करते हुए कहा - "अच्छी बातों का इल्म और तालीम जितनी जल्दी जिन ज़रियों से हो जाये, उतना ही अच्छा! तुझे तो नये और पहले से बहुत बुरे ज़माने से जूझना है रे!"
बिटिया अपनी मां के बदन से चिपक कर मां दुर्गा की संदेश वाहिनी झांकी का मुआयना उस नज़र से करने लगी, जिस नज़रिए से उसकी अम्मीजान मां के रूपों को उसे मज़हबी कहानियों के मार्फ़त समझाया करतीं थीं।
