जड़ से जड़ तक
जड़ से जड़ तक
आज कई वर्षों के बाद जब अपने गांव गई तो काफी कुछ बदला दिखाई पड़ा। कच्ची सड़क अब खड़ेंजे वाली हो गई थी, तंग्री की जगह गाडियां , टिमटिमाते बल्ब और भी बहुत कुछ। पर नहर देखकर अच्छा लगा, वही नहर आज भी सबकी जीवनदायिनी बनी हुई है। घर की ओर बढ़ते एक - एक कदम में अपना घर, गुड्डे - गुड़ियों का खेल, पेड़ों से लटकना, आम के बाग में पूरी दोपहर बिताकर एक - एक आम के गिरने का इंतजार करना, घर के पिछवाड़े में बड़ा सा बरगद का पेड़, उसकी ठंडी छांव, उसके आस - पास छुपामछुपाई खेलना,कितना कुछ था करने को...।
पूरी दोपहर खेलते - बात करते बीत जाती। अपने बाबा को देखती तो लगता वह हमारे परिवार के लिए बरगद की छांव बने हुए है। हम अपने दुख - परेशानी उनके सिर डालकर निश्चिंत होकर उनकी छांव में खेलने लग जाते। जब से बाबा गए, बस तब से सपनों में, ख्यालों में उनसे बातें करती और जब गांव आती तो इस बरगद से पेड़ से।
सब कहते इस जड़ से बात करके क्या मिलता है तुम्हें ? ये कोई बोलता थोड़े ना है। और मैं मुस्कुरा देती। घर पहुंचते ही सामान रखकर मैं पिछवाड़े की तरफ तेज क़दमों से जाने लगी, वैसे ही पीछे से आवाज़ आई, " कहां जात हो बिटिया ?
अब उ वहां नहीं है। आौकी जड़ें बहुत गहरा गईं थीं, घर में आए गई थी, अंदर ही अंदर, पता ही नहीं लगा। जैसीन पता लाग, कटवा दिए।" मैं सन्न रह गई, उसकी जड़ें ही तो मेरे जड़ जीवन को जीवन दे रही थीं। अब इसकी जड़ें बढ़ी तो कटवा दिया। मेरी आंखों के आगे वही बरगद, बाबा, दुख - सुख एक एक कर के आने लगे।
