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Saroj Verma

Horror

4  

Saroj Verma

Horror

इन्तज़ार

इन्तज़ार

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सन् 1980 की बात है,तब मेरी तुलसी ग्रामीण बैंक में नई - नई नौकरी लगी थी, मेरी पोस्टिंग एक छोटे से कस्बे में हुई, मैं पहली बार घर से और अपनों से दूर जा रहा था।

बस क्या था, बोरिया-बिस्तर बांधा और निकल पड़ा, थोड़ा बहुत जरूरत का सामान भी ले लिया,उस समय घर से सम्पर्क में रहने का एक मात्र साधन चिट्ठी ही होता था,आते समय मां ने कहा बेटा चिट्ठी जरूर लिखना, हमारी जिंदगी में एक मां ही होती है जिसे हमारी सबसे ज्यादा परवाह होती है,जब तक हम उनके पास रहते हैं,उस समय तक तो नहीं लेकिन जब हम उनसे दूर जाते हैं तब हमें मां की अहमियत पता चलती है__

मां ने कहा "तुझे तो खाना भी बनाना नहीं आता,तू कैसे रहेगा मेरे वगैर",मां की आंखों में आंसू देखकर मेरा भी दिल भर आया, लेकिन नौकरी पर भी जाना था, ज्यादा भावात्मक होने से काम चलने वाला नहीं था, तो मैं चला गया।

ट्रेन स्टेशन पहुंची, मैं अपना बिस्तरबंद और संदूक लेकर नीचे उतरा,छोटा सा स्टेशन, अभी भी उस स्टेशन में ब्रिटिश जमाने की झलक थी, सिंगल लाइन थी पटरी की,स्टेशन के उस बगल खेत थे, और इस तरफ किनारे की ओर पीपल के पेड़ लगे थे, दो-चार बेंच पड़ी थी, पीने के पानी के लिए एक हैंडपंप लगा था, जहां ट्रेन रूकते ही पानी के लिए भीड़ लग जाती थी, दो-तीन मूंगफली वाले मूंगफलियां बेच रहे थे और एक बूढ़ी औरत टोकरी में अमरूद बेच रही थीं,स्टेशन देखकर अच्छा लगा, मैं प्लेटफार्म छोड़ कर बाहर आया, बाहर एक -दो छोटी सी दुकानें थीं, जहां चाय, पकोड़े और समोसे मिल रहे थे, मुझे थोड़ी सी भूख लग रही थी, मैंने दुकान से दो समोसे और एक चाय खरीदी और वही बैठकर चाय पी और समोसे खाकर एक रिक्शा रोका, और रिक्शेवाले से तुलसी ग्रामीण बैंक चलने को कहा।

मैं बैंक पहुंचा,मैनेजर से मिला और नौकरी ज्वाइन कर ली, मैनेजर साहब बोले,आज आप आराम कीजिए कल सुबह से आइए और जब तक आपको कोई कमरा नहीं मिल जाता,तब तक आप आफिस का एक रूम खाली है, वहां रह सकते हैं।

दूसरे दिन आॅफिस खत्म होने के बाद, हमने मतलब मैं और एक मेरे सहकर्मी ने कमरा ढूंढना शुरू किया, चूंकि वो वहां के बारे में मुझसे ज्यादा जानते थे और उन्हें कस्बे के बारे में जगह भी पता थी जहां मुझे कमरा मिल सकता था और ज्यादातर शाम को अपने घर पर मुझे साथ में ले जाते थे डिनर के लिए,वो फैमिली वाले थे और लंच भी मेरे लिए ले आते थे, मुझे अच्छा लगता था कि पराई जगह,पराये लोग,इतने अपने से हो जाते हैं, मैंने घर चिट्ठी भी भेज दी थी कि मैं ठीक से पहुंच गया हूं, अभी ऑफिस में ही रह रहा हूं, कमरा नहीं मिला।

फिर एक दिन मुझे एक कमरा मिल गया जो कि ऑफिस से थोड़ा दूर था, उसके बगल में एक पुराना सा टूटा-फूटा घर था,लग रहा था कि सालों से ना तो इसमें रंग-रोगन हुआ है और ना मरम्मत, और आस-पास ना तो कोई घर था और ना दुकान, सुनसान सी जगह थी,कमरा भी सस्ता था,महंगे किराये वाला घर मेरे बजट से बाहर था,सो मैंने घर ले लिया, जो मकान-मालिक थे, उनकी दुकान थी उस जगह,दो कमरे थे एक में उनकी दुकान थी और दूसरा खाली पड़ा था तो उन्होंने मुझे दे दिया छोटा सा आंगन था,आंगन में हैंडपंप था पानी के लिए,स्नानघर और शौचालय भी वही था, आंगन में एक लोहे का जाल था, जिससे रोशनी आती थी, कुल मिलाकर कमरा अच्छा था, मकान- मालिक भी बस दिनभर ही दुकान में रहते और शाम को अपने घर चले जाते जो कि शहर में था,शाम को मैं अकेला ही होता था उस घर में, कुछ दिन तो मैं बाहर ही खाना खाता रहा लेकिन बाहर खाना महंगा पड़ रहा था, फिर धीरे धीरे मैंने थोड़ा बहुत समान जुटा लिया, ऑफिस मेरे लिए दूर पड़ता था तो मेरे सहकर्मी ने मुझे अपनी साइकिल देदी,बोले अभी लेलो, मेरे लिए तो ऑफिस पास है,जब अपनी खरीद लेना तो वापस कर देना, साइकिल की वजह से आना-जाना मेरे लिए आसान हो गया।


फिर एक शाम मैंने सोचा,क्यो ना आज घर पर ही कुछ खाना बनाते हैं,शाम को ऑफिस के बाद मैंने बाजार से कुछ समान ख़रीदा,आटा,दाल,चावल और मसाले,सब्जी मंडी से कुछ सब्जियां खरीदी,हरी मिर्च, धनिया,पालक, आलू, टमाटर और बैंगन,घर आया,हाथ मुंह धोकर कपड़े बदले, फिर स्टोव पर चाय बनाई, अंदर थोड़ा बंद बंद लग रहा था तो मैंने सोचा चाय छत पर जाकर पीते हैं, छत पर जाने के लिए खुली सीढ़ियां थी कोई दरवाजा नहीं था, दरवाजे की जरूरत भी नहीं थी वो ऐसे ही खुला ही अच्छा था ,उस दिन पहली बार छत पर गया था,छत पर थोड़ा अंधेरा हो गया था, सोचा चलो चाय के साथ-साथ एक सिगरेट भी पी लेंगे, मैंने सीढ़ियों पर बैठ कर पहले चाय पी फिर सिगरेट सुलगाई और खड़े होकर घूम-घूमकर छल्ले बना रहा था, तभी बगल वाली छत पर सफेद साड़ी में एक महिला दिखी, उनके घर की छत और मेरे घर की छत आपस में जुड़ी हुई थी, छोटी सी दीवार थी केवल आड़ के लिए, कोई भी एक-दूसरे की छत पर आसानी से जा सकता था,जो तुलसी के पौधे की पूजा कर रही थी, उन्होंने तुलसी के पांच चक्कर लगाये, दिया जलाया और मेरे पास आई प्रसाद देने,उन्हें देखकर मैंने सिगरेट बुझा दी, उन्होंने प्रसाद दिया, मैंने ले लिया।

उन्होंने पूछा कि नये आए हो इस घर में!

मैंने कहा, "हां चाची जी,"वो मेरी मां की उम्र की थी तो मुझे, उन्हें चाची कहना उचित लगा।

उन्होंने कहा कि," बेटा सिगरेट पीना सेहद के लिए अच्छा नहीं होता,"

मैंने कहा, "जी चाची जी'

उस समय छोटे, बड़ो की बहुत इज्जत करते थे, मुझे थोड़ी झेंप लगी,उन्होंने थोड़ी औपचारिक बातें की और वो जाने लगी,तो मुझे ध्यान आया कि उनसे सब्जी बनाना पूछ लूं!

मैंने कहा, "चाची जी रूकिए, ये बता दीजिए कि पालक आलू की सब्जी कैसे बनाते हैं?"

वो मुस्कुराई और बताने लगी, बोली कि कोई परेशानी हो तो रात को यहीं मिलूंगी लेकिन दिन के समय नहीं। मैंने उनके बताये, अनुसार सब्जी बनाई, सब्जी तो अच्छी बनी लेकिन नमक थोड़ा ज्यादा हो गया।अब रोज़- रोज़ यही सिलसिला हो गया, चाची जी अपनी छत पर पूजा करने आती और मैं भी छत पर ही चाय पीने चला जाता, उनसे सब्जी बनाना सीखता और नीचे आकर खाना बनाता, चाची से बात करके मुझे अच्छा लगता था, उनमें मुझे मेरी मां की झलक दिखाई देती थीं,घर की याद कम आती थी।

एक दिन,पता नहीं ऑफिस से आने के बाद मेरी बहुत तबियत खराब हो गई,आते ही मैं सीधा बिस्तर पर लेट गया, बहुत तेज बुखार हुआ, मैंने कुछ भी नहीं खाया, इतनी हिम्मत ही नहीं थी कि कुछ बना लूं, मैं बस ऐसे ही लेटा रहा।लेकिन रात के समय, मुझे याद नहीं कि कितना समय था, सीढ़ियों से किसी के आने की आवाज आई, देखा तो चाची जी थी, उन्होंने दूध गरम करके, मुझे दिया और मेरे माथे पर रात भर गीली पट्टियां रखती रही, जिससे मुझे आराम लग गया और गहरी नींद आ गई, सुबह मेरी आंख खुली तो मेरे कमरे में कोई नहीं था।

दूसरे दिन रविवार था , मुझे ऑफिस नहीं जाना था, मैंने कुछ गंदे कपड़े धुले, थोड़ा पोहा और चाय बनाकर मकान-मालिक की दुकान पर जा बैठा, थोड़ी देर बातें करने के बाद, मैंने उनसे पूछा कि हमारे बगल वाले घर में कौन रहता है?

उन्होंने कहा कि, "पहले एक बूढ़ी औरत और उसका बेटा रहा करते थे,बेटे की नौकरी दूसरे शहर में लग गई, बेटा बाहर चला गया, लेकिन उसनेे अपनी मां को ना तो कोई खबर दी और ना उसकी खबर पूछी,वो बूढ़ी औरत रोज डाकिए से पूछती थी कि मेरे बेटे की कोई खबर आई, लेकिन अभी कुछ महीनो से वो बूढ़ी औरत दिखाई नहीं दी, फिर एक दिन डाकिया कुछ मुआब्जे के कागज़ात लाया, उसने दरवाजा खटखटाया लेकिन किसी ने नहीं खोला, तो डाकिया मेरे हस्ताक्षर करा कर कागज़ात मुझे दे गया, वैसे किसी के कागज़ात खोलने नहीं चाहिए, लेकिन मुझे लगा कि कुछ जरूरी ना हो और बूढ़ी औरत को पढ़ना भी नहीं आता था तो मैंने खोलकर देख लिए, उनमें लिखा था कि ट्रेन दुर्घटना ग्रस्त हो गई है, और उनका बेटा नहीं रहा,मुआब्जे के तौर पर इतने रूपए दिए जाते हैं, मैंने कई बार दरवाजा खटखटाया लेकिन किसी ने नहीं खोला, शायद नौकरी पर जाते वक्त ही बेटे की ट्रेन दुर्घटना ग्रस्त हो गई, इसलिए बेटा कोई खबर नहीं दे पाया।"

मुझे कुछ अजीब लगा, मैंने सोचा उनके घर जा कर देखता हूं,मैं छत पर गया और सीढ़ियां उतरकर नीचे गया, उनकी सीढ़ियों पर भी कोई दरवाजा नहीं था,तीन कमरों का घर था, अगल-बगल कमरे बीच में आंगन और छत से रोशनी आ रही थी,दो कमरों को खोलकर देखा तो कुछ नहीं दिखा,तीसरा कमरा खोला तो एक कंकाल सफेद साड़ी में लिपटा बिस्तर पर पड़ा था, शायद अपने बेटे का इंतजार करते-करते उनके प्राण निकल गये थे, उन्हें मुझ में शायद अपना बेटा दिखता था, इसलिए वो मेरे पास आतीं थीं, मैंने उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया, ताकि उनकी आत्मा को शांति मिल सके।



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