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इंतजार किसका

इंतजार किसका

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आज बैंक में इंसपेक्शन का काम होने से शिवा को घर पहुँचने में देरी हो गई है। उसे बड़ा अफसोस हो रहा है, पति और बेटी के खाने का टाइम हो चला है। वह रेस्तराँ से पनीर की सब्जी खरीद लेती है, रोटी खुद बना लेगी। शिवा थकी हारी जैसे ही घर पहुँचती है, उसके पति बरस पड़ते हैं-

"ये कोई समय है घर आने का, दफ्तर जाती हो या फिर मौज-मस्ती करने जाती हो।"

"आप को बताया तो था बैंक में इंस्पेक्शन चल रहा है।" देरी हो जायेगी शिवा ने विनम्रता से कहा।

"ये सब बहाने हैं घर देरी से आने के, अब खड़ी-खड़ी मुँह क्या देख रही हो, भूख लगी है, जल्दी से खाने की व्यवस्था करो। हद दर्जे की बेवकूफ है, इसे घर का कोई ख्याल ही नहीं है।"

कह कर धड़धड़ाते हुए कमरे में चला गया। शिवा की दस साल की बेटी दूर खड़ी सब सुन रही थी। शिवा रसोई में जाकर रोटी बनाते हुए सोच रही है। आज यदि आशुतोष जिम्मेदारी उठा लेते तो क्या बिगड़ जाता, रोज तो मैं करती ही हूँ, बेटी पास आकर खड़ी हो जाती है। माँ-बेटी दोनों ने सजल आँखों से एक-दूजे को देखा,आखिर बेटी ने मौन तोड़ा-

"माँ आप ये सब क्यों सहती हो, कल भी पापा ने सब्जी में नमक कम होने को लेकर गाली गलोच किया, यहाँ तक कि कटोरी फैंक दी, फिर भी आप चुप रहीं। ये रोजाना का अपमान आखिर आप कैसे सह लेती हैं, क्या सब पुरुष ऐसे ही होते हैं माँ ? यदि हाँ तो मैं शादी नहीं करूँगी।"

"नहीं बेटी, सभी पुरुष ऐसे नहीं होते, सिर्फ कुछ पुरूष ऐसे होते हैं जिनके चलते नारी आगे नहीं बढ़ पाती, स्वाभिमान से नहीं जी पाती।"

उस रात शिवा सारी रात सोचती रही, वह घर की सारी जिम्मेदारी उठाती है, बेटी का होम वर्क करवाती है, छुट्टी के दिन साफ सफाई, राशन लाना, कोई मेहमान आये उसकी आवभगत करती है, बच्ची बीमार हो जाये उसकी देख रेख करती है। आशुतोष छुट्टी वाले दिन या तो सो जाता है या दोस्तों के यहाँ निकल जाता है, फिर भी आशुतोष का ये मिजाज, आखिर क्यों, मैं चुपचाप सह लेती हूँ इसलिए। उसकी बेटी ठीक ही तो कह रही है। उसने कभी सोचा न था कि उसकी बेटी के मन पर इस रोज-रोज की चिकचिक का इतना ज्यादा असर पड़ रहा है, पिता के इस रूप को देख उसे पुरूषों के प्रति नफरत हो चली है। अपनी पढ़ाई भी ढंग से नहीं कर पा रही है, उसने तय कर लिया कि इस कलह व अन्याय से भरे वातावरण से अपनी बिटिया को बचायेगी। इस अशांत जीवन से बाहर निकल कर वह अपनी बेटी के साथ शांति की जिंदगी जियेगी।

अगले दिन एक नई सुबह हुई। उसने हिम्मत बटोर कर साफगोई के साथ पति को अपना फैसला सुना दिया-

"मैं आज अपनी बेटी के साथ बैंक से मिले सरकारी आवास में रहने जा रही हूँ।"

पति भोंचक्का रह गया ! सोचा नाराजगी के कारण कह रही है, सचमुच थोड़े ही ऐसा करेगी। इतने सालों से सह रही है, वह अनसुनी कर अपने काम पर निकल गया।

शिवा का जैसे नया अवतार हुआ था, आज दफ्तर के लिए निकली नये आत्म विश्वास के साथ। चेहरे पर स्वाभिमान भरी मुस्कान, सीना तना हुआ, सुनहरे भविष्य पर नजर। दफ्तर में जैसे ही प्रवेश किया, उसके इस नये अदांज से सब चौंक गये।

उसने चपरासी से आवास प्राप्ति के लिए फार्म मँगवाया, सामान पैकिंग के लिए छुट्टी की अर्जी लिख ही रही थी कि उसकी सहकर्मी उदास चेहरा लिए आ गई और बोली- "रात फिर मेरे पति ने शराब पी कर फिर से उदंडता की, बेटी पर भी हाथ उठाया।"

शिवा ने उसे समझाया- "इंतजार किसका, कौन आकर तुम्हारे निर्णय लेगा, कौन तुम्हें अन्याय से बचायेगा, तुम खुद और कोई नहीं, अपने हक के लिए खुद लड़ो। मैंने तो आज निर्णय ले लिया है, अपनी बेटी के साथ अलग रहूँगी, बहुत हुआ, अपनी बेटी को क्या यही अन्याय सहने की विरासत देकर जाऊँगी, नहीं।"

शिवा अपने निर्णय के मुताबिक बेटी को लेकर सरकारी क्वाटर में शिफ्ट हो गई। शाम जब आशुतोष घर पहुँचा शिवा और बेटी को ना पाकर हैरान रह गया। इसका मतलब शिवा सच कह रही थी, उसने कर दिखाया। अगली शाम वह पत्नी शिवा से मिलने पहुँचता है लेकिन बात कैसे शुरू करे, कुछ समझ नहीं पा रहा था, क्योंकि वो जानता था कि शिवा के स्वाभिमान को उसने कदम-कदम पर ठेस पहुँचाई है। घर की हर जिम्मेदारी से मुँह मोड़ा है, उसकी नाराजगी वाजिब है, वह बेटी से मिल कर चला गया।

शिवा और आशुतोष की अरेंज मेरिज थी, शिवा नौकरी करती है यही देख के तो शादी की थी उसने। उसे सर्विस क्लास लड़की चाहिए थी किंतु पत्नी की नौकरी ही उसके इन्फीरियरटी कम्पलैक्स का कारण बन गई, क्योंकि शिवा बैंक में पी ओ थी और आशुतोष बैंक क्लर्क। हालाँकि ब्रांच अलग थी, जब भी किसी पार्टी में जाते यार दोस्त सदैव महेश को छेड़ते- "यार भाभीजी आफिस में तो तेरी बाॅस है क्या घर पर भी।" कोई भी प्रयोजन हो आशुतोष से ज्यादा इज्जत शिवा को मिलती, यह भी उसे अच्छा नहीं लगता। वह अपनी खीज बिना किसी कारण शिवा पर उतारता, शिवा ज्यादा तूल नहीं देती, अपनी बेटी की खातिर सब सह लेती। धीरे-धीरे आदत पड़ गई किंतु उसकी बेटी के कोमल एहसास ने उसे आज सोचने पर मजबूर कर दिया।

आखिर एक दिन आशुतोष ने अपनी बेटी को कहा- "बेटे, माँ को समझाओ घर चलो।"

"नहीं पापा, हम यहाँ सुकून से हैं, आप के व्यवहार से हम तंग आ गये थे, आप रोज किसी न किसी बहाने माँ को अपमानित करते रहते थे। आखिर माँ क्यों सहे, वो भी तो एक इंसान है, उनके सीने में भी एक दिल धड़कता है, उन्हें भी सम्मान से जीने का हक है, आप माँ की खुशियाँ छीन रहे थे।"

वह लौट गया। उसे एक बड़े सच का एहसास आज बेटी ने करा दिया। सचमुच वह पुरुष होने के नाते अपने आप को प्रभुता व दर्प के फ्रेम में फिट करके बैठा था, परिवार प्रेम से विश्वास से चलता है, पत्नी व बच्चों को पौरूष के साथ स्नेह व सहयोग की भी जरूरत है जो वह देने में असमर्थ रहा। उसने ये सब कभी सोचा ही नहीं।

अगली शाम वह दर्प का चोला उतार कर एक पति व पिता बन कर अपनी बेटी और पत्नी से मिलने पहुँचा।पौरूष के भार से दबा उसका मानव सुलभ एहसास आज जाग गया था। आँखों में नमी, चेहरे पर पश्चाताप के भाव थे। पिता के इस रूप को देख बेटी पिघल गई-

"यदि ये सच है पापा तो हम सब साथ रहेंगे लेकिन आप को मेरे सर पर हाथ रखकर कसम लेनी होगी कि आप माँ की बेइज्जती कभी नहीं करेंगे।"

"हाँ बेटी, मैं वचन देता हूँ, शिवा को उसके सभी हक व मान सम्मान दूँगा, हम सब प्यार से रहेंगे।"

शिवा ने रोज रोज अपमानित होकर जीने के बजाय स्वाभिमान से जीने का मार्ग चुना। आखिर उसके पति को एहसास हुआ कि पत्नी का भी स्वाभिमान होता है। अपने परिवार के साथ-साथ शिवा ने कितने ही परिवारों को बिखरने से बचाया। महिलाओं को आत्म सम्मान से रहने की राह दिखाई। परिवार जागृति मंड़ल बनाया। मासिक सभा का आयोजन कर महिला व पुरुष दोनों को सम्मान से जीने की नई दिशा दी। उसका एक ही नारा था। "इंतजार किसका नारी खुद बनेगी आशा की किरण।"

उसके इस प्रयास में पति ने उसका साथ दिया और समाज ने भी खूब सराहा।।


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