इक मुस्कान ख़ामोश सी

इक मुस्कान ख़ामोश सी

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रोज की तरह शाम के 6:00 बजे मैंने फोन लगाया। घंटी तो गई लेकिन किसी ने उठाया नहीं। मैं फिर से चाय की चुस्कियां लेने लगा। और 5 मिनट बाद फिर से फोन लगाया ।

“भाई अभी कुछ दिन मैं नहीं आ पाऊंगा” और उन्होंने फोन काट दिया।

तब मैं सड़क के दाहिनी ओर देखते हुए गुडगांव जाने वाली बस की इंतजार करने लगा।

काफी दिन गुजर गए है उस बात को जब सत्यवान भाई साहब से बात हुई थी और आज जाते हुए अचानक उनकी कैब भी दिखाई पड़ी।

मैंने कहा“ जीतू भाई साहब यह सत्यवान भाई साहब है ना ?”

उन्होंने गहराई से बाई और देखा और कहा "हां यार सत्यवान ही है। आ गया क्या...!"

मैंने पूछा जीतू भैया, “काफी दिन हो गए सत्यवान भाई साहब छुट्टी पर थे क्या ?”

जीतू भैया: "तुझे नहीं पता क्या ?"

मैं : "क्या .... मुझे तो कुछ नहीं पता !"

“अरे भाई इनका एक बड़ा भाई था जो उस दिन हम जा रहे थे तब गाडी चला रहे थे मुझे याद दिलाते हुए जीतू भाई साहब बताने लगे"

'हाँ हाँ ... मुझे भी धुंधला धुंधला याद आने लगा। अच्छा क्या हुआ तो मैंने गंभीरता से पूछा।

'भाई पिछले दिनों इनकी साझे की जमीन का कोर्ट का फैसला आया। जिसमें सत्यवान केस जीत गए तब ही से इनके के चाचा के लड़कों से लड़ाई झगडे चल रहे थे।'

मैं: "अच्छा... फिर ?"

सत्यवान ने चेतावनी भी दी थी उनको कि 'चाचा वाले लड़कों से दूर रहना, ये कुछ भी कर सकते है' मगर उम्र में चाचा वाले बच्चों सत्यवान जी के भाई से काफी छोटे थे की वह सोचते कि मैंने तो उन्हें बचपन में खिलाया है वह मुझे क्या भला क्या करेंगे। अपने ही हाथों से खिलाए बच्चे मुझे क्यों मारने लगे ?

सत्यवान ने हालत देखते हुए छुट्टी की अर्जी दे दी, सोचा कुछ दिन भाई के साथ घर पर रहूंगा। और जिस दिन छुट्टी की अर्जी डालकर सत्यवान घर लौटा तब तक काम हो चुका था। चाचा वाले लडको ने सत्यवान के भाई को ढेर सारी दारु पिला दी और किसी सुनसान जगह ले जाकर उनकी हत्या कर दी। बस वही पुलिस - कोर्ट - कचहरी के चक्कर में था सत्यवान।

मैं: "इनके बच्चे कितने थे भईया ?"

जीतू भैया : "दो छोटे छोटे बच्चे है भाई।"

आज उन बातो को २० दीन हो चुके है और अब हमारी गाड़ी सत्यवान भाई साहब की गाड़ी के एकदम बराबर आ चुकी है। और जीतू भाई साहब हॉर्न मार रहे है। तभी सत्यवान भाई साहब ने बगल में देखा जहां जीतू भाई साहब गाड़ी चला रहे है। और मैं उनके बगल में बैठा सत्यवान भाई साहब के चेहरे को पढ़ रहा हूँ। तभी उन्होंने अपना एक हाथ उठाया

(नमस्कार वाला) मगर उनके चेहरे पर एक खामोश सी मुस्कान थी जो ना जाने कितने ही दर्द को छिपाएं हुए थी।

सच में आज गुस्सा आता है ऐसे समाज पर जो जमीन जायदाद के लिए इस स्तर तक गिर चुका है कि अपने पराए भाई-बहन, छोटे-बड़े किसी का कोई अस्तित्व नहीं रह गया है। वजूद है तो केवल जमीन-जायदाद-पैसे का।

ये एक असली घटना है जो १६ अगस्त २०१८8 को हरयाणा के किसी गाँव में हुई थी।


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