हज़ारों दीयों की चमक!
हज़ारों दीयों की चमक!
टिंग-टोंग................................ टिंग-टोंग............................... टिंग-टोंग........................................ टिंगटोंग.....................................
सुबह-सुबह दरवाज़े की घंटी बजी। "आज शांता इतनी जल्दी कैसे आ गयी ? रोज़ तो 8 बजे से पहले नहीं आती" ऐसा सोचते हुए मैंने दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही देखा तो सामने श्याम था।
"दीदी, हम कल रात को गांव से वापस आ गए थे। इस्त्री के कपड़े हों तो दे दीजिये" श्याम ने विनम्रता से कहा।
"रुको, अभी लाती हूँ" लॉक डाउन के बाद ज़िन्दगी पटरी पर आने लगी है। मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की पालना करते हुए, अब हम लोग भी तो काम के लिए बाहर जाने लग गए थे। कपड़े भी अब ज्यादा धुल रहे थे। ऐसे में श्याम का लौट आना मेरे लिए राहत की बात थी।
श्याम को मैंने कुछ गंदे कपड़े धोने के लिए और कुछ धुले हुए कपड़े इस्त्री के लिए देते हुए कहा, " शाम को दे जाना। "
"जी, दीदी" श्याम ऐसा कहकर चला गया था।
श्याम एक तो कपड़े धोता अच्छा था और दूसरा वह महीने की महीने हिसाब करकर पैसे ले लेता था, तो रोज़ -रोज़ उसे पैसे देने की मगजमारी से मैं बची रहती थी । हिसाब -किताब के लिए वह अपनी एक डायरी रखता था। उसके हिसाब -किताब में कभी कोई गड़बड़ भी नहीं होती थी। अन्य हमारे जीवन -स्तम्भ जैसे कुक, घेरलू सहायिका आदि की तरह श्याम भी लॉक डाउन में अपने गांव चला गया था और अब लगभग 6-7 महीने बाद वापस लौट आया था।
संध्या के समय श्याम कपड़े तैयार करके ले आया था, मुझे कपड़े गिनवाकर श्याम जाने के बजाय कुछ देर वहीँ दरवाज़े पर खड़ा रहा। मैंने श्याम की तरफ सवालिया निगाहों से देखा तो उसने कहा, " दीदी, सभी कपड़ों के २५० /- रूपये बनते हैं। आप रूपये अभी दे दीजिये न । "
श्याम की बात सुनकर मैंने उसे रूपये देते हुए कहा, " अब कपङे लेने दो दिन बाद आना। "
"जी, दीदी। ",श्याम इतना कहकर चला गया था।
इसके बाद जब भी श्याम कपङे लेकर जाता, उसी दिन हिसाब करकर पैसे ले जाता। एक -दो बार तो मैंने उसे पैसे दे भी दिया, लेकिन अब बार -बार उसी समय हिसाब करने से मुझे चिढ़ होने लगी थी। कभी उसके पास खुल्ले पैसे नहीं होते थे, तो कभी मेरे पास।
मैंने श्याम को एक दिन पूछ ही लिया, " तुम्हारी डायरी कहाँ गयी ?तुम्हें पता है न मुझे यह रोज़ -रोज़ की चिकचिक पसंद नहीं है। लगता है किसी और से बात करनी पड़ेगी। "" अरे दीदी, कम से कम आप तो ऐसे मत करो। पहले ही दो -तीन लोग नाराज़ होकर दूसरे धोबी को लगाने के लिए बोल रहे हैं। ",श्याम ने रुआंसे होते हुए कहा।
" पर श्याम हुआ क्या है ?", मैंने सहानुभूति दिखाते हुए पूछा।
"दीदी, अब आपसे क्या छिपाऊँ। लॉक डाउन के कारण सारी जमा पूँजी ख़त्म हो गयी। अब जब शाम को सबसे पैसे लेकर सीधे राशन की दूकान पर घर के लिए राशन खरीदने जाता हूँ, घर पर राशन पहुँचता है, तब खाना बनता है। रोज़ कुआँ खोदकर पाने पीने वाली स्थिति बन गयी है। उम्मीद है दिवाली के बाद तक कुछ बचत हो जायेगी ;तब पहले जैसे ही महीने के महीने हिसाब करूंगा। दीदी कुछ दिन और यह परेशानी सह लो। ", श्याम ने निराशा भरे स्वर में कहा।
"अच्छा श्याम। तुम्हारी जगह किसी और से बात नहीं करूंगी। ", मैंने कहा।
श्याम की बात मुझे परेशान करती रही। कहीं इस कारण से उसके पुराने ग्राहक टूट गए तो वह कैसे अपना और अपने परिवार का भरण -पोषण करेगा। मैंने अपने पति को श्याम की समस्या के बारे में बताया और फिर हम दोनों ने मिलकर एक निर्णय लिया।
अगली बार जब श्याम कपड़े लेने आया, मैंने उसे १५००० /- देते हुए कहा, " इससे अपने परिवार की भोजन आदि की जरूरतें पूरी कर लेना। अब पहले की तरह ही डायरी रखो और अपना पूरा ध्यान अपने काम पर लगाओ ,नहीं तो मैं किसी और से बात कर लूंगी। "
"दीदी, आपके पैसे ब्याज समेत जल्द से जल्द चुका दूंगा। आपका यह एहसान तो शायद कभी न चुका पाऊं। कम - से कम दिवाली तो सुकून से मन पाऊंगा। ",श्याम ने रूंधे गले से कहा।
"पैसे चुकाने की क्या जरूरत है ?तुम्हें तो मेरे घर के कपड़े नहीं धोने हैं क्या ? उसी में एडजस्ट कर लेना। एहसान -वहसान कुछ नहीं है। एक बार पैसा देकर, कई महीनों की चिकचिक से मुक्त हो जाऊंगी। ",मैंने वातावरण को थोड़ा हल्का बनाने के लिए कहा।
"जी दीदी। ", श्याम ने मुस्कुराते हुए कहा और चला गया।
श्याम की आँखों की चमक ने मुझे दिवाली से पहले ही दिवाली का एहसास दिला दिया था। उस चमक के सामने मुझे शायद हज़ारों दीयों की चमक भी फीकी लगेगी।
मैंने अपने पति से कहा, "तुम बिल्कुलसही थे। हर दीवाली पर हज़ारों रूपये के पटाखे फूंकने पर मुझे उतनी खुशी नहीं हुई थी, जितनी आज श्याम की चमकती और मुस्कुराती आँखों को देखकर हुई।
