हस्ताक्षर
हस्ताक्षर
मैं जानता हूँ कि मेरी ज़िंदगी ने बहुत सारे गलत मोड़ लिए हैं पर कहानी ये मेरी सबसे 'खूबसूरत' गलती थी, मुझे याद हैं।
सचिन 99 पर था और मैं हमेशा की तरह टीवी से चिपका हुआ। माँ किचन में खाना बना रही थी। गरम-गरम खाने के स्वाद से मेरा जी मचल रहा था। पर मेरी गनीमत की अगर मैं एक क्षण के लिए भी अगर टीवी से दूर हो जाऊं। शोएब अख्तर ने दौड़ना स्टार्ट किया। अरे ये क्या? धत ..सचिन बाल-बाल बचा।
"माँ सचिन को क्या हो जाता हैं, 90 पर आकर" मैंने रुआँसे स्वर में कहा तो माँ हँसते हुए बोली -
"अमन तू टीवी बंद कर दे वो सही से खेल पाएगा, उससे ज्यादा टेंशन तो तू लेता हैं"
“माँ तू भी ना...”
तभी दरवाजे की घंटी बजी।
माँ बिजी थी और मेरा उठना मुमकिन नहीं था, गिनती शुरू हो गयी एक...दो...तीन...
"दरवाजा खोल दे अमन"
"माँ अभी नहीं..तू जानती हैं" मैंने अपना ध्यान अगली बॉल पर करते हुए बोला।
आखिरकार माँ दरवाजे की तरफ बढ़ी।
'अरे प्रिया तू!' दरवाजे से माँ की आवाज आयी।
'हाँ ऑन्टी ..अमन हैं क्या?'
'हाँ हाँ वो टीवी देख रहा है, तू जा.. मैं चाय बनाती हूँ तेरे लिए'
प्रिया अंदर आने लगी, मैंने जल्दी से अपने कमरे का रुख किया क्योंकि मैं पर्याप्त कपड़े में नहीं था।
'ऑन्टी अमन तो हैं नहीं"
'अमन... कहाँ हैं तू' माँ ने मुझे पुकारा।
'माँ मैं अभी आया' मैंने अपने रूम से लगभग चिल्लाते हुए कहा।
प्रिया को भी अभी ही आना था। पता नहीं मैच का क्या हुआ, आज फिर 99 पर आउट ना हो जाए सचिन... हट मैं तो देख भी ना पाउँगा। सचिन खेल रहा हो और टीवी बंद हो जाए ..ये दर्द एक क्रिकेट प्रेमी ही समझ सकता हैं
थोड़ी देर बाद टीवी रूम में...
प्रिया हँसे जा रही थी ..और मैं बुरी तरह नर्वस हो रहा था।
"अरे क्या हुआ...मैंने बड़ी मुश्किल से ये शब्द कहे।
"ऑन्टी इधर आइये"
माँ आवाज़ सुनकर अंदर आईं। वो मुस्कुराने लगी। मैंने इशारे से माँ को पूछा आखिर हुआ क्या। उसने मेरे कपडे की तरफ इशारा किया।
फुल शर्ट 'मिस-मैच्ड' फुल पैंट। और रही-सही क़सर मेरे बाल टिपिकल 9० के दशक वाले।
माँ किचन से ही बोली ''इसकी गलती नहीं है प्रिया दिन भर क्रिकेट देखेगा तो दुनियादारी कहाँ से समझेगा"
'ओह्ह..छोड़ो ना माँ फिर से..प्रिया तुम्हे कोई काम था?" मैंने जल्दी निपटने के इरादे से कहा।
'अरे हाँ, इन जाड़े की छुटियों में हमलोग पिकनिक पर जा रहे हैं, हमने प्लान कर लिया हैं तुम आ रहे हो'
'...पर इस मैच-सीरीज का क्या?' मैंने कुछ सोचते हुए धीमे से कहा।
'अरे मैच बाद में देख लेना सोचो कितना मजा आएगा' प्रिया मुझे लालच दे रही थी।
'अरे पर उसके बाद तो एग्जाम स्टार्ट हैं मैंने कुछ पढ़ा भी नहीं हैं और तुम्हारे भी तो एग्जाम होंगे..मत जाओ ना इस बार, अगली बार..पक्का' मैंने तेजी से दूसरा बहाना बनाया।
'मिस्टर अमन...तुम्हे नहीं जाना हैं मत जाओ, तुम यही अपने गंदे सड़े हुए मैच देखो पर हमारे प्लान के बारे में कुछ मत बोलो।' मैं उसके लहजे से आश्चर्य में पड़ गया मैंने सुना था प्रिया तुनक मिजाजी थी पर इतनी जल्दी..
'अरे ऐसा नहीं हैं..मैं तो तुम्हारी भलाई के लिए...'
'चुप रहो अमन..तुम्हे नहीं आना.. बस मैं जा रही हूँ' उसने पुरे गुस्से से कहा।
'अरे पर..' मेरी कोई कोशिश बेकार ही जाने वाली थी। उसने मुड़ के भी न देखा।
माँ ने कहा-'चाय तो पीती जाओ बेटी '
'नेक्स्ट टाइम आंटी श्योर!'
जाते-जाते उसने अपना पूरा गुस्सा दरवाजे पर निकाल दिया।
मैंने टाइम न गवाँते हुए टीवी ऑन किया।
सचिन आउट होकर जा रहा था...स्कोर 99।
मैं धम्म से सोफे पर गिर पड़ा।
---
'कॉफी..' ये उसकी आवाज़ थी।
''क्या..." मैं जैसे नींद में था ।
'तुम्हारी कॉफी...ठंडी हो जाएगी...' उसने दुबारा कहा।
'ओह्ह...'
'क्या सोच रहे हो अमन '
'हमारी पहली मुलाकात...'
उसके चेहरे पर हलकी सी मुस्कान उभर आयी।
सामने प्रिया थी...ये विशाखापट्नम की यार्ड बीच का एक छोटा सा कॉटेज...वक़्त ने आठ साल का सफर पूरा कर चूका था...।
हमारी पहली मुलाकात हालांकि अप्रत्याशित थी पर प्रिया जल्द ही मान गयी थी।
हम जल्द ही अच्छे दोस्त बन गए ..हमारी दोस्ती बढती गयी। हम आज़ाद उड़ते पंछी थे और हमारा छोटा-सा शहर हमारा आसमान और हम अक्सर घंटो बिचरते।
जैसा की अक्सर टीनएज हमारे पहले प्यार का पड़ाव होता हैं, हमारे साथ वैसा ही हुआ, हमारी नजदीकियां बढ़ती गयी। पता नहीं ये गलत हैं या सही पर किसकी हिम्मत हैं की आसमा में स्वतंत्र उड़ते पंछियो को कोई समझाए।
समाज में प्यार की क़ुरबानी हमारे मोहल्लेवालो की कानो से शुरू होती हैं। प्रिया के पिताजी को ये बात पता चली वो पुराने ख्यालात के थे हमारी जाति...ओहदा सब अलग था। अलग से मेरी पहचान एक बिगड़े हुए लड़के की थी बरहराल हमारी नजदीकियां उनको रास न आयी। प्रिया पर पाबंदिया बढती गयी।
दूरिया बढती गयी. मुझे भी पढ़ाई के सिलसिले में शहर से बाहर जाना पड़ा। जब मैं वापस आया तब ये बात चली की प्रिया का पूरा परिवार मुहल्ले से जा चूका था। मैं निराश हुआ।
पर वक़्त शायद सारी मजबूरिया समझता हैं।
आठ साल का सफर..जॉब से मेरी पहली छुट्टी...अकेले बिताने की जिद। विशाखापट्नम के होटल का वो कॉटेज. और हमारी मुलाकात।
बात बात में पता चला की प्रिया की शादी हो चुकी थी पर ससुराल वाले दहेज़ के लिए प्रिया को तंग करते रहते थे। पति का भी सपोर्ट नहीं मिल पता था। बाद में घरेलु हिंसा और रोज-रोज के झगड़ो से तंग आकर तलाक...
प्रिया की कहानी नई नहीं थी पर ये साधारण कहानी होती है जो अगर गलत मोड़ ले तो इसके पात्रो का जीना दूभर हो जाता हैं।
ये प्रिया नहीं थी जो मेरे सामने बैठी थी कहाँ है वो झील जो किसी पर भी बरस पड़ती थी...नदी की जवान धरा सुख गयी थी और कुछ बच गया था तो किनारे बैठकर शोक मनाती हुई रेत।
प्रिया चली गयी।
थोड़ी देर बाद प्रिया के पिताजी अंदर आये।
आते ही फुट-फुट कर रोने लगे।
मैंने सात्वना दिया।
'अमन मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गयी, मैंनेअपनी प्रिया को किनके हाथो में सौपा' बात पूरा नहीं कर पाए।
मैंने एक गहरी साँस ली।
मैंने कुछ निश्चय किया।
'क्या आप मुझे प्रिया को अपनाने देंगे?' ये मेरी क्रूरतम वेदना थी ,पर मैं सहज रहा।
उन्होंने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा। मैं ये जानता था, ये वो इंसान था जिसने पूरी ज़िंदगी मुहब्बत नहीं सीखी थी।
'बेटा अब प्रिया वो ना रही जिसे' मैंने उनका हाथ पकड़ लिया। वो चुप हो गए। उन्होंने सहमति दी।
'बेटा मैं तुम्हे समझ...'
सहमति मिल गयी थी। मैं कॉटेज की सीढिया उतर रहा था। प्रिया बस होटल पहुचने वाली थी।
मैं उसकी तरफ भागा...उफ़...रेत पर भागना कितना मुश्किल होता हैं! निश्चतिता और घबराहट दोनों मेरे साथ थे।
'प्रिया?' मैंने हाँफते हुए कहा
'हाँ अमन'
अब मेरी बारी थी।
'विल यू मैरी मी?'
'क्या?' उसे जैसे विश्वास न हुआ हो
'विल...यू...मैरी...मी' मैंने दोहराया।
उसके चेहरे पर कई भाव आते-जाते रहते। मेरे लिए वो कीमती थे।
उसकी आँखों में आंसू थे। उसने सहमति में सर हिलाया।
मैं जानता था उसकी सहमति हमारे कोरे कागज पर हस्ताक्षर थे बस।
पर आसुओ की कुछ बुँदे पहले ही उस कागज को भिगो चुके थे।
बाहर समुद्र शांत था।
वो भी हमारे मिलन का जश्न मना रही थी शायद।।