हरी यादें
हरी यादें
ठंडी हवा के अहसास और पत्तों पर टप- टप करके गिरती बूंदों के शोर ने मुझे खिड़की के पास खड़ा कर दिया। चाँदी की तीलियों सी गिरती बारिश की बूंदें और फिर पत्तों पर मोती सी चमकती बूंदें हमेशा से मुझे आकर्षित करती रही हैं। मन उदास है लेकिन फिर भी, मौसम की यह पहली बारिश हमेशा की तरह लुभावनी है।
मैं खिड़की से अपना हाथ बाहर निकाल कर हथेली फैला देती हूं और पुरानी सहेली की तरह बारिश की बूंदें तपाक से मुझसे हाथ मिलाने आ जाती हैं। मैं सब कुछ भूल कर मुस्कुरा उठती हूँ और दो पल बाद अपना हाथ अंदर कर लेती हूं।
हथेली में सिमट आई कुछ बूंदों को ध्यान से देखती हूँ और इससे पहले कि वे बूंदें वाष्प बन जाएं या गिर जाएं मैं बिना सोचे- समझे उन्हें आँखों से लगा लेती हूं। आह.... कितना प्यारा अहसास है न, बिल्कुल.... बिल्कुल तुम्हारी उस पहली छुअन जैसा। बारिश की बूंदों से आँखें नहीं भीग पाई थीं, उस कमी को आँसुओं ने पूरा कर दिया जरा सा छलक कर।
मैंने आँखें पोंछने की जरूरत नहीं समझी और फिर से खिड़की की तरफ मुँह कर के खड़ी हो गई। अब बारिश के शोर में एक शोर और शामिल हो चुका था, यादों का। बारिश के साथ ही हरी होती जा रही तुम्हारी यादें मेरे दिलो दिमाग तक अपनी शाखाएं फैलाने लगीं थीं।
मैंने अपनी आँखों के आगे आती टहनियों को थोड़ा हटाया तो दूर सड़क के किनारे खड़ा एक अशोक का पेड़ मुझे साफ दिखने लगा। तुम अपनी मोटरसाइकिल के साथ वहीं खड़े थे.. इतनी बारिश में भी।
पेड़ इतना घना नहीं था कि बारिश से बचा पाता पूरी तरह लेकिन फिर भी, कुछ बचाव तो हो ही रहा था। इतनी दूर से भी मैं देख सकती थी तुम्हारे बालों पर उलझी बूंदों को जो तुम्हारे माथे पर फिसलने का प्रयास कर रही थीं।
मन हुआ तुम्हें आवाज़ देकर बुला लूं लेकिन क्यों दूँ आवाज़? मुझे अकेला छोड़ने का फैसला भी तुम्हारा ही था न! फिर क्यों मैं तुम्हें वापिस बुलाऊँ?
मगर तुम तो चले गए थे न, फिर आज यहाँ...मेरे घर से जरा सी दूरी पर कैसे? शायद यहाँ से गुजर रहे होंगे और बारिश आ गई इस वजह से तो घर भी तो आ सकते थे न! वहां पेड़ के नीचे क्यों खड़े हो गए?
मैं बैचेन हो गई थी। मन नहीं माना तो कॉल कर ही ली। फोन पर जाती हर रिंग के साथ दिल की धड़कन तेज होती जा रही थी। तुम फोन क्यों नहीं उठा रहे? शायद मेरा नम्बर देख कर मुझसे बात नहीं करना चाहते। अब अपने दिल पर मुझे गुस्सा आ रहा था, क्या जरूरत थी कॉल करने की। फोन एक तरफ रख मैंने खिड़की से बाहर देखा। नहीं उस पेड़ की तरफ मैं नहीं देखूंगी मगर एक बार देखने में हर्ज ही क्या है।
मैंने वहां देखा तो उस पेड़ के नीचे कोई नहीं था। बारिश तो अब भी हो रही थी फिर वह इतनी बारिश में कहाँ गया। उसे ढूंढती हुई मेरी नजर जहां तक जा सकती थी चली गई। नीचे वॉचमैन उसी दिशा से छाता लेकर अपने केबिन की तरफ आ रहा था।
" वॉचमैन, वो साहब जो पेड़ के नीचे थे, वह...",आगे के शब्द मेरे गले में ही घुट जाते हैं। मैं क्यों पूछ रही हूं यह, अगर वॉचमैन ने पूछा तो क्या जवाब दूँगी उसे? शायद बारिश के शोर में उसने मेरी बात न सुनी हो।
लेकिन मेरा अंदाज़ गलत निकला। वॉचमैन ने छाते को सिर के थोड़ा पीछे करते हुए ऊपर देखा और नीचे से थोड़ा तेज आवाज़ में कहा," किस साहब की पूछ रही हैं आप मैडम? वहां कोई नहीं था।" और छाता वापिस सही करते हुए अपने आप से बोला ," बेचारी, हर साल बारिश में खिड़की पर खड़ी होकर यही सवाल करती है।"
उसके शब्द मेरे कानों में नहीं पड़े। मैं सोच रही थी कि इतनी बारिश में वह कहां चला गया, रुकने का इंतजार कर लेता लेकिन इंतजार करना ही तो नहीं सीखा था उसने। मैंने खिड़की की तरफ पीठ कर ली थी। कुछ देर ऐसे ही खड़ी रहकर मैंने वापिस खिड़की तरफ मुँह कर लिया और बारिश में नहाई सड़क को देखने लगी। साफ धुली हुई सड़क और धुले हुए पेड़ पौधे और ... और तभी सड़क पर उसकी मोटरसाइकिल दिखी। वह मुस्कुराता हुआ गुनगुनाता हुआ आ रहा था। कोई लड़की उसके पीछे बैठी थी वह भी मुस्कुरा रही थी। मोटरसाइकिल जब उसकी खिड़की के नीचे आई तो उसने ध्यान से देखा, पीछे बैठी लड़की हूबहू उसके जैसी थी और वह गा रहा था, " चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था..."।
इसके आगे मैं कुछ नहीं देख पाई और खिड़की के किनारे पर बेहोश होकर झूल गई।

