होठों की आग
होठों की आग
ताज़ा-ताज़ा गिरी बारिश से तापमान एकाएक नीचे लुढ़क आया था। नए जोड़ों के लिए तो ये वक़्त ही था कि अपनी एक-दूसरे के सामने दिल खोलकर रख दें। मौका पाते ही संजू ने आखिर हेमा को छेड़ ही दिया-
“ठंड नहीं लगती क्या?”
संजू की आँखों में देखते ही हेमा के चेहरे पर शरारती हंसी खेल पड़ी। वो सब साफ-साफ समझ रही थी। जगह-जगह पर साड़ी के झीने ढकाव से बच-बच कर बदन के जो कुछेक हिस्से बीच से झाँक रहे थे, उन पर संजू की नजर को वो ताड़ चुकी थी। दो पल उसने एकदम खामोश रहते हुए संजू को कनखियों से तरेरते हुए घूरा। फिर एकाएक उसके होठ हिले, तो बदन भी खुद-ब-खुद अंगड़ाई में टूट पड़ा-
“अब जो हमको ठंड लगने लगी, तो फिर आप लोगों का क्या होगा?”
संजू आगे कुछ भी जवाब देता उससे पहले ही कानों में घर के दरवाजे की कुंडी खटकने की आवाज पड़ी। एक लंबी साँस खींचकर वो बस इतना ही बोल पाया-
“हम लड़कों को तो यूँ ही बदनाम किया जाता है। अदाओं से मारना तो कोई आप जैसों से सीखे।”
पतिदेव के इस कटाक्ष का हेमा के शर्माहट से मुस्कुरा उठे चेहरे पर केवल एक ही जवाब था-
“कुछ मत सीखो आप, सासू माँ समोसे लेकर आ गयी हैं। आप जाकर दरवाजा खोलो, मैं जाकर चाय चढ़ाती हूँ।” और पतिदेव चुपके से शर्माकर इन शब्दों पर एक कठपुतली की तरह चुपचाप चल पड़े।

