Chandra Prabha

Inspirational

4.6  

Chandra Prabha

Inspirational

हमारे बाऊजी

हमारे बाऊजी

6 mins
450



  इतना विराट् व्यक्तित्व था हमारे बाऊजी का !उसको शब्दों में कैसे सीमित कर दूँ। हमारे सोचने विचारने के तरीक़े पर, व्यवहार पर, अच्छे बुरे की मान्यताओं पर उनके दिए संस्कारों का असर है। इतना प्रेम पूर्वक कोमलता पूर्वक सब सिखाया गया है कि हमें महसूस ही नहीं हुआ हमें कुछ सिखाया जा रहा है। उनका सर्वव्यापक व्यक्तित्व था हमारी नज़रों में। हम समझते थे कि हमारी सारी मुश्किलों का हल उनके पास है, वो जो बताएंगे सही होगा और हमारे हित में होगा। 

किसी के आने पर उनका गर्मजोशी से खड़े होकर हँसकर स्वागत करना ,उसके जाने पर दरवाज़े तक साथ चलकर जाना, उसका पूरा आदर सत्कार करना यह सब सहज स्वाभाविक था। यह सब देखकर हम भी अतिथि को प्रणाम नमस्कार करते और पूरा आदर देते । हम बच्चे बैठे हुए होते तो बड़ों को देखकर खड़े हो जाते और उनके बैठने के बाद बैठते। 

     उन्होंने अपने आदर्श से हम में सादा जीवन उच्च विचार की आदत डाली। कंधे पर जनेऊ, पैरों में खड़ाऊँ , और धोती कुर्ते का पहनावा। धोती भी पतली किनारी की ऊँची क्वालिटी की मुलायम सी। उनका रोबीला चेहरा , गोरा रंग, गुलाबी गाल ,मध्यम क़द था। खड़े होने ,चलने बोलने ,व्यवहार सबमें शालीनता व आभिजात्य की झलक। व्यवहार ऐसा कि मिलने वालों के मुँह से सहसा निकल जाता कि इतनी नम्रता इतनी शालीनता सात पुश्तों के बाद आती है। जो कोई आता उनसे मिलता तो कहता कि आप देवता आदमी हैं। 

     उन्होंने हम को रामायण व गीता पढ़ना सिखाया। नवरात्र के दिनों में कहते कि नौ दिन की रामायण लगा लो। पूरी रामायण पढ़ो ,यह अनमोल ग्रंथ है। उनके कहने पर रामचरितमानस का नवाह्न पारायण किया। जन्माष्टमी पर उनके कहने पर गीता पढ़ते ।और हरिगीता भी पढ़ते , जो गीता का काव्यमय अनुवाद है, श्री दीनानाथ दिनेश जी का किया हुआ। 

    सनातन धर्म मंदिर में रात्रि में रामकथा होती वह भी बाऊजी के साथ सुनने जाते। दशहरे पर रामलीला होती वह भी उनके साथ देखने जाते। फिर जंगल की रामलीला में रावण दहन होता वह भी देखने जाते। वहाँ शहर के सभी गण्यमान्य व्यक्ति आते ,सबसे मेल मुलाक़ात होती। 

     दशहरे पर रात में रामजी की रथ पर सवारी निकलती। सुनहरे रथ में चारों भाई सीता जी और हनुमानजी होते, वह रथ हमारे दरवाज़े पर आकर रुकता। भगवान् के वे स्वरूप हमारे घर में आते ,रथ से उतरकर। हनुमान् जी अपने कंधों पर उनको लेकर आते। उन सबका भव्य स्वागत होता ,आरती होती ,बताशे का प्रसाद बँटता। आरती में घंटे ज़ोर ज़ोर से बजते और पंडित जी के साथ सब मिलकर गाते-

  "आरती करिये सियावर की ,नख सिख छविधर की।श्रवण फूल कुंडल झलकत हैं,चन्द्रहार मोती हिलकतहैं। कर कंकण की द्युति दमकत हैं,जगमग दिनकर की।।"

    उसके बाद भगवान् के स्वरूपों को भोग लगाया जाता , उनको केसर बादाम का दूध, मेवे व मिष्ठान्न . नमकीन परोसे जाते और पान का बीड़ा दिया जाता। 

    जब तक बाऊजी रहे हर मौक़े पर हर तरह की धूम धाम होती रही। दुर्गा पूजा पर आठों दिन पंडितजी देवी का पाठ करते और सप्तमी के दिन हवन होता। घर के सभी सदस्य साथ बैठते। 

   दशहरे की पूजा सब साथ बैठकर करते। पूजन के बाद तॉंगे में बैठकर हम सब नीलकंठ पक्षी के दर्शन के लिए जाते। मान्यता है कि इस अवसर पर नीलकंठ का दर्शन शुभ होता है। 

    होली पर बड़ा अॉंगन होली खेलने वालों से भर जाता, टेसू के फूलों के रंग से होली खेली जाती और घर की बनी मेवों की गुझिया तथा मेवों से मेहमानों का सत्कार किया जाता ।

      रामनवमी शिवरात्रि पर बाऊजी के साथ अपने मन्दिर में जाकर पूजा करते। वहॉं भव्य मूर्तियॉं बनी थीं और मन्दिर की देखभाल के लिये पुजारी थे। जन्माष्टमी पर बहुत सुंदर झॉंकियॉं हमारे सहन के बड़े बरामदे में सजतीं ,इसके लिये पन्द्रह दिन पहिले से ही बाऊजी तैयारियॉं शुरू करा देते।

      कोई एक घटना हो तो बताएँ कि कब हम बाऊजी के साथ ख़ुश थे। यहाँ तो घटनाओं का सिलसिला लगातार था। 

   बाऊजी हमारे होमवर्क में मदद करते । गणित व अंग्रेज़ी पढ़ने में मदद करते। हमारे लिए घर पर मास्टरजी भी पढ़ाने आते। बचपन में खेल खेलने से भी बाऊजी ने कभी मना नहीं किया । हम सब भाई बहिन मिलकर घर के बड़े अॉंगन में गुल्लीडंडा खेलते ,छत पर जाकर पतंग उड़ाते। घर में बैठकर के कैरम खेलते ,भैया कैरम के चैम्पियन थे, सब को अच्छे से कैरम खेलना सिखा दिया। 

    खाने में सब तरह की मिठाई नमकीन घर पर ही बनती। मॉं उसमें सिद्धहस्त थीं। त्यौहारों पर तो स्पेशल बनता ही था। वैसे भी घर में हरसमय घर के बने लड्डू ,मठरी ,पंजीरी ,नमकीन रखे रहते थे एक मिठाई की अालमारी में, जिसका नाम ही हो गया था मिठाई की आलमारी। 

   बग़ीचे से बाऊजी के लगवाये हुए सब तरह के फल घर में आते थे। आम व लीची ख़ूब आते , तो टोकरियों में भरकर सजाकर सब रिश्तेदारों के घर भेजे जाते। बढ़िया बेदाना लीची होती थीं, दसहरी ,कलमी ,सब तरह के आम व अम्बी होती थी,चकईआड़ू,पेशावरीआड़ू,पीलाआलूबुखारा,लालआलूबुखारा ,लौकाट,शहतूत,फ़ालसे, खुबानी, खिरनी,छोटी नारंगी सब घर के बग़ीचे से ही आते थे। 

     बाऊजी अपने गाँव की सैर के लिए हम को ले जाते। वहाँ हम गरम गरम गुड़ बनता हुआ देखते और खाते थे। हाथी पर बैठकर सवारी करते थे। गंगा किनारे डेरा लगता था उस डेरे में रहने का अपना मज़ा था। अपना रसोईया वहीं पर स्वादिष्ट खाना बनाता था। रात में ज़मीन पर पुआल बिछाकर उस पर गद्दे डालकर तब बिस्तरा लगाया जाता था। कोई ऐसा क्षण नहीं था जब हम बाऊजी के साथ ख़ुश नहीं थे। कोई एक मौक़ा नहीं मौक़े ही मौक़े थे। 

    बचपन में चन्दन छठ का व्रत रखा निर्जल। शाम को चन्द्रमा को देखकर व्रत का पारण होता था। बाऊजी हमको चौमंजिले की छत पर ले जाते थे,वहॉं चटाई बिछाकर छत पर बैठते थे। चॉंद निकलने पर बाऊजी अपने हाथ से भीगे हुए बादाम छीलकर हमको खिलाते थे और साथ में गर्म उछाला हुआ ज़ायकेदार दूध। फिर बाक़ी का प्रसाद मिलता था। 

     कर्णवेधन हुआ तो कान बींधने वाला घर पर ही आ गया। बाऊजी ने अपना गोद में हमको बैठाया और बात करते करते कान बिंधवा दिये कि कुछ पता ही नही चला। हमारे दोनों हाथ में उन्होंने एक एक चाँदी का रूपया पकड़ाया था और कहा था कि देखो कैसी तस्वीर है इस पर। फिर वह रूपया हमारा ही हो गया। हॉंलाकि हमें कुछ ख़र्च तो करना नहीं था,क्योंकि सारी फरमायश पूरी हो जाती थी। वह हमारे लिये खेलने की वस्तु थी। 

      बाऊजी को खाने का शौक़ था। पंडित दोपहर की दाल चावल रोटी बनाता ,पर साग सब्ज़ी मॉं ही बनाती थी। थाली लगाना मॉं सिखाती थीं और अच्छी लगी थाली देखकर बाऊजी ख़ुश होते थे। बाऊजी चौके में बैठकर हम सब के साथ भोजन करते थे। हमारे हाथ की बनी चटनी रायते की तारीफ़ करते थे। 

   कटहल का बाऊजी को शौक़ था। बाग़ से कटहल आता था। बाऊजी अपने सामने कटहल कटवाते। अॉंगन में कुर्सी बिछाकर बैठ जाते। कटहल के बीज़ अपने हाथ से अलग करते। बारीक लच्छों में कटहल कटवाते ,बीज़ों का छिलका छुड़ाकर उन्हें भी पतला कटवाते। फिर उसे अच्छे से धोया जाता। अपने सामने अँगीठी रखवा कर कटहल छुकवाते। तब गैस नहीं थी। 

इतनी मेहनत से बनाया कटहल बहुत स्वादिष्ट बनता। देखने में भी आकर्षक होता। सब सब्ज़ी छोड़कर हम कटहल ही खाते। 

बाऊजी को सूजी के हलवे का शौक़ था। उनके लिये हमने हलवा बनाना सीखा। हमारे बनाये हलवे की वे तारीफ़ करते। 

बाऊजी रोटी भी हमसे बनवाकर ख़ुश होते और हमारी टेढ़ी मेढ़ी रोटी की भी तारीफ़ करते। उनकी वात्सल्यमयी देखरेख में हमको कुछ चीज़ें अच्छी बनानी आ गईं। बाऊजी नहीं रहे पर उनकी सिखाई बातें हर पल हमारी मदद करती हैं और अभी भी वे हमारी स्मृतियों में बसे हैं। 


 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational