Raj Shekhar Dixit

Romance

4.6  

Raj Shekhar Dixit

Romance

हमार गौना

हमार गौना

6 mins
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एक बार ऑफिस के काम से मैं वाराणसी से लखनऊ इंटरसिटी एक्सप्रेस से यात्रा कर रहा था। मुझसे तीन सीट दूर 6-7 लड़के और लड़कियों का झुण्ड उसमे बैठा था। वे आपस में जोर जोर से अन्ताक्षरी खेल रहे थे। अन्ताक्षरी मेरी बचपन से कमजोरी रही हैं, मैं उठकर वहाँ गया और उस ग्रुप के लोगों के कहा कि मैं भी उस आयोजन में हिस्सा लेना चाहता हूँ। इस पर एक लड़की में आँखे मटकाते हुए बोली - "ओए होय, जान न पहचान, फिर तू कैसे मेरा मेहमान"। वो लड़की शायद उस ग्रुप की लीडर लग रही थी। इस पर मैंने लज्जाते हुए उस लड़की से कहा- "बहनजी, मुझे अन्ताक्षरी बहुत प्यारा खेल लगता हैं और इसी बहाने पुराने गीतों को याद कर लेता हूँ।"  मेरे इतना सुनते ही उस ग्रुप की एक छोटी लड़की बोल उठी- "दीदी, तुम्हे ट्रेन में एक नया भाई मिल गया, उस बेचारे को भी शामिल कर लो।" उन्होंने मुझे हाँ कह दिया। 


अब क्या था, मुझे उन अजनबियों के बीच अपनी गायकी की प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिला और रफ़ी, मुकेश, मन्ना दे, आदि के दुःख भरे नगमे गाये। करीब 30 मिनट के बाद जब प्रतापगढ़ जंक्शन स्टेशन आया तो अन्ताक्षरी का ब्रेक हुआ और उस ग्रुप के सभी सदस्य आलूबंडा और चाय लेने प्लेटफार्म पर उतर गए। 


सिर्फ वो बहनजी अकेली थी। वो मुझसे शरारती अंदाज़ में पूछ बैठी,- "भाई साहेब क्या आप शादी-शुदा हैं?" मैंने शर्माते हुए जबाब दिया-" जी हाँ। पर आपने क्यों पूछा?" फिर मुस्कुराते हुए जबरदस्त उत्तर दिया - "आपके गाने के अंदाज़ से लग रहा था कि बीबी के सताए हो। प्लीज डोंट माइंड।" मैं बेचारा क्या करता, बोल ही पड़ा-" शादी तो हो गयी पर हमारा गौना नहीं हुआ है, इसलिए बीबी के साथ रहने का अवसर नहीं मिला। बीबी मायके में रहती हैं,  पर गौना नहीं हुआ तो मिल नहीं पाया"। अब उस बहनजी ने मेरे ऊपर तरस खाकर अंग्रेजी में कहा- " What is significance of Gauna these days? "मुझे भी अपने अंगेजी झाड़ने का मौका मिल गया और कहा- " My father in law refused to send my wife as I don't have house now." उसने पूछा,-"आप कहाँ काम करते हैं?" मैंने कहा- "मैं ओबरा थर्मल प्लांट में काम करता हूँ। और बहनजी आप भी कहीं काम करते हैं क्या?" ओबरा सुनने के बाद उसके चेहरे पर एक अजीब चमक आ गयी। फिर चंचलता भरे अंदाज़ में कहा- "शायद हम पहले मिल चुके है, श्रीमान राजमणि शुक्लाजी!"। मैं समझ नहीं पाया कि इसे मेरा नाम कैसे मालूम पड़ गया। 


तब तक बाकी लोग प्लेटफार्म से गाडी के अन्दर आने लगे और अपने अपने जगह बैठने लगे। उसने मुझसे धीरे से कहा- "शुक्लाजी आप मेरे पीछे पीछे दूसरे डब्बे में आइये।" मुझे कुछ समझ नहीं आया और उसके पीछे चल पड़ा। दूसरे कोच में पहुंचकर, जहाँ कोई उसके जान पहचान वाला नहीं था, उसने मुझे अपनी बाहों में भींच लिया और कहा- "बुद्धू कहीं के, गौने तक का इंतज़ार करोगे।" और गाल पे एक चुम्मी दे डाली। एक अचरज भरी चुम्मी के साथ कहानी 3 महीने पीछे चली गयी। 


मैं एक संपन्न परिवार से हूँ। मैंने इंजीनियरिंग पास करने के बाद एक बहुत अच्छे प्रतिष्ठान में नौकरी करना शुरू कर दिया था। चूँकि मेरी पहली पोस्टिंग वाराणसी के एक दूरस्थ ग्रामीण इलाके में हुई थी, मेरे माँ बाप को मेरे खाने पीने की चिंता रहती थी। मैं 24 साल का हो चुका था, इसलिए घर वाले चाह रहे थे कि मेरी जल्दी शादी हो जाए। मेरी माँ ने अपनी जान पहचान वाले एक परिवार के यहाँ मेरी शादी की बात पक्की कर दी थी और मुझे चिट्ठी से सूचित कर दिया था। चूँकि अगले पांच महीने तक कोई शुभ मुहूर्त नहीं था इसलिए माँ ने अगले महीने में मेरी शादी की तिथि भी तय कर दी। चिट्ठी पाते ही मैंने गुस्से में माँ को टेलीग्राम भेजा और पूछा कि मुझे एक बार लडकी को दिखा देना था या उसकी तस्वीर भेजना था। इस पर माँ ने जबाबी चिट्ठी में लिखा- लड़की तो हीरा हैं और तुझे क्या अपने माँ की पसंद पर भरोसा नहीं। खैर शादी तय हो गयी। मेरी होने वाली पत्नी रायबरेली की थी और उसने लखनऊ से M.Sc. किया था। उस लड़की को जानने वाले मेरे एक भैय्या ने बताया था कि वो बहुत तेज तर्रार हैं। गाना बहुत सुन्दर गाती हैं। 


मेरे ससुर काफी रुढ़िवादी और खूंसट किस्म के व्यक्ति हैं। माँ ने मेरे होने वाले ससुर से कहा था कि उनका लड़का यानी मैं प्लांट के हॉस्टल में रहता हूँ और 5-6 महीने में मकान मिल जाएगा। इस बात पर मेरे होने वाले ससुर ने कहा कि वे शादी के बाद अपनी लड़की को अपने पास रखेंगे और जब रहने को मकान मिल जाएगा, उसे गौना के बाद विदा कर देंगे। मेरे ससुर प्राचीन प्रथाओ के प्रगाढ़ समर्थक हैं, इसलिए गौना प्रथा जरूरी थी। खैर मेरी शादी हो गयी। शादी के समय का मेक-अप कुछ ऐसा होता हैं, जो कई बार असल चेहरे से अलग होता हैं। शादी के दौरान हम दोनों ने एक दूसरे को चोरी- छुपे देखना चाहा, पर न मैं उसके चेहरे को अच्छे से देख सका न वो देख पायी। 


शादी तो हमारी हो गयी थी, पर सब बड़ा अजीब सा लग रहा था, कि अपने जीवनसाथी से दो पल भी बातें न कर सका। शादी के बाद मैंने जब माँ से आज्ञा माँगी कि क्या मैं अपनी पत्नी से पत्र के जरिये संपर्क कर सकता हूँ तो उन्होंने कहा था कि समधी बाबू यानि हमारे ससुरजी को ये सब अच्छा नहीं लगेगा क्योंकि गौना होंने के बाद ही पति पत्नी का मेल उचित माना जाता हैं। 


हालाँकि हमारी पत्नीजी चतुर निकली और मेरा पता कहीं से ढूंढकर उन्होंने मुझे पत्र लिखना आरम्भ कर दिया और अपनी एक सहेली का पता भेजा, जिसपर मैं उन्हें जबाब देता रहूँ। पहले ही पत्र में मैंने उनसे कहा कि वे अपनी एक फोटो भेज देंगी ? इस पर उन्होंने बड़े चुलबुले अंदाज में उत्तर दिया- इतनी बैचनी क्यों हैं फोटो के लिए। अब तो जीवन भर का साथ निभाना हैं। क्यों ना हम गौने की रस्म तक एक दूसरे के चेहरे को देखे बगैर इश्कबाजी करते रहे। सच कहूं तो मेरी पत्नी के इस उत्तर से मुझे यकीन हो चला की वास्तव में ये एक हीरा हैं। पत्रों के आने जाने का सिलसिला चलता रहा। लव-लेटर्स लिखने में तो वो माहिर थी, लिहाजा मैंने भी अपने आप को एक सच्चा आशिक बताने के चक्कर में शायरी की किताब खरीद डाली और अपने पत्रों में शेरो-शायरी की भरमार करने लगा। 


"हेलो शुक्लाजी, कहाँ खो गए?" इस आवाज को सुनकर विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं जिससे मिलने बेताब था, मेरा वो हीरा मेरे सामने था। 


फिर हम दोनों उस दूसरे कोच के दरवाजे के पास खड़े होकर, अपने जानने वालों की नज़रे बचाकर एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले हँसते हुए, बाते करते रहे। आसपास के लोग गुजरते हुए हमारी प्रेमलीला को घूर-घूर कर देख रहे थे। कैसे 2 घंटे बीत गए, मालूम ही नहीं पड़ा। रायबरेली आने से पहले उसने कहा-" मेरा खूसट बाप मुझे लेने स्टेशन आ रहा हैं। तुम उनके सामने मत आना न ही उनसे मिलना।" अब मुझे भी शरारत सूझी और मैंने कहा- " खबरदार जो मेरे ससुर को खूसट कहा"। और हम दोनों लगातार हँसते रहे। 


वो ट्रेन से उतर गयी। प्रेमपत्रो का सिलसिला चलता रहा। शादी के 6 माह बाद गौना भी हो गया। वो हमारे मिलन की पहली रात थी। उसने कहा- "बुद्धू, अब कभी बहनजी मत कहना"। 


आज इस घटना को 35 साल हो गए हैं। हमारी पत्नीजी को जब शरारत सूझती है तो कहती हैं- " चलो एक बार फिर वाराणसी से रायबरेली ट्रेन का सफ़र करते हैं।"



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