हकीकत
हकीकत


1 और 2 अक्टूबर, 1994 रात्रि को दिल्ली रैली में जा रहे आन्दोलनकारियों का रामपुर तिराहा, मुजफ्फरनगर में पुलिस-प्रशासन ने दमन किया, निहत्थे आन्दोलनकारियों को रात के अन्धेरे में चारों ओर से घेरकर गोलियां बरसाई गई और पहाड़ की सीधी-सादी महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार तक किया गया। इस गोलीकाण्ड में राज्य के सात आन्दोलनकारी शहीद हो गये थे। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान की ये तारीखें हमेशा याद रखी जाएगी।
इन तारीखों में वह हुआ जिसकी आंदोलनकारियों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। 2 अगस्त 1994 को पौड़ी गढ़वाल से आंदोलन की चिंगारी जो भड़की, उसको बुझाने के लिए प्रदेश सरकार ने पहले 1 सितंबर 1994 को खटीमा और 2 सितंबर 1994 को मसूरी में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवा दी। इन गोलीकांडों में जहां कई आंदोलनकारी घायल हुए वहीं कई मौत की नींद सो गए। शांत व प्रकृति प्रेमी पहाड़वासी आंदोलन के इस रूप को देखकर खौफजदां होने की बजाय पहाड़ जैसे अड़ गए। उनके खून में इस कदर उबाल आ गया कि उन्होंने दिल्ली कूच की ठान ली।
2 अक्टूबर को दिल्ली में जंतर-मंतर पर प्रदर्शन का इरादा लिए रास्ते में रामपुर तिराहे पर प्रदेश ने एक बार फिर आंदोलनकारियों को रोकने के लिए बंदूक का सहारा लिया।
जिसमें दो अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर कांड घटित हुआ।
पहाड़ की विषम भौगोलिक स्थिति और विकास के छटपटाते पहाड़वासियों की राज्य के प्रति दीवानगी के चलते राज्य का गठन तो हो गया। लेकिन गठन के 20 वर्ष बीतने को है, फिर भी इसकी समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई। डॉक्टर हो या शिक्षक या फिर अन्य कर्मचारी कोई भी पहाड़ की पहाड़ जैसी पीड़ा को समझते हुए पहाड़ चढऩे को तैयार नहीं है, दूसरा राजनीतिक पार्टियों ने भी पहाड़वासियों का दोहन करते हुए अपना वोट बैंक को मजबूत करने पर ही अपना धयान लगाया।
पहाड़ की मूलभूत समस्याओं के प्रति उनका नकारात्मक रवैया आज भी उस समय दिखाई देता है, आए खबर आती है फलां महिला ने सड़क पर बच्चा जना या फलां पर सड़क धंसने से सैकड़ों गांवों का संपर्क कटा या वगैरह-वगैरह। सरकारें कितने भी दावे कर ले, पर हकीकत की जमीन पर सभी दावें धराशाई ही दिखते है।