HARSH TRIPATHI

Drama Tragedy

4.3  

HARSH TRIPATHI

Drama Tragedy

हिफाज़त

हिफाज़त

37 mins
15K


भाग १ - लाहौर

वो सैंतालीस की गर्मियाँ थीं. सामान्य से कुछ ज़्यादा ही गर्म, बल्कि ऐसी गर्मी तो देखी भी न गयी थी कभी. हमेशा की तरह सूरज तो ऊपर से आग बरसा ही रहा था लेकिन इस बार नीचे वालों की गर्मी सूरज की उस तपिश को भी मात कर रही थी. नीचे एक किस्म की दौड़ सी चल रही थी कि रावी और ब्यास के पानी को ज़्यादा लाल कौन कर सकता है.

डॉक्टर अरुण खन्ना लाहौर के शेखपुरा के चलते- पुरज़े आदमी थे . लाहौर के मेडिकल कॉलेज से उन्होंने अपनी दोस्त डॉक्टर रचना अग्रवाल के साथ एम् बी बी एस की डिग्री ली, और वो दोस्त जल्द ही दोनों परिवारों के आशीर्वाद से डॉक्टर रचना खन्ना हो गयीं . डॉक्टर मियां- बीवी ने वही पर एक क्लिनिक खोली और बहुत प्यार से अपनी ज़ाती और पेशेवर ज़िन्दगी जीने लगे. ऊपर वाले ने भी जल्द ही उनको एक छोटी सी प्यारी सी बच्ची तोहफे में दे दी जिसक नाम उन्होंने बड़े लाड़ से रखा-- अर्चना. अरुण और रचना से मिलकर बनी --अर्चना.

मगर गर्मियाँ बढ़ रहीं थीं. इज़्ज़तदार डॉक्टर दंपत्ति जिन्होंने कई ज़िंदगियाँ बचायी थीं और कई परिवारों की ख़ुशी का सबब थे, अब इस गर्मी को बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे. क्लिनिक पर लोगों की आमद भी काम होती जा रही थी. कई बार ऐसा भी हुआ की सब सुबह जब वो क्लिनिक का दरवाज़ा खोलते तो टूटे हुए कांच के टुकड़े, पत्थर, और उन पर लिपटे हुए काग़ज़ भी मिलते. ऐसे ही एक दिन एक काग़ज़ पर लिखा हुआ मिला " ..या तो पाकिस्तान छोड़ दो या फिर ये दुनिया. "

हालात बदतर हो रहे थे. अब पत्थरों में काग़ज़ लपेट कर नहीं फेंके ज रहे थे बल्कि सीधे लॉउडस्पीकरों के ज़रिये चेतावनी दी जा रही थी "...हर कोई गौर से सुने...लाहौर के काफिरों !!...या तो इस्लाम क़ुबूल कर लो या फिर अपने उन गाँधी और नेहरू के हिंदुस्तान चले जाओ ......बस अपनी औरतें यहीं छोड़ जाना...". रचना ये सब सुन के अंदर तक काँप जाती थीं और बोलतीं "...कुछ न कुछ हो ही रहा है यहाँ .....हर रोज़ कुछ न कुछ...क्या हमें ये जगह छोड़ देनी चाहिए. .....", वो अपनी बात पूरी नहीं कर पातीं थीं की अरुण बीच में ही उनको डाँट लगा के बोलते "...तुम लोग कुछ भी बोलते हो यार. ...फालतू बकवास. ..क्यों छोड़ना होगा ?...और हमारी छोड़ो , किसी को भी क्यों छोड़ना होगा ? हम यहाँ ३०० सालों से रहते आएँ हैं , हमें क्यों छोड़ना चाहिए ?"..फिर वो कुछ आराम से बैठते और गंभीर आवाज़ में समझाते "..बुरा दौर है ये,....बीत ही जायेगा. ..". वो इतने भरोसे से ये बात नहीं बोलते थे क्योंकि काग़ज़, पत्थर, टूटे हुए कांच तो कई सारे वो देख ही चुके थे, लेकिन ऐसी उम्मीद इसलिए थी की इंसानियत में अभी भी उनका भरोसा क़ायम था. ऐसा उनके पेशे की वजह से था या किसी और कारण से, पता नहीं....

....लेकि अगली सुबह वो भी टूट ही गया. कुछ लोगों ने रात में ही उनकी क्लिनिक में आग लगा दी थी. जब मियां- बीवी अपनी क्लिनिक का दरवाज़ा खोलने सुबह पहुँचे तो उनको उनकी ज़िन्दगी का अब तक का सबसे बड़ा धक्का लगा. कुर्सियां, मेजें, स्ट्रेचर्स, दवाएं, सब कुछ राख हुआ पड़ा था. अरुण तो अंदर तक हिल गए थे, उनके हलक से आवाज़ भी न निकली और वहीँ घुटने के बल ही बैठ गए. उनके माँ- बाप और रचना किसी तरह उनको एक कोने में ले जाकर बैठा दिए और पीने को पानी दिया. वहाँ जमा भीड़ में से कुछ भले लोग निकल के आये और उस परिवार को हौसला दिया, ढाँढ़स बँधाया. कुछ वक़्त बाद वो परिवार घर वापिस लौट आया और सबने मिल कर एक फैसला किया--लाहौर छोड़ कर हिंदुस्तान जाने का फैसला. अपने प्यारे शहर लाहौर को हमेशा के लिए छोड़कर जाने का फैसला।


भाग २- लल्लो


लल्लो अमृतसर से लगने वाला लाहौर का आखिरी गांव था. इसी गांव में एक छोटी सी बस्ती में मिठाइयां बांटी जा रहीं थीं क्योंकि एक विधवा नीलोफर के घर एक प्यारी सी बच्ची पैदा हुई थी. नीलोफर बस्ती के लोगों के कपडे इस्तरी करने का काम किया करती थी. शौहर के गुज़र जाने के बाद घर परिवार और जानवरों को सँभालने की ज़िम्मेदारी नीलोफर पर आन पड़ी थी. उसका बर्ताव और काम इतना अच्छा और पाबन्द हुआ करता था की बस्ती के लोग उसको बहुत पसंद करते थे और वह इनसे इतना पैसा ज़रूर कमा लेती थी जो उसके ५ साल क बच्चे शाहिद और एक गाय, उसके बछड़े के लिए काफी था.

शाहिद उस बस्ती का सबसे प्यारा बच्चा था. वो बड़ा सुन्दर, गोल-मटोल सा, लाल गालों वाला प्यारा सा बच्चा था जो जहाँ तक हो सकता था, अपनी माँ की भरपूर मदद करता था. वो माँ के इस्तरी किये हुए कपडे लोगों के घर दे आता था और वे लोग भी पैसों के साथ-साथ उसे कुछ कपड़े , मिठाइयां आदि दे दिया करते थे जिनको वो बड़े फख्र से अपनी माँ को दिखाता था "...माँ, देखो पूनम दीदी ने बर्फी दी है,.....देखो राजू भाई ने खीर दी है. ...." उसको इतना खुश देख कर नीलोफर निहाल हुई जाती थी. आज इसी शाहिद के घर छोटी बहन आयी थी और हमेश की तरह शाहिद बड़ा खुश था. नीलोफर ने बड़े प्यार से बच्ची का नाम रखा था--सपना.

रोज़ रात को जब उसकी माँ खाना बना रही होती तो वो छोटी सी सपना को अपनी गोद में लिए लालटेन की रौशनी में वहीं मिट्टी के चूल्हे के पास बैठ जाता था. देर तक सपना को निहारता रहता था, फिर बोलता "...ओ सपना !...प्यारी सपना..इधर देख. ...देख मै तेरा भैया हूँ ..यहाँ देख यहाँ .. ..इधर ...", फिर वो उस बच्ची का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिये अपनी बहुत छोटी- छोटी उँगलियों से चुटकी बजाता . फिर अपनी माँ से पूछता "..माँ .. .इसकी आँखें इतनी छोटी क्यों हैं ?.....इसकी उँगलियाँ इतनी छोटी और इतनी नाज़ुक क्यों हैं ?....", इस पर नीलोफर खिलखिला के जवाब देती "....वो एक कितनी छोटी सी बच्ची है ...तुम तो कितने बड़े , और लम्बे-चौड़े हो ".

शहरों से निकल के गर्मियां अब गाँवों तक पहुँच रहीं थीं. लल्लो में वैसे हिन्दू आबादी ज़्यादा थी लेकिन गाँव की ज़िन्दगी की सादगी और शुद्धता काफी हद तक उस ज़हर से अनछुई थी . शहरों के शोरगुल से गांव के लोग दूर थे और घी-गुड़- रोटी-छाछ के साथ आराम से जीवन जी रहे थे लेक़िन कब तक.....

......फिर एक रोज़ वो लम्हा भी आ ही गया . उस दिन अलस्सुबह, तड़के ही बाहर के कुछ लोग दो ट्रकों में भर कर गांव के गुरुद्वारे के पास आकर रुके. कुछ हथियारबंद सिख नौजवान ट्रक से उतर कर गुरुद्वारे के अंदर गए. थोड़ी देर बाद वो बाहर आये और अपने एक साथी को ट्रक से सामान उतारने का इशारा किया. गांव के लोगों ने देखा की उन्होंने ६ बड़े संदूक ट्रक से उतारे और गुरुद्वारे में ले गए. फिर उन्होंने कई गट्ठर भाले और तलवारें उतारी. गाँव वालों ने खुली हुई तलवारों और भालों का इतना बड़ा ज़खीरा अब तक तो कभी नहीं देखा था, संदूक में क्या था उसकी तो बात ही छोड़ो. फिर वो दोनों ट्रक गांव से बाहर की ओर निकलने वाली सड़क की तरफ चले गए और वे सिख युवक फिर से गुरुद्वारे में चले गए. गुरुद्वारे का बूढ़ा जत्थेदार ये सब केवल चुपचाप देखता रहा. शायद कुछ बोलने की उसकी हिम्मत भी न हुई.

गाँव में दोपहर तक खबर फ़ैल गयी की गुरुद्वारे में हथियारों का काफी बड़ा ज़खीरा आ रखा है. नीलोफर शाहिद के साथ खाना खा रही थी लेकिन निवाला उस से निगला नहीं जा रहा था. अचानक सबने सड़क पर लाउडस्पीकर पर ऊँची आवाज़ सुनी "...लल्लो के लोगों. ...आपका गांव हिंदुस्तान में शामिल किया जान तय हुआ है, इसलिए इस इलाक़े के जितने मुस्लिम हैं, उनके लिए हुकुम दिया जाता है कि अपने साज-ओ- सामान , जानवरों के साथ सीधे पाकिस्तान चले जाएँ. हम आपको २४ घंटे देते हैं, वरन आपके साथ भी वही सुलूक किया जायेगा जो आप लोगों ने हमारे लोगों के साथ लाहौर में किया है...".

लल्लो में मुसलमानों के बहुत कम घर थे. वो सभी लोग डरते हुए गांव की मस्जिद में जमा हुए और तय हुआ की क़ाज़ी साहब , गुरुद्वारे के जत्थेदार साहब से बात करके कोई रास्ता निकालें. क़ाज़ी साहब गुरुद्वारे गए, देखा कि बूढ़ा जत्थेदार एक कोने में चुपचाप बैठा हुआ है और गुरुद्वारे के लोगों को वे सिख युवक काम करने का आदेश दे रहे हैं. क़ाज़ी साहब ने हाथ जोड़कर जत्थेदार से पूछा "क्या कोई और रास्ता नहीं है ? ......प्रीतमसिंह जी ? ..", बीच में ही एक सिख युवक ऊँची आवाज़ में बोल पड़ा "....नहीं. ...कोई दूसरा रास्ता नहीं है. हम जत्थेदार जी की तरफ से ही बात कर रहे हैं क्योंकि वो काफी बीमार हैं और बात नहीं कर सकते.....और सुनिए क़ाज़ी साहब, कोई दूसरा रास्ता नहीं है. लल्लो खाली कीजिये बस". बूढ़े क़ाज़ी ने हाथ जोड़कर विनती की "..हम कहाँ जायेंगे ? ....हमारे पुरखे....हमारा घर. .....हमारे खेत- क्यारी, फसलें,...हमारी मिट्टी...सब तो यहाँ हैं. इनके बगैर हम कहा जायेंगे ?..." एक दूसरा सिख युवक बीच में ही डपट कर बोला "..नौटंकी बंद कीजिये क़ाज़ी साहब.....समझ में आया कि नहीं. ......सीधे लल्लो खाली कीजिये बस" .

लोगों ने फिर अपने सामान और जानवर समेटने और अपनी बैलगाड़ियों पर लादने शुरू कर दिए थे. हिन्दू, जो कि आबादी में ज़्यादा थे, अपनी खिड़कियों और छज्जों पर से ये सब देख रहे थे लेकिन कोई भी एक आदमी कुछ भी नहीं बोला .

लेकिन वो दरिंदे खून के प्यासे थे. उन्हों खुद अपनी ही २४ घंटे की मोहलत का पालन नहीं किया और मार- काट शुरू कर दी. वे बैलगाड़ियों और घरों पर टूट पड़े. नीलोफर ने तुरंत ही एक बोतल में दूध पैक किया और उसको शाहिद के बस्ते में रखा. शाहिद ये सब कुछ देख रहा था और उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. नीलोफर ने कुछ जो पैसे बचाये थे, साथ में कुछ कपड़े भी, वो सब शाहिद के बस्ते में रख कर और शाहिद को बस्ता और २ महीने की दुधमुही सपना को थमाते हुए बोली "शाहिद. ....अपनी बहन के साथ यहाँ से भाग जा....जितना तेज़ भाग सके, उतना तेज़ भाग. ....जितना दूर तक भाग सके उतना दूर तक भाग......जितना ज़्यादा भाग सके उतना ज़्यादा भाग" , इतना बोल के उसने घर के पिछले हिस्से का छोटा दरवाज़ा खोल दिया. घर के मुख्य दरवाज़े पर लगातार भद्दी गालियों के साथ प्रहार हो रहे थे. नीलोफर चिल्ला कर बोली "भाग शाहिद ......भाग.....अपनी छोटी बहन का अम्मी और अब्बू अब से तू ही है.....भाग मेरे बच्चे. ......कभी उसको अकेला मत छोड़ना.....हमेशा उसके साथ ही रहना. ...वो छोटी बहन, तेरी भी बच्ची है...", फिर उसने शाहिद को पिछले छोटे दरवाज़े की ओरे धक्का दिया. मुख्य दरवाज़े पर फिर से गाली के साथ ज़ोरदार प्रहार हुआ. ५ साल का बच्चा शाहिद, अपनी माँ को वहीँ पर, पीछे छोड़ और अपनी २ महीने की बहन को सीने से लगाए वहाँ से भाग निकला. वो केवल इतना ही सुन पाया था कि कुछ लोग घर का मुख्य दरवाज़ा तोड़ कर अंदर आ गए थे. शाहिद के पास पीछे मुड़कर देखने का भी वक़्त नहीं था.

५ साल का छोटा सा बच्चा, २ साल की दुधमुँहीं बच्ची को अपने बदन से कस कर लिपटाये, अगस्त की इस भयंकर गर्मी और उमस में खेतों की छोटी-छोटी मेढ़ों पर बस भागे जा रहा था. कौन सा रास्ता किधर जाता है , कौन सी दिशा किस तरफ है, इसका उसको कुछ भी अता-पता नहीं था, न वो इस से ही वाक़िफ़ था की हिंदुस्तान क्या और पाकिस्तान क्या. शाम होते होते वो एक ढाबे पर पहुंचा जो एक सिख दंपत्ति चलाता था. उन लोगों ने जब उसको देखा तो प्यार से बुला कर अपने पास बैठा लिया. रुकने की कुछ जगह और खाने को कुछ खाना भी दिया. अपना पुराना बस्ता खोल कर शाहिद ने उसमें से दूध की वो बोतल निकली जो नीलोफर ने उसको दी थी. बोतल को खोल कर, जितनी भी उसकी समझ आयी, उसने अपनी दोनों उँगलियाँ दूध में डुबो दीं, और फिर दूध से भीगी हुई उँगलियाँ उस नन्ही सी जान के होठों पर रख दीं. छोटी सी बच्ची ने तुरंत ही अपना मुँह खोला और दूध से भीगी उन उँगलियों को चूसने लगी. शाहिद ने फिर यह प्रक्रिया दोहराई, बच्ची फिर से उसकी छोटी , दूध से भीगी उंगलिया चूसने लगी. सिख दंपत्ति ने ये जब देखा तो मुस्कुराने लगे. शाहिद भी उनकी तरफ देख कर , हँस कर बोला "..इसको भूख लगी है..", इस पर उन्होंने कहा "..और तुमको भी ....लो कुछ खा लो ". शाहिद खाने लगा. इतने में उस बूढ़े सिख ने कहा "ज़रूर मुसलमानों ने ही कहर बरपाया होगा. ......वैसे नाम क्या है तुम्हारा ?.....कहाँ के हो तुम ? ", अब तक शाहिद समझ ही चुका था की क्या हो रा है , बच्चा शायद बड़ा हो गया था, या बड़ा बना दिया गया था, पता नहीं. उसने जवाब दिया "मेरा नाम जीवन है, मैं लल्लो से हूँ" .

"क्या ? ......लल्लो से हो ?....लल्लो तो हिन्दू गांव है न ?........मुसलामानों को इतनी ताकत वहाँ कहाँ से हो गयी ?" उस सिख ने हैरानी से पूछा. फिर वो बूढ़ा सा आदमी अपनी आँखें और नाक सिकोड़ कर बुरा सा मुँह बना के बोला "...अच्छा अच्छा. ....हिन्दू हो न तुम. ...हिन्दू तो अमनपसंद होते हैं, लड़ाई- झगड़े से मतलब तो होता नहीं है उनको. वो हम लोगो की तरह लड़ाकू क़ौम तो हैं नहीं, तो वो लड़ते भी नहीं..". शाहिद चुपचाप बिना बोले, सिर झुकाये, सारी बातें सुन रहा था. कैसे बोले की वो मुसलमान है ......अगर इन्होंने ही मार दिया तो ? खैर, २- ३ घंटे बीत गए. रात जब वो सोने चला , ठीक उसी वक़्त मुसलमान दंगाइयों की एक भीड़ ने ढाबे पर हमला कर दिया . दोनों तरफ से गोलियां ही गोलियां बरसने लगीं. शाहिद ने उस छोटी बच्ची के मुँह पर एक छोटा कपड़ा ढीला बांधा जिस से उसकी आवाज़ न निकले, और खुद फिर से उस जगह से भाग निकला. उसकी उम्र और हौसला, दिमाग की तेज़ी देख कर कोई भी फौजी पल्टन का कमांडर उसको अपनी पल्टन में ज़रूर शामिल कर लेता.......या फिर शायद हालात ही ऐसे थे. ....ज़िंदा रहना ज़्यादा ज़रूरी था उस वक़्त. पूरी रात वो इसी तरह से दौड़ता और चलता रहा, कभी तेज़ तो कभी धीरे, लेकिन रुका नहीं वो. उन दोनों की ज़िंदगियाँ उसकी दौड़ पर ही टिकी हुई थीं ,और इस आपाधापी में वो कब सरहद पार कर के हिंदुस्तान के अमृतसर के अटारी गांव में दाखिल हो गया , उसे खबर ही नहीं लगी. भागते हुए सुबह तक वो एक स्कूल की ईमारत के पास पहुँच कर बेहोश हो गया और गश खाकर गिर पड़ा.


भाग ३- अटारी


आँख खुली तो उसने खुद को एक लकड़ी की बेंच पर लेटा हुआ पाया. उसे कुछ महिलाएं घेरे हुए खड़ी थीं. सपना बगल में ही सो रही थी. शाहिद की कलाई में एक सुई घुसी हुई थी जो एक पाइप से जुडी थी. वो पाइप एक उल्टी लटकी हुई बोतल से जुड़ा हुआ था जो कुछ ऊंचाई पर एक जंग लगे हुए पुराने से लोहे के स्टैंड पर से लटक रही थी. दरअसल वो एक प्राइमरी स्कूल ही था जिसको कुछ समय के वास्ते स्कूल-सह-अस्पताल-सह-रिफ्यूजी शिविर में तब्दील कर दिया गया था. जब वो पूरी तरह होश में आया तो एक महिला डॉक्टर ने उन दोनों के बारे में उस से सवाल पूछा. जवाब में उसने कहा "मैं जीवन हूँ. ...और ये मेरी बहन पूनम". वाह बच्चे ! !

अगले कुछ हफ़्तों में जीवन और पूनम को पूरे स्कूल-सह-रिफ्यूजी शिविर-सह-अस्पताल का सबसे ज़्यादा प्यार मिलने लगा. लोग इस बात पर हैरान हो जाते कि कैसे ५ साल का एक छोटा सा बच्चा अपनी दुधमुँहीं बहन को इस खून और दरिंदगी से भरे माहौल में लाहौर से अटारी तक अकेले ही लेकर आया और उसका कितना ख्याल भी रखता है....'पूनम ने दूध पिया कि नहीं',.....'रो तो नहीं रही है'......'सोकर उठी कि नहीं'....और भी बहुत कुछ.

एक दिन जीवन दोपहर में सो कर उठा तो पूनम को अपने पास नहीं पाया. उसने दूसरों से भी पूछा जो दोपहर के भोजन के बाद वहीँ पर थे जब जीवन सोया था, लेकिन उनमें से भी किसी को पूनम का कुछ भी पता नहीं था. वो सभी लगभग उसी वक़्त के आस-पास सो गए थे. जीवन बेचैन हो उठा और काफी परेशान होकर पूनम को पूरे कैंप में ढूंढ़ने लगा. वो रोने लग गया था और चिल्ला रहा था. लोग उसको ढांढ़स बंधा रहे थे लेकिन वो बहुत ज़्यादा दुःखी हो गया था क्योंकि माँ से बहन की हिफाज़त के लिए किया गया आखिरी वादा टूट जो चुका था.

अब अच्छा हो या बुरा , वक़्त गुज़र ही जाता है. जीवन अब १६ बरस का था और अमृतसर में एक साइकिल की दुकान पर काम करता था. उसके काम से उसका मालिक काफी खुश था क्योंकि वह बड़े मन से और अच्छा काम करता था और इस वजह से पैसे भी ठीक-ठाक मिल जाते थे. अटारी के उस स्कूल में वो हर महीने में दो बार जाता था ताकि पूनम का कुछ पता चल सके लेकिन हर बार खाली हाथ ही आना पड़ता था. पप्पू जो उसका दोस्त था और उसी के साथ साइकिल की दुकान पर काम करता था, अक्सर उस से बोलता था "..तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?...इतना अच्छा साइकिल का काम तो कर लेते हो, खुद को तुम केवल यहाँ बर्बाद ही कर रहे हो. अरे, लुधियाना जाओ. .....वहां साइकिल के सबसे बड़े-बड़े कई सारे कारखाने और फैक्ट्रियां हैं जो हमने- तुमने देखे भी नहीं होंगे. वहां किसी कंपनी में काम करो तो बड़े पैसे कमा लोगे. ....फिर हमें भी वहीँ बुला लेना. ......यहाँ इस टुच्ची सी दुकान पर क्या रखा है ?", जीवन ने पप्पू को बहन पूनम की गुमशुदगी के बारे में बताया तो पप्पू ने कहा "देखो, बंटवारे में बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो नहीं होना चाहिए था. अव्वल तो बंटवारा ही नहीं होना चाहिए था. लेकिन क्या किया जा सकता है ?.......ये सब मेरे- तेरे बस का है क्या ?...बस इतना मान ले कि वक़्त बहुत बुरा था , जो अब बीत रहा है. बहुतों के माँ- बाप, भाई- बहन, बेटे- बेटियाँ बिछड़ गए, मर- खप गए. ......तो क्या कर सकते हैं ?.....अब अपनी आगे की ज़िन्दगी तो इन सब के पीछे बर्बाद नहीं कर सकते न...". फिर पप्पू ने उसको पूनम की तलाश छोड़ कर पैसे कमाने पर ध्यान देने को कहा.

कुछ समय बाद जीवन लुधियाना आ ही गया. अपने बेहतरीन हुनर और मेहनत के दम पर एक बड़ी कंपनी में मैकेनिक की नौकरी मिल गयी जो हिंदुस्तान के कई बड़े शहरों में साइकिल बना कर सप्लाई किया करती थी. धीरे धीरे जीवन ने कंपनी के मैनेजर का भरोसा हासिल किया और उसके वेतन और ओहदे दोनों में अच्छा इज़ाफ़ा हुआ. अब वो २५ बरस का था. एक दिन मैनेजर ने उस से कहा "जीवन. ...हमें इलाहाबाद में ३ दुकानों पर साइकिल की बड़ी खेप सप्लाई करनी है. ये बहुत अच्छा होगा कि एक भरोसेमंद आदमी इन खेप के साथ जाये. .....तुम से अच्छा आदमी इस काम के लिए कौन होगा ? ", जीवन ने इलाहाबाद जाने के लिए हामी भर दी.

पहले से तय की गयी इलाहाबाद की एक दुकान पर, जीवन ने देखा की एक ख़ास साइकिल को ज़रूरत से ज़्यादा तवज्जो दी जा रही है और दुकान का मालिक भी अपने कामगारों को बार बार उसी साइकिल पर ध्यान देने को बोल रहा था. जीवन ने मालिक को मज़ाक में छेड़ा "...रानी विक्टोरिया को देने वाले हो क्या ये साइकिल ? " मालिक ने घूर कर उसको ऐसे देखा जैसे अभी खा जायेगा, फिर बोला "...कुछ ऐसा ही समझ लो. ..". जीवन ने कौतूहल के साथ पूछा "कौन है वो ? .....जरा मैं भी सुनूँ ". मालिक ने फिर रौबदार आवाज़ में कहा "डॉक्टर रचना की बेटी है वो. ....समझे ! ".

डॉक्टर रचना इलाहाबाद की सबसे मशहूर, सबसे नामी डॉक्टर थीं. शहर के सभी नामी- गिरामी लोगों की सबसे पहली पसंद वही होती थीं, साथ में वो कई जनकल्याण और समाज सेवा के काम भी करती थीं. उनकी एक ही बेटी थी--अर्चना, जो उनका सब कुछ थी. उनकी दुनिया उसी के आस-पास घूमा करती थी. लेकिन साथ में ही डॉक्टर रचना अपने काम में बेहद सख्ती और नियम- क़ानून के लिए विख्यात या कुख्यात, जो भी कह लीजिये थीं. इसी वजह से सभी, यहाँ तक की उनके मरीज़ भी उनसे काफी डरते थे.

साइकिल की दुकान के मालिक ने जीवन से गुज़ारिश की कि वो उसके साथ बेबी अर्चना की नयी साइकिल लेकर डॉक्टर रचना के घर चले. इस से डॉक्टर रचना की निगाह में उस साइकिल की दुकान के मालिक का क़द बढ़ जायेगा. जीवन मुस्कुराते हुए चलने को तैयार हो गया. वो लोग जब साइकिल लेकर उनके घर पहुँचे तो नौकर उनको एक बड़े से, संभ्रांत घराने के से लगने वाले बैठक कक्ष में ले गया. उसने उनको बैठ जाने का इशारा किया और बोला "..आप लोग यहाँ बैठें, मैडम आ रहीं हैँ."

डॉक्टर रचना थोड़ी देर बाद बैठक में दाखिल हुईं. उनको देख कर तो जैसे जीवन को ४४० वोल्ट की बिजली का झटका लगा, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं. दुकान के मालिक ने जीवन के परिचय डॉक्टर रचना से कराते हुए कहा "मैडम, ये मिस्टर जीवन हैं, ये हमारी कंपनी की प्रतिनिधि हैं जिनको मैनेजर साहब ने ख़ास तौर पर लुधियाना से भेजा है...". १५- २० मिनट की उस छोटी सी मुलाक़ात में जीवन ने बहुत ही कम बातें बोलीं और लगातार डॉक्टर रचना को देखता रहा.

जीवन फिर वापिस आया, रात का खाना खाया, लेकिन जैसे वो कुछ उलझन में था. सोना भी चाह रहा था लेकिन आँखों की नींद उड़ी हुई थी. किसी बात को लेकर वो परेशान था. वो कमरे से बाहर आया और डॉक्टर रचना के घर जाने के लिए एक रिक्शा किया.

डॉक्टर रचना का घर सिविल लाइन्स मोहल्ले में था. रात को वहां अचानक जीवन और डॉक्टर रचना के नौकरों की झड़प होने लगी. "....मैडम को बुला दीजिये,...ज़रूरी बात है,....थोड़ा मिलना है...", "अरे कैसे बुला दें ?....इतनी रात को कोई मिलने का समय होता है ?....शरीफ आदमी के घर रात को आ कर बोलो कि मिलना है ?....ये कोई तरीका है मिलने का ? ......सुबह आना , सुबह. ....अभी जाओ...." , "....देखिये.....काफी ज़रूरी है वरना मैं, नहीं आता.....मिलवा दीजिये.....प्लीज...", "....कुछ नहीं सुनना.....जाते हो बाहर या नहीं? ......" , ये सब बहस सुनकर डॉक्टर रचना बालकनी से ही कड़क आवाज़ में बोली "कौन है ? ", जीवन ने कहा "मैडम , मैं जीवन. ......अर्चना मैडम की साइकिल लेकर मैं शाम को आया था. डॉक्टर रचना ने उसे बैठक में आने को बोला. नौकर ने जीवन को बैठक कक्ष में बिठा दिया. थोड़ी देर बाद डॉक्टर रचना आयीं. उनका मूड कुछ उखड़ा हुआ सा लग रहा था. उन्होंने जीवन से पूछा "बोलो. .....क्या बात है ? " , जीवन ने तुरंत ही उनसे पूछ लिया "मैडम, आप गुरमीत मैडम को जानती हैं ? " डॉक्टर रचना ने जैसे ही ये शब्द सुना उनको लगा कि कान में किसी ने पिघला हुआ शीशा डाल दिया हो. लेकिन वो एक बेहद मज़बूत महिला थीं. अगले ही पल खुद को संयत करके बोलीं "नहीं. .....क्यों ?", फिर जीवन ने अपनी बात बताई "...मैडम, असल में २० बरस पहले मेरी एक बहुत छोटी , २ महीने की बहन पूनम थी जो बंटवारे के दौरान हो रहे मज़हबी दंगों में अमृतसर के अटारी गांव के एक प्राइमरी स्कूल में मुझ से बिछड़ गयी थी. उस स्कूल में मुझको एक महिला दिखीं थी जो बिलकुल आपकी ही शकल की लगती थीं, हू-ब-हू आप जैसी ही......और वो डॉक्टर थीं. मुझे लगा कि शायद आप उनको ज़रूर जानते होंगे....या आपकी बहन होंगी वो क्या पता ?.....अगर उनसे मेरा मिलना हो जाता तो हो सकता है मुझे पूनम के बारे में कुछ थोड़ा- बहुत ही सही, लेकिन पता तो चल जाता, फिर मैं उसको ढूंढ़ने की कोशिश एक बार फिर से करता...". कमरे में कुछ वक़्त के लिए बिलकुल सन्नाटा फैल गया था. इस ख़ामोशी और दर्द को डॉक्टर रचना की आवाज़ ने तोड़ा "देखो. ......मैं तुम्हारी ये हालत, ये बेचैनी समझती हूँ. ......एक बेटी की माँ तो मैं भी हूँ......मेरा नाम रचना है और मैं किसी भी गुरमीत नाम की महिला को नहीं जानती. हम दो भाई-बहन ही हैं, और मेरी कोई बहन नहीं है. शायद चेहरे की वजह से तुम्हे गफलत हो गयी हो. बल्कि मैं कभी भी उस इलाके में गयी ही नहीं हूँ. हद से हद मैं दिल्ली तक ही गयी हूँ. मेरी कोई रिश्तेदारियां भी उधर नहीं हैं." थोड़ी देर बाद जीवन उठा और हाथ जोड़ कर बोला "सॉरी मैडम, रात में आपको तकलीफ दी इसलिए माफ़ी मांगता हूँ. आपके चेहरे-मोहरे के कारण थोड़ा समझ नहीं आया. .." इतना कह कर उसने झुक कर धन्यवाद किया, फिर वो कमरे से बाहर निकल गया.

जीवन के जाने के बाद डॉक्टर रचना ने बैठक का दरवाज़ा बंद किया, वहाँ की बत्ती बुझायी और वापिस अपने कमरे में आ कर बड़े से बिस्तर पर बैठ गयीं. बगल में ही अर्चना सो रही थी. डॉक्टर रचना बहुत प्यार से उसको एकटक देख रहीं थी. फिर अचानक उनक चेहरे के हाव- भाव बदलने लगे और इतना तेजस्वी चेहरा बिल्कुल पीला सा पड़ गया. हलक से थूक भी निगला नहीं जा रहा था, और मानो कि आवाज़ कहीं खो सी गयी थी. शब्द गले से बाहर नहीं आ पा रहे थे. उनका चेहरा पसीने पसीने होने लगा था. पैर इतने वज़नी लग रहे थे की फर्श से उठा कर बिस्तर पर भी नहीं रखे जा रहे थे. लग रहा था कि कोई सब कुछ सामने से लूट कर ले जा रहा था और इलाहाबाद की सबसे ताक़तवर शख़्सियत डॉक्टर रचना कुछ भी नहीं कर पा रहीं थीं. उनकी मुट्ठी से सब कुछ रेत जैसा फिसला जा रहा था. इतना कमज़ोर उन्होंने खुद को कभी भी महसूस नहीं किया था. उनको लग रहा था कि ज़मीन अभी फट जाये और वह उसमें धँस जायें.

उनकी अब तक की ज़िन्दगी का पूरा फ़साना उनकी आँखों के आगे एक बार में, कुछ ही पलों में, तैर गया........सब कुछ जैसे मानो बस कल- परसों की ही बात होगी....

लाहौर के शेखपुरा में अपनी छोटी सी क्लिनिक दंगों में जल कर राख हो जाने के बाद वो डॉक्टर अरुण का परिवार घर आया और आनन-फानन में लाहौर हमेशा के लिए छोड़ने का फैसला लिया गया . रात में ही सारा सामान जो ले जाया सकता था , कई गट्ठरों में रोते-रोते बाँध कर तैयार किया गया और सुबह होने का इंतज़ार होने लगा. हर सामान रखने के साथ ज़ार ज़ार आंसू बह रहे थे. कभी सोचा भी नहीं गया था कि लाहौर. ....अपना प्यारा लाहौर, जो ज़िन्दगी ही था, उसे ज़िन्दगी के लिए ही छोड़ना होगा. बाक़ी का सारा सामान कुछ ऊपर वाले और बहुत कुछ नीचे वालों की दरियादिली के भरोसे छोड़ दिया गया था......अरुण और रचना की शादी की तस्वीर, शादी में पहनी शेरवानी और लहँगा, कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एक- दूसरे को लिखे ख़त जो कई बार दोस्तों के ज़रिये भिजवाये गए और दोस्त भी इतने ज़िम्मेदार कि खुद खोल कर पढ़ते भी नहीं थे, अर्चना की डफली, झुनझुना , हाथ का कड़ा,उसकी दादी का दिया चांदी का गिलास, उसके दादा जी की किताबें जो घर की दो- दो पीढ़ियों ने पढ़ी थीं और जिनमे लिखी बड़ी-बड़ी, गाँधी-ग़फ़्फ़ार-गौतम की इंसानियत की बातों पर उनका मज़बूत भरोसा था लेकिन आज जिन बातों के परखच्चे उड़-उड़ कर हवा में तैर रहे थे........और भी नामालूम क्या-क्या ? इस वक़्त नीचे वालों की वक़त और ताक़त बहुत ज़्यादा थी.

........अरुण अलस्सुबह, अँधेरे- अँधेरे ही जा कर एक बड़ा सा ताँगा खोज लाये. सारा सामान उसमें रखा गया और अरुण, रचना, और अपने बूढ़े माँ- बाप और २- महीने की अर्चना के साथ भारी मन और नम आँखों से उसमें सवार हुए, लाहौर रेलवे स्टेशन जाने के लिए. रोते हुए उन सब ने अपने शेखपुरा और अपने पुराने घर को आखिरी बार देखा. बगल में एडवोकेट आसिफ साहब का घर था जो अरुण के बहुत अच्छे दोस्त थे, जो अभी सो कर नहीं उठे थे. अरुण सोच रहे थे कि अभी आसिफ उठेंगे और अपनी बालकनी से आवाज़ लगाएंगे जैसे वो अक्सर लगाते थे "...अरे अरुण !....सैर पर नहीं चलना क्या ?".......और जाते हुए अरुण का हाथ पकड़ लेंगे और बोलेंगे "...पागल हो गए हो क्या अरुण ?......कहीं नहीं जाना तुमको......हमारे होते हुए क्यों जाओगे ?..." लेकिन आसिफ नहीं आएंगे. वह सो ही रहे हैं. वो मुसलमान हो गए हैं. कई रोज़ से अरुण सैर पर अकेले ही जा रहे थे. वहीँ देवेंदर शर्मा जी का भी घर था, जो पहले ही छोड़कर जा चुके थे. तांगा भी चल दिया था. थोड़ी देर बाद घोड़ा हवा से बातें कर रहा था.

कुछ समय बाद दंगाइयों का एक झुण्ड चाक़ू, भाले, कुल्हाड़ी , लाठियां लेकर उनके तांगा के पीछे पागलों की तरह चिल्लाते हुए, भद्दी गालियां देते हुए दौड़ने लगा. ताँगावान ने ये देखकर घोड़े पर चाबुक चला , रफ़्तार और बढ़ा दी थी. उन्हीं दंगाइयों में से एक ने कुल्हाड़ी तांगे की ओर फेंकी, जो सीधे अरुण की पीठ में जाकर धँसी. नल से निकले पानी की मोटी धार की तरह ख़ून बहने लगा था और अरुण तांगे से नीचे, सड़क पर गिर गए. बुरी तरह ख़ून से लथपथ अरुण पूरी ताक़त से आखिरी बार ताँगेवान के लिए चिल्लाये "...रोकना नहीं.....उनको जल्दी स्टेशन पहुँचाना...", बेटे की ये हालत देख कर तुरंत ही बूढ़े माँ- बाप तांगे से चिल्लाते हुए कूद पड़े "....तांगा किसी हाल में स्टेशन से पहले मत रोकना.....दोनों को स्टेशन ज़रूर पहुँचाना..". रचना की गोद में अर्चना थी......और रचना को कुछ समझ ही नहीं आया सिवाय चिल्लाने के. और जब तक उसको कुछ भी समझ आता , अपने सामने उसने उन दंगाइयों को बड़ी बेरहमी से अरुण, और अपने सास- ससुर को क़त्ल करते हुए देखा. वह चीख रही थी और रो रही थी. उसको देख कर दो दंगाई फिर से तांगे के पीछे दौड़े लेकिन ताँगेवान ने भी पूरी जान लगा दी थी कि वो उनको स्टेशन आज तो पहुंचा ही देगा. और उसने पहुंचा भी दिया.

स्टेशन पर भी बड़ी भीषण अफरा- तफरी का माहौल था. हर किसी को जिधर भी जगह मिल रही थी वो उधर ही भाग रहा था. रचना के पास ज़्यादा सोचने का वक़्त नहीं था. उसने प्लेटफार्म पर यात्रियों से खचाखच भरी गाड़ी खड़ी देखी. उसने अंदर दाखिल होने की पुरज़ोर कोशिश की लेकिन भीड़ इतनी ज़्यादा और ऐसी पागल थी की २- महीने की बच्ची के साथ रचना गाड़ी में नहीं जा पायी. उसने गाड़ी की छत देखी जिस पर गाड़ी के अंदर से भी कई गुना ज़्यादा लोग बैठे थे. गाड़ी अटारी जा रही थी. रचना ने अपनी बच्ची को दोनों हाथों से ऊपर उठाया और एक दूसरी जो इनको तनिक भी नहीं जानती थी, उसने बच्ची को खींच लिया. रचना ने अपने हाथ जब दोबारा ऊपर उठाये तो उस औरत ने उसे भी ऊपर खींच लिया. तभी इंजन ने सीटी बजायी और गाड़ी चल पड़ी. रचना अभी भी रो ही रही थी. उस औरत ने कहा "...रो मत भाभी जी,....यहाँ हर कोई रो रहा है, .....हर किसी ने किसी को खोया है.....आपको तो लम्बी लड़ाई लड़नी है अभी....चुप हो जाओ ".

ठीक उसी वक़्त धीरे-धीरे चलती गाड़ी पर हथियारबन्द दंगाइयों ने हमला कर दिया. उनका नेता प्लेटफार्म पर चिल्ला रहा था "...तुम लोगों ने क्या सोचा ?...तुम हिंदुस्तान चले जाओगे और हम तुमको जाने देंगे ?.....हम इस गाड़ी को पटेल और नेहरू को तोहफे में देंगे". उनम से कुछ गाड़ी की छत पर भी चढ़ गए और मारकाट शुरू कर दी. रचना अपनी बच्ची को कलेजे से लगाए एक डिब्बे की छत से दूसरे डिब्बे की छत की ओर भागी. वो अकेले नहीं भागी बल्कि हज़ारों की भीड़ पागलों की तरह अपनी ज़िन्दगी बचाने के लिए भागी. इसी आपाधापी में रचना की गोद से वो २- महीने की बच्ची कपड़े के किसी छोटे से गट्ठर की तरह छिटक कर पहले डिब्बे की छत, फिर छत से टकराकर गाड़ी से नीचे गिर पड़ी. रचना पागल हो गयी थी......पूरी ताक़त से वो कितनी ही बार चिल्लाई होगी....मगर किसी ने भी सुना नहीं शायद. जब ज़िन्दगी दाँव पर लगी हो तो कोई कुछ नहीं सुनता. ट्रेन अब पूरी रफ़्तार पकड़ चुकी थी और दंगाई भी जा चुके थे. रचना भी बेहोश हो चुकी थी.

दोपहर बाद गाड़ी अटारी पहुंची. रचना एक ज़िंदा लाश की तरह, पथराई हुई और भावनाशून्य आँखें लिए स्टेशन से बाहर आयी. उसके कंधे पर केवल एक बैग लटक रहा था जिसमे कुछ दवाएं , कपड़े और ज़रूरी काग़ज़ था.....बाकि सामान कहाँ, उसको कुछ भी याद न था. बिना किसी से कुछ बात किये, कुछ पूछे वो एक अनजान सी सड़क पर चलने लगी. वह एक प्राइमरी स्कूल की ईमारत के पास पहुंची जहाँ प्लास्टिक के बर्तनों में कुछ खाना वगैरह बांटा जा रहा था. रचना ने उधर देखा भी नहीं और सीधे स्कूल के फाटक से लगते हुए एक बड़े से आम के पेड़ के पास पहुँच कर वहीँ छाँव में स्कूल की दीवार पर पीठ टिका कर ज़मीन पर बैठ गयी. एक पैर ज़मीन पर फैला था, दूसरा पैर मोड़ कर घुटना ऊपर किये हुए, और घुटने पर एक हाथ की कुहनी टिकाये रचना सामने उड़ती हुई धूल को बिना पलक झपकाए देख रही थी. अब तो आंसू भी नहीं गिर रहे थे. शायद वो सोच रही थी कि "जीवन में सब कुछ तो देख लिया, बस मरना ही बाकी रह गया है". एक बूढ़ी औरत जो खाना बांटने की निगरानी कर रही थी ,रचना के पास कुछ खाना लेकर गयी "बीबी जी, कुछ खा लो. आप बड़े थके और बड़े दुःखी लग रहे. मैं क्या बोल सकती हूँ ?......यहाँ हर किसी की एक दर्द भरी दास्तान है........किसी के भी न सोच पाने , न समझ पाने जितना दुःख और कष्ट है.......कुछ खाना खा लो बीबी जी.........क्या नाम हुआ बीबी जी आपका ? ". रचना ने कुछ बोला नहीं ,जैसे कुछ सुना ही न हो. पत्थर के बुत जैसे बैठी थी वह. बूढ़ी औरत भी बगल में खाना रख कर चली गयी.

शाम के ५ बज गए थे. साँझ हो गयी थी. खाना बांटने वाले दल के लोग खाली बर्तन इकट्ठे कर रहे थे, उन्होंने उस जगह पर अच्छे से झाड़ू लगायी और फिर पानी छिड़क कर धुलाई की. फिर वो सब अपना सामान लेकर स्कूल के भीतर जाने लगे. वह बूढ़ी औरत फिर से रचना के पास आयी जो वैसे ही पत्थर होकर बैठी हुई थी. खाना वहां नहीं था और प्लास्टिक के बर्तन चमक रहे थे जिस से उस औरत ने अंदाज़ा लगा लिया कि कुत्तों ने ये दावत उड़ाई है. उस महिला ने फिर पूछा "बीबी जी, क्या नाम है आपका ?" रचना ने उसको देखा , फिर आस-पास चारों ओर देखा , फिर बहुत धीरे से बोली "....नाम.......गुर .......गुरमीत".

वो औरत गुरमीत को स्कूल के अंदर ले गयी. वहां एक महिला के पेट में बहुत ज़्यादा दर्द उठा हुआ था. वो रोये जा रही थी. ये देख कर गुरमीत उर्फ़ डॉक्टर रचना उसके पास गयीं और अपने बैग में से कुछ दवा निकाली "एक अभी ले लो, १५ मिनट में आराम हो जायेगा. फिर दो दिन सुबह-शाम खा लेना, अच्छे हो जाओगे आप". १५ मिनट बाद वो महिला मुस्कुरा रही थी. बूढ़ी औरत ने गुरमीत से पूछा "आपको दवा के बारे में कैसे जानकारी हुई बीबी जी?....और आपका लहज़ा भी हमारे जैसा तो नहीं है". गुरमीत ने हँस के जवाब दिया "मैं डॉक्टर हूँ" .

अगले ढाई महीने में गुरमीत की स्कूल-सह-रिफ्यूजी कैंप में बहुत सी महिलाओं से दोस्ती हो गयी जो उसकी जानकारी, तहज़ीब और हिम्मत के कारण उसकी बड़ी इज़्ज़त करतीं थीं. गुरमीत भी कैंप में मरीज़ों की सेवा करके खुद को गमगीन हालात से बाहर निकालने की कोशिश कर रही थी. एक सुबह नाश्ते के बाद कई औरतें वहां आपस में गप्प कर रहीं थीं कि किसी बच्चे के ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनाई दी. वो लोग बाहर आयीं तो देखा की ५-६ बरस का एक छोटा बच्चा ज़मीन पर बेहोश पड़ा है. वह घायल था और कपडे गंदे, कई जगह से फटे हुए थे और उन पर जगह-जगह ख़ून के धब्बे पड़े थे. बच्चे के सीने पर बैठ कर २- ढाई महीने की एक बच्ची रोये जा रही थी. वो महिलाएं तुरंत ही उन दोनों को उठा कर स्कूल के अंदर ले गयीं।


भाग ४- इलाहाबाद


अगले ३-४ महीने अच्छे बीते. गुरमीत कैंप में बच्चों की देखभाल किया करती थी लेकिन पूनम पर उसका ख़ास ध्यान रहता था. पूनम उसको अर्चना की याद दिलाया करती थी. गुरमीत पूनम से इतना प्यार करने लगी थी कि जब पूनम भूख से बिलख कर रोती थी तो गुरमीत उसको अपना दूध भी पिलाती थी. बेचारा छोटा जीवन ये जान भी नहीं पाता था कि क्यों उसकी बहन इतनी खुश हो जाती थी, जब कभी भी वह गुरमीत को देखती थी. गुरमीत का पूनम के साथ बड़ा प्यारा रिश्ता बन गया था.

एक दिन दोपहर के खाने के बाद हमेशा की तरह लोग दोपहर की नींद लेने अपने बिस्तरों पर चले गए. जीवन और उसकी बहन सो रहे थे जब उनके बिस्तर के बगल से गुरमीत गुज़र रही थी. उसने दोनों को देखा. वह रुक गयी और उनके बिस्तर पर ही बैठ कर आराम करने लगी. वो उन्हें देख कर मुस्कुराने लगी और दोनों के माथे को चूम लिया. फिर उसके दिमाग में ख़याल आने-जाने लगे "ऐसा लगता है की अर्चना ही पूनम के रूप में दोबारा पैदा हुई है.....कितनी सुन्दर बच्ची है ये !.....लेकिन इस बच्चे के साथ, अपने भाई के साथ इसकी क्या ज़िन्दगी होगी ?.....कैसे खाना खिलायेगा, कैसे पालेगा ये इसको ?......कैसे ख्याल रख पायेगा इसका ?.......ये काम मैं क्यों नहीं कर सकती ?.......मैं इस बच्ची को दूध पिलाती हूँ. ......इसका ख्याल रखती हूँ.......मुझे इसकी माँ क्यों नहीं होना चाहिए ?.....मैं माँ तो थी ही लेकिन ऊपर वाले ने मेरी बेटी छीन ली मुझसे.......अब मैं पूनम को अर्चना क्यों नहीं समझूँ ?.......ग़लत क्या है इस में ?......मैने किसी का कोई बुरा नहीं किया ?.....फिर भी भगवान ने मुझसे मेरा सब कुछ छीन लिया.......मेरे अरुण , मेरा सास-ससुर.......मेरी अर्चना.......सब कुछ ले लिया मेरा. अब अगर मुझे पूनम के अंदर अपने जीने की उम्मीद दिख रही है तो इसमें बुरा क्या है ?.......मुझे लगता है कि पूनम के लिए मैं अपनी ज़िन्दगी जी सकती हूँ.......मैं इसे नहीं जाने दे सकती.......मैं जाने दूंगी भी नहीं.....मेरी बची हुई ज़िन्दगी में जो भी थोड़ी बहुत ख़ुशी, ख़ूबसूरती आ सकती है, उसे लाने वाली यही बच्ची है". और तुरंत ही गुरमीत उर्फ़ डॉक्टर रचना ने एक फैसला किया. उन्होंने सोती हुई पूनम को अपनी गोद में धीरे से उठाया, ये पूरा ध्यान रखा कि सभी सो रहे थे और कोई भी देख नहीं रहा था. फिर अपने बैग में कुछ दवाएं, और अपनी बेशकीमती जमा-बचत वगैरह रखी. एक कंधे पर बैग लटकाया और गोद में पूनम को लेकर तत्काल कैंप से दबे पाँव निकल भागी. डॉक्टर साहिबा ने एक क्षण के लिए भी बेचारे जीवन के बारे में तनिक भी नहीं सोचा.

बच्ची को लेकर वह तुरंत अटारी रेलवे स्टेशन पहुंची जहाँ तुरंत ही दिल्ली जाने वाली अगली गाड़ी का टिकट ले लिया. थोड़ी देर बाद ही गाड़ी आयी और रचना लपक कर उसमें चढ़ गयीं. गाड़ी सुबह दिल्ली पहुँच भी गयी थी. रचना ने यहाँ आकर फिर सोचा "...मैं इस बच्ची को किसी भी हाल में जाने नहीं दे सकती........ऐसी जगह जाउंगी कि वो जीवन अपनी पूरी ज़िन्दगी में कभी न पहुँच सके". हैरानी है कि एक डॉक्टर भी ऐसा कर सकता है और ऐसा सोच भी सकता है. लेकिन उस वक़्त कोई हैरानी नहीं थी शायद. इंसानियत के उसूलों पर चलने का ठेका क्या सिर्फ रचना ने ले रखा था ? क्या शेखपुरा वालों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी ?....क्या गाँधी-जिन्ना-नेहरू-लियाक़त-पटेल की कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी ? क्या लाहौर में ट्रेन की छत पर जो लोग थे, उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी ?.....फिर रचना की ज़िम्मेदारी क्यों हो ?

एक गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी थी. रचना ने एक खिड़की के पास बैठे यात्री से पूछा "गाड़ी कहाँ जाएगी, भाई साहब ?", यात्री ने कहा "इलाहाबाद". रचना को नहीं पता था की नक़्शे पर इस नाम का शहर कहाँ पड़ता है, फिर भी उसन तुरंत इलाहाबाद की एक टिकट ली, और गाड़ी में सवार हो गयीं. थोड़ी देर बाद एक पूरी तरह अनजान शहर की ओर गाड़ी चल पड़ी, और साथ में रचना और पूनम की ज़िन्दगी भी.

रचना इलाहबाद आयी. ये शहर बंटवारे और उस से जुड़े दंगे-फ़सादों से बहुत कम दो-चार हुआ था. पंजाब के मुक़ाबले ज़िन्दगी काफी आसानी से चलने वाली थी. रचना को एक अस्पताल में नर्स की नौकरी मिल गयी. शुरू में शहर में उसको दिक्कत हुई. ज़बान, लहज़ा, खान-पान, रिवाज़, सब कुछ उसके लिए अजनबी ही था. रहने को ठिकाना भी नहीं था कोई तो अस्पताल में ही रहने की जगह मांग ली. लेकिन जब आपके पास कुछ पैसा, थोड़ा ज़्यादा दिमाग,और हिम्मत और हौसला और हार न मानने का जज़्बा हो तो इन सब चीज़ों से ज़्यादा मुश्किल नहीं होती. नर्स रचना , धीरे धीरे डॉक्टर रचना हो गयीं. जहाँ तक पिछले २० सालों का सवाल है, डॉक्टर रचना इलाहाबाद की चंद बेहद कामयाब महिलाओं में शुमार थीं और अपनी बेटी अर्चना पर जान छिड़कती थीं.

उन्होंने अगली सुबह, साइकिल की दुकान पर कारिंदा भेजा. नौकर वहां पहुंचा तो जीवन और दुकान का मालिक कुछ बात कर रहे थे. नौकर ने मालिक से पूछा "आपके यहाँ मिस्टर जीवन कौन हैं ? ", मालिक ने जीवन की ओर इशारा किया तो नौकर ने कहा "आपको डॉक्टर रचना जी ने आज शाम को मिलने के लिए बुलाया है. शाम साढ़े छः बजे आ जाईयेगा. समय से आईयेगा, मैडम को लेट-लतीफी पसंद नहीं है".

जीवन के मन में कुछ उत्सुकता हुई "...क्या पता गुरमीत मैडम का कुछ पता चला हो.....फिर पूनम का भी कुछ पता चल सके. ...".

शाम को तय वक़्त पर जीवन डॉक्टर रचना के बैठक कक्ष में दाखिल हुआ. नौकर ने बैठ कर इंतज़ार करने को कहा. जीवन ख़यालों में ही उलझा हुआ था कि डॉक्टर रचना आ गयीं. जीवन ने ही पहले पूछा "....मैडम, साइकिल तो ठीक है न ?....अर्चना मैडम को पसंद आयी साइकिल ?", डॉक्टर रचना ने जवाब दिया "...हाँ हाँ....बिल्कुल. उसको लेकर चिंता की कोई बात नहीं है". डॉक्टर रचना के माथे पर तनाव की रेखाएं उभर आयीं थीं "मैंने तुमको दूसरी ज़रूरी बात करने के लिए बुलाया है. दरअसल मैं तुम्हे कुछ ज़रूरी बात बताना चाहती हूँ........ध्यान से सुनो". जीवन अधिक गंभीरता से, ज़्यादा ध्यान से सुनने लगा. डॉक्टर रचना अपने सोफे पर से उठीं और दीवार पर लगी एक तस्वीर के पास जा कर खड़ी होकर उसको देखने लगीं. कुछ देर तक देखती रहीं. अर्चना के बचपने की तस्वीर थी वह. वो स्कूल से कोई इनाम जीत कर लायी थी, तब माँ-बेटी बड़ी खुश थीं, उस वक़्त की तस्वीर थी वो. जीवन डॉक्टर रचना का चेहरा देख रहा था. फिर रचना ने ख़ामोशी तोड़ी "..कल तुमने गुरमीत के बारे में कुछ पूछा था न ?", जीवन ने बेचैन होकर कहा "..जी.....जी मैडम...", रचना बोलीं "जीवन.....दरअसल मैं ही गुरमीत हूँ..." .जीवन को बिलकुल अंदर तक ज़ोर का झटका लगा लेकिन वो उस झटके के आगे कुछ भी नहीं था जो रचना की अगली बात से लगने वाला था "....और मेरी बेटी अर्चना वास्तव में तुम्हारी बहन पूनम ही है". ये सुनकर जीवन अपना संतुलन खो बैठा और सोफे पर ही गिर पड़ा. उसके लिए सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था. उसके गले से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी. डॉक्टर रचना उसके पास गयीं, और सोफे पर उसके बगल बैठ गयीं, फिर उसके सिर पर हाथ रखा और उसको ढांढ़स बंधाते हुए पानी पीने को दिया. फिर उन्होंने कुछ देर बाद बोलना शुरू किया "....उस दिन जब तुम और सब लोग दोपहर में खाने के बाद सो रहे थे तब मैंने तुम्हारी बगल सोती हुई तुम्हारी बहन को चुरा लिया था और सीधे कैंप से बाहर भाग आयी थी....". जीवन अभी भी फर्श पर देख रहा था और उसके आंसू बहे जा रहे थे. . रचना ने फिर बड़े विश्वास से कहा "....और मुझे नहीं लगता कि मैंने कुछ भी ग़लत किया है". जीवन ने गुस्से से लाल आँखों से उनकी ओर देखा "आपकी हिम्मत भी कैसे हो सकती है मेरे ही आगे बैठ कर,मुझसे ही ये कहने की कि इसमें आपकी कोई गलती नहीं है ?" डॉक्टर रचना ने उसी भरोसे से जवाब दिया "....हाँ, ये गलत नहीं था क्योंकि उस बच्ची की माँ वहां मैं ही थी.....मेरा ही दूध पिया करती थी वो......किसी भी और से ज़्यादा मैं उसका ख्याल रखती थी.......क्योंकि तुम्हारी पूनम मुझे मेरी अर्चना की याद दिलाती थी....", अब डॉक्टर साहिबा की भरोसे वाली आवाज़ का दम उखड़ने लगा था और अब उसमे वही बेबसी आ रही थी जो लाहौर रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की छत पर बैठ कर भागते वक़्त थी. फिर रचना ने रोते हुए अपनी पूरी दास्तान, शेखपुरा से इलाहाबाद तक, जीवन के आगे उधेड़कर रख दी.

अगले कुछ लम्हों तक कमरे में सिर्फ रचना की बेबस, लाचार सिसकियाँ ही सुनाई देती रहीं, बाकी और कुछ भी नहीं.

किसी तरह खुद को फिर से इकठ्ठा करके डॉक्टर रचना ने फिर बोलना शुरू किया "...मैंने सोचा कि भगवान ने अर्चना को तो मुझसे छीन ही लिया......शायद उसने उसे पूनम की शक्ल में वापस भेजा हो........तुम्हारी बहन शायद उस वक़्त मेरी ज़िन्दगी की एकलौती और आखिरी उम्मीद बची थी जिसके सहारे मैं जी सकती थी. उसके बिना मुझे अपनी ज़िन्दगी में कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था. जानते हो जीवन.....मैं इतनी स्वार्थी, निर्दयी और निकृष्ट हो गयी थी कि मैंने उस बच्ची के ५ बरस के भाई के लिए कुछ भी नहीं सोचा.......और यहाँ तक कि अटारी से दिल्ली तक आने के बाद भी मेरे मन में यही ख्याल आया कि किसी ऐसी जगह जाऊँ जहाँ तक वह जीवन कभी भी नहीं पहुँच पायेगा.......फिर मैं इलाहाबाद तक आ गयी....लेकिन कुदरत का खेल देखो जीवन.......तुम यहाँ तक भी आ ही गए".

जीवन चुपचाप सुन रहा था.

रचना ने बोलना जारी रखा "जीवन. ...आज की तारीख में मैं कामयाब हूँ, सक्षम और समर्थ हूँ, तुम्हारी बहन को एक बहुत अच्छी ज़िन्दगी मिल रही है जो तुम कभी नहीं दे सकते. वो यहाँ के बेहतरीन स्कूल में पढ़ी है. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उसका दाखिला भी हुआ है. वह सबसे उम्दा खाना खाती है और शानदार कपड़े पहनती है. उसकी शादी भी लखनऊ के एक नामचीन खानदान में तय की है जो बस अब से १५ दिन बाद ही है....". ये सुनकर जीवन बुरी तरह रोने लगा. डॉक्टर रचना ने फिर धीरे से उस से शांत हो जाने को कहा और बोलीं "देखो जीवन.....मैं तुम्हारी गुनहगार तो हूँ ही, इसमें कोई शुबहा नहीं है. तुम जो भी सज़ा मुक़र्रर करोगे, मैं भुगतने को तैयार हूँ, बस अर्चना को......पूनम को.......मुझसे अलग मत करो".

जीवन थोड़ी देर बाद बोला "मैडम....क्या मैं पूनम से मिल सकता हूँ ?", रचना ने कहा "मैं जानती हूँ कि मैं गलत ही कर रही हूँ लेकिन......सच्चाई ये है कि मैं उस को , तुम्हारा भाई है ये, ऐसा बताकर तुमको उस से मिलने की इजाज़त नहीं दे सकती. मैं नहीं चाहती कि मेरे अलावा कोई और भी उसके जज़्बातों को छू सके.......मुझे डर लगता है जीवन........तुम अगर उस से मिलना चाहो तो मेरी मौजूदगी में ही मिल सकते हो, वर्ना नहीं". जीवन ने विनती की "...बस एक बार मैडम. .....उसकी शादी के पहले मिल लूँ.....". डॉक्टर रचना ने फिर कहा "मैं तुमको शादी में ख़ास मेहमान के तौर पर बुलाऊंगी....तुम्हारे आने-जाने का बंदोबस्त मैं कर दूंगी और तुम हमारे ही घर में रुकोगे.....तब तुम उस से कुछ शर्तों के साथ मिल सकते हो ".

जीवन ने थोड़ी देर सोचा, फिर राज़ी हो गया. उसने डॉक्टर रचना का हार्दिक धन्यवाद किया और जल्दी से घर बाहर निकल आया. वह अभी भी रो ही रहा था लेकिन अंदर किसी कोने में शायद वह खुश भी था. कुछ दूरी पर ही एक मस्जिद थी. जीवन ने चारों तरफ देखा, जान-पहचान का कोई नहीं था. फिर पाकिस्तान के लल्लो गांव का वो शाहिद, जो अब हिंदुस्तान में जीवन था, मस्जिद में दाखिल हुआ. ऐसा वह अक्सर करता था. किसी मस्जिद में चारों तरफ देखने के बाद ही जाता था. मस्जिद में जाकर उसने ख़ास तौर पर दुआ की. उसने अल्लाह का लाख-लाख शुक्रिया अदा किया कि सपना अब भी बिलकुल महफूज़ और बहुत खुश है और आगे भी हमेशा रहेगी. माँ से किया हुआ आखिरी वायदा टूटा नहीं था बल्कि पूरा हुआ था.

10 दिन बाद पूनम की शादी का निमंत्रण उसको मिला जो अब अर्चना थी. जीवन ने अपने लिए नए कपड़े ख़रीदे. अर्चना और उसके पति के लिए अच्छे नए कपड़े और तोहफे लिए, और हाँ.....डॉक्टर रचना के लिए भी साड़ियां और तोहफे लिए. फिर वह इलाहाबाद के लिए निकल गया।

आज वो काफी ख़ुश लग रहा था और बैंक्वेट हॉल में इधर से उधर घूम रहा था. वो एक लड़की को लाल जोड़े में देखना चाह रहा था जो ये भी नहीं जानती थी कि जीवन नाम का कोई शख्स इस दुनिया में है भी और किस वजह से लुधियाना से यहाँ तक आया है. जीवन की ख़ुशी पर आज कोई रोक नहीं थी फिर भी उसे अपने जज़्बातों पर काबू किये रहना था. वह हॉल में एक जगह पर खड़े होकर शादी में आये मेहमानो को देख रहा है. वे सभी शानदार, कीमती कपड़ों में लिपटे हुए संभ्रांत लोग हैं, उनकी जवान बेटियां भी हैं जो खुले बाल रखना पसंद करतीं हैं. वे बड़ी गाड़ियों में आ रखे हैं. वे लोग जल्दी मुस्कुराते नहीं लेकिन आज कैमरों की लाइटों के आगे मुस्कुराने की तयारी कर रहे हैं. वे लोग फ़र्ज़ी मुस्कान देने में भी माहिर हैं.......लेकिन खुद जीवन की मुस्कराहट......वो कैसी थी ?


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama