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Vinita Shukla

Abstract

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Vinita Shukla

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हाशिये पर सच

हाशिये पर सच

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अनुराधा घर जाने को, बेचैन थी। उसके इमीडियेट बॉस छुट्टी पर थे, इसलिए ऑफिस में काम ज्यादा बढ़ गया। उसे रहरहकर अपनी बेटी नीरा की चिंता हो रही थी। नीरा घर में, अकेली थी। उनका पालतू कुत्ता गबरू, जरूर उसके साथ था; लेकिन माँ का दिल कहाँ मानता है ?! अनुराधा ने बेटी को फोन करके पूछा, ‘क्या हो रहा है स्वीटी ?’ ‘कुछ नहीं ममा...थोड़ा बोर हो रही हूँ...मीनू और गुड्डी, पार्क में शटल खेलने गयी हैं। नीचे से आवाज़ देकर, बुला रही थीं, पर मैं नहीं गई’ थके स्वर में, नीरा ने कहा। 

‘ठीक किया बेटा...जब तक मैं ना आऊँ, कहीं नहीं जाना’

‘लेकिन गबरू के साथ तो जा ही सकती हूँ’

‘मैंने कहा ना, दस मिनट में पहुंच रही हूँ!’

‘पर ममा...!’

‘पर- वर कुछ नहीं...ऑनलाइन क्लास का, होमवर्क कर लिया ?’

‘वो तो कबका हो गया!’

‘ओके जस्ट वेट फॉर मी’ कहकर, अनुराधा ने फोन काट दिया। आजकल, अक्सर... बेटी से इस तरह की नोकझोंक, हो जाया करती है। कोरोना ने नित- नई मुसीबतें खड़ी कर रखी हैं- उस जैसी कामकाजी महिलाओं के लिए। नीरा बिटिया, वयःसंधि की देहरी पर खड़ी है। उसकी सुरक्षा को लेकर, चिंतित रहना स्वाभाविक है। कोरोना नहीं था तो निश्चिन्त होकर ‘डे केयर’ के भरोसे, छोड़ देती थी। अब तो स्कूल के साथ साथ, डे केयर भी बंद रहने लगे हैं। बेटी के अकेलेपन को दूर करने के लिए, अलसेशियन ब्रीड का कुत्ता, गबरू भी खरीद लाई। नीरा के लिए, वह एक प्रहरी जैसा भी था। गबरू के आने के बाद, अनुराधा, बेटी की तरफ से; एक हद तक, आश्वस्त हो गयी...फिर भी कभी कभी फिकर हो ही जाती है- जैसे कि आज...!

गनीमत थी कि ऑटो, ऑफिस के गेट पर मिल गया। घर पहुँचने में बस ७-८ मिनट लगने थे। एक दो मिनट तो ऑटोवाले को रोकने, दाम तय करने और पैसे चुकाने में लग ही जाते हैं। अपना वाहन हो तो ५ मिनट में घर पहुंचा जा सकता है। इन दिनों, अनुराधा को इस बात का पछतावा भी रहता है कि उसने ड्राइविंग नहीं सीखी। पति चाहते थे कि उसे एक स्कूटी उपहार में दें। उनकी इच्छा थी कि पत्नी, वाहन चलाने का विधिवत प्रशिक्षण ले और लाइसेंस भी हासिल करे...किन्तु उनके आग्रह पर वह कह उठती, ‘मोहन...जब तक आप यहाँ हैं...मुझे इसकी क्या जरूरत ?! मोहन रोज उसे ऑफिस और नीरा को स्कूल छोड़ते हुए, काम पर चले जाते। जीवन कितना निर्विघ्न रूप से चल रहा था! 

 अनुराधा रेलवे विभाग में है। सरकारी कॉलोनी में उसे क्वार्टर मिला हुआ है। पति मोहन बिजली विभाग में अभियंता हैं। तीन बरस पहले उनका स्थानान्तरण, निकटवर्ती जिले में हो गया। उसके बाद तो, अकेले दम पर, घर संभालना पड़ता...अनुराधा के लिए यह, दुश्वारियों की शुरुआत थी। एक साल तक, सब ठीकठाक चला। नीरा शेयर्ड टैक्सी में, सहेलियों संग स्कूल चली जाती। बेटी के निकलने के बाद, अनुराधा, स्टेशन स्थित, अपने ऑफिस का रुख करती। पैदल चलकर जाने में, बीस- पच्चीस मिनट लगते। मॉर्निंग वाक भी हो जाता। नीरा स्कूल के बाद, वहां से चार कदम दूर, चाइल्ड केयर सेंटर, पहुँच जाती। स्कूल के दूसरे कई बच्चे भी उधर रहते। डे केयर में, बच्चों को अल्पाहार दिया जाता और गृहकार्य में सहायता के लिए, ट्यूटर भी होते। 

 मोहन प्रायः सप्ताहांत में, उनके पास आ जाते और सोमवार को सुबह पाँच बजे निकल जाते। दूसरे शहर अपने कार्यालय तक, पहुँचने में, उन्हें चार से पाँच घंटे लग ही जाते। वह सीधे वहाँ जाकर, अपनी हाजिरी दर्ज करते। खाना ऑफिस की कैंटीन में होता। ऐसे में घर की बहुत याद आती। घर में तो पत्नी उनके साथ मिलकर, कुछ अच्छा पका ही लेती थी। शाम को महाराजिन आकर, बचे हुए काम, निपटा डालती। दो जगह बँटी हुई गृहस्थी, परिवार पर अतिरिक्त आय का बोझ डाल रही थी...और उस पर अलगाव का दुःख!

फिर भी... ज़िन्दगी की गाड़ी, सुचारू रूप से ना सही; कम से कम, एक ढर्रे पर तो चल ही रही थी। जबसे कोरोना की मार पड़ी है- सब कुछ, बिखर सा गया है। दो सालों से नीरा स्कूल नहीं गयी। मोहन भी कभी - कभार, ही आ पाते हैं। नौकरानी पर निर्भरता, कम हो गयी है। उसका काम सीमित करना पड़ा। ज्यादा देर वह घर पर मौजूद रही तो संक्रमण का खतरा हो सकता है। अनुराधा उससे, ऑफिस- आवर्स के बाद, काम करवाती है। दोनों माँ- बेटी, थोड़ा बहुत खा-बना लेती हैं। कोरोना महामारी की पहली लहर कुछ मंद पड़ी तो बारी बारी से, नीरा की दादी और नानी को, बुला लिया था; ताकि बच्ची को अकेले ना रहना पड़े। परन्तु उन वृद्ध स्त्रियों की, अपनी दूसरी संतानों के प्रति भी, जिम्मेवारियां थीं; अब वे नीरा का दायित्व, वहन करने में, असमर्थ थीं। 

कार्यस्थान में, अनुराधा का मन नहीं लगता। एक आशंका सी बनी रहती है; कैशोर्य की ओर कदम बढ़ाती, पुत्री को लेकर। उसके साथ काम करने वाले, दूसरे कर्मचारी भी परेशान रहते हैं- खासकर महिलाएं। जाने बच्चे, उनकी पीठ पीछे- क्या गुल खिलाते होंगे...कंप्यूटर गेम खेलकर, आँख खराब करते होंगे...ठीक से पढ़ते- खाते होंगे भी- या नहीं...पोर्न-साईट तक तो नहीं पहुँच जाते...वगैरा वगैरा!! स्कूल में रहते थे तो बेफिक्री थी। नौकरीशुदा औरतों के लिए, यह; उनके खुद के इम्तेहान का समय था।

यूँ तो उनकी बिल्डिंग, कैंपस, अड़ोसी- पड़ोसी- सब ठीक थे पर सबसे बड़ा खटका, रमन से था। वह एक तलाकशुदा, सनकी इंसान था। बात बात पर लोगों से भिड़ जाना, उसकी फितरत में था। ये बन्दा कई सालों से, उनके सामने वाले फ्लैट में रह रहा था। रमन के साथ, कोई ज्यादा बातचीत नहीं करता था। उसके नीचे वाले तल में, रह रही श्रीमती वर्मा का कहना था कि जब भी उनका बेटा हॉस्टल से आता है; वह जानबूझकर, कार या घर की चाभी उनके टेरेस पर फेंक देता है; ताकि चाभी वापस लेने के बहाने, बेटे से बात कर सके। बेटा बाहर निकलता है तो हालचाल लेने लगता है। अब तो कोरोना के कारण, बच्चा घर पर ही है...इस कारण रमन शर्मा, जब तब... कॉलबेल बजा ही देता। श्रीमती शीला वर्मा को, उसकी नीयत, खोटी लगने लगी थी।

शीला जी अब खुद ही किवाड़ खोलती हैं। एक बार तो वह विदेशी चाकलेटों का पैकेट लेकर, उपस्थित हुआ था। कह रहा था, ‘मैडम...मेरे भाई फॉरेन टूर पर गये थे... वहीं से लाये। आप लोग भी ट्राई करें’ शीला जी ने पैकेट लेकर, संक्षिप्त सा धन्यवाद दिया और किवाड़ बंद कर लिया। वह नहीं चाहती थीं कि रमन, बच्चे को लेकर, सवाल- जवाब करे। सीढ़ियों से ऊपर जाते वक्त, शर्मा को, नीरा भी दिखी थी। उसने चॉकलेट का एक पैक, बच्ची की तरफ बढ़ाया भी लेकिन नीरा ने कठोरता से ‘नो थैंक्स अंकल’ कहकर, मना कर दिया...छठी इन्द्रिय तो बच्चों में भी होती है!

अनुराधा ने इस बात की चर्चा जब मोहन से की तो उन्होंने कहा, ‘तुम ओवररियेक्ट कर रही हो डियर। रमन को बड़े लोग मुंह नहीं लगाते, इसलिए बच्चों संग बात कर, मन बहलाता है...अकेला है ना ...वह खुद भी तो दो बच्चों का बाप है। आज तक किसी ने उसे, कोई अश्लील हरकत, करते नहीं देखा.’ अनुराधा को, पति की, शर्मा के पक्ष में की गई पैरवी, रास नहीं आती। शकल- सूरत से ही पगलैट लगता है...और रंग ढंग से- संदिग्ध!

नये जमाने की हवा बहुत खराब है। किसी के चेहरे पर लिखा नहीं होता कि वह व्यक्ति कैसा है। विश्वविद्यालय परिसर में रहने वाली, उसकी सहकर्मी रंजना ने बताया कि विज्ञान विभाग में काम करने वाले, सोमेन्द्र स्वामी की पत्नी, जब स्नान कर रही थी तो दो लफंगों ने खिड़की से तांक- झाँक की। रंजना तो जब पति के साथ, बाहर निकलती हैं, अपनी दो जवान बेटियों को, ताले में बंद कर देती हैं। अनुराधा ने भी इस सम्भावना पर विचार अवश्य किया, पर उसका मन नहीं माना।

बालकों पर, अतिरिक्त सुरक्षा का भार लादने से; उनकी मानसिक स्थिति, प्रभावित हो सकती है। सम्वेदनशील आयु में तो वे यह तक सोच सकते हैं कि उनके अभिभावक, उन पर, विश्वास नहीं करते। उनका आत्मविश्वास भी कमजोर पड़ सकता है...और फिर... आपातचिकित्सा जैसी कोई आवश्यकता हो...याकि कोई अग्निकांड ही हो जाए तो बच्चा फंसकर रह जाएगा। बाहर निकलकर खुद को बचा नहीं सकेगा, न ही किसी से सहायता मांग सकेगा। वर्तमान समस्या का समाधान, सहज नहीं लगता था। अनुराधा शाम को घर आती तो कामवाली को फोन लगा देती।

कामवाली का घर, बगलवाली गली में ही था। फोन आने पर, वह झट से हाजिर हो जाती। यह रोज की कहानी थी। नीरा अकेले घर पर रहती तो अनुराधा किसी को आने नहीं देती। अकेली लड़की के साथ, अतिरिक्त सजगता, अनिवार्य हो जाती है। बेचारी बच्ची, ऑफिस से उसके आने का, इंतज़ार करती रह जाती है। जिनके यहाँ गृहणी माएं या बुजुर्ग हैं, उनके बच्चे बेखटके, बड़ों की इजाजत लेकर, खेलने चले जाते हैं। और नीरा...! सुबह कार्यालय जाने को निकली, माँ का चेहरा, शाम के सवा पाँच, साढ़े पाँच तक ही दिखाई पड़ता है...तब जाकर वह, घर से निकल पाती है। सहेलियों के साथ थोड़ा- बहुत, लॉन टेनिस खेलने या रस्सी कूदने के बाद- फिर से वही चहारदीवारी। गबरू का ‘नित्यकर्म’ भी फ्लैट के भीतर, टेरेस पर जमी मिट्टी के, इर्द- गिर्द ही ‘निपट’ जाता। टेरेस का छोटा बगीचा, उसके द्वारा प्रदत्त, जैविक खाद से समृद्ध होता जा रहा है।

माँ की आवश्यकता से अधिक सावधानी, दिन के समय गबरू को, बाहर ले जाने की अनुमति नहीं देती। शाम को वह बेचारा भी बाहर की हवा खा लेता है। गबरू आठ हफ्ते का, होने वाला था। अस्पताल में उसे कोरोना का टीका लगवाने के लिए एक दिन, अनुराधा ने कार्य से अवकाश ले लिया। नीरा को भी जाना था, किन्तु ऑनलाइन क्लास की वजह से, वह जा ना सकी। अनुराधा पशु- चिकित्सालय पहुंची ही थी कि सुपर मार्केट से फोन आ गया। डिलीवरी बॉय सब्जी, फल और राशन का थैला लेकर, उनके यहाँ पहुँचने ही वाला था। अनुराधा ने झूठ कह दिया कि वह घर पर ही है। डिलीवरी बॉय को रोकना व्यवहारिक ना था।

यूँ तो अनुराधा, सप्ताहांत में सामान मंगवाती है पर किसी अज्ञात वजह से, वह जल्दी आ रहा था। उसने नीरा को फोन करके बता दिया कि बॉय घंटी बजाकर, थैला, दरवाजे के बाहर रखकर चला जाएगा... क्योंकि उसे कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करना है। पैसों का भुगतान नहीं करना था। हिसाब- किताब, ऑनलाइन हो चुका था। नीरा को सख्त निर्देश दिया गया कि थैला उठाकर, उसे चुपचाप भीतर रख लेना है। अपने हाव भाव से यह कतई नहीं जताना है कि वह घर पर अकेली है। अनुराधा के दिल में आया कि शीला जी को बेटी का खयाल रहने को कहे; फिर यह सोचकर, इरादा ख़ारिज कर दिया कि जरा- जरा सी बात पर, किसी को तंग करना, सही नहीं।

सब कुछ ठीक ही चल रहा था। ग्रोसरी वाला झोला, दरवाजे पर लगी कॉलबेल बजने के बाद, नीरा ने उदासीन भाव से उठा लिया; फिर इत्मीनान से भीतर जाकर, दरवाजा बंद कर दिया। लड़की को झोले समेत, अंदर जाते देख, सुपरमार्केट वाला लड़का भी वापस लौटने को था कि तभी उसका मोबाइल बज उठा। वह बतियाते हुए, वहीं, छत की तरफ जाने वाली सीढ़ियों पर बैठ गया। दोपहर की तेज धूप, छत पर बने किवाड़ की झिर्रियों से, घुसपैठ करके सीढ़ियों पर उतर आयी थी। जिज्ञासावश लड़के ने ऊपर जाकर देखा। दोनों तरफ वाली छतों के बीच, एक निरापद स्थान था; वहां- जहाँ कोई चोर, आसानी से छुपकर बैठ सकता था। 

अपनी सोच पर, उसे खुद हंसी आ गई। इस बीच नीरा ने, माँ को फोन कर; कॉलोनी में रहने वाली, अपनी सखी बेला के यहाँ जाने की, स्वीकृति माँगी। ऑनलाइन क्लास हो चुकी थी। दोनों लड़कियों को, गृहकार्य में मिले, प्रश्न हल करने थे। 

 ‘बेला के यहाँ, भीतर वाले कमरे में, मत जाना। कोरोना फैला है... किसी के घर घुसना ठीक नहीं...और हां...मास्क पहनकर जाना’ माँ ने ढेरों नसीहतें दे डालीं। 

‘ओके ममा, ध्यान रखूँगी। हम लोग फ्लैट के, बाहर वाले बरामदे में ही बैठेगे। होमवर्क करके वापस आ जाऊंगी..अरे हाँ...गबरू वाला काम हो गया ?’

‘होने ही वाला है। क्यू में तीसरे नम्बर पर हूँ। गबरू बार बार डिस्ट्रैक्ट कर रहा है। फिलहाल उसे खिलौने वाली हड्डी दी है- खेलने को...ज्यादा तंग करेगा तो बॉल दे दूंगी.’

दूसरे तरफ से, नीरा के ठहाके सुनाई पड़े; पर अनुराधा हंस न पाई। वह अनमनी सी थी। बेटी को सीख देना, अभी बाकी था, ‘ ताला ठीक से लगाना... पीला वाला ताला लगाना- अरे वही गोदरेज वाला। उसकी डुप्लीकेट की, मेरे पर्स में है’

‘ओके बाबा...’ नीरा अब झल्लाने लगी थी; लेकिन अनुराधा दम नहीं ले रही थी, ‘जाने से पहले लॉक को चेक जरूर कर लेना’ जवाब में नीरा चुप ही रही। ‘सूपरमार्केट वाली डिलीवरी मिल गई ?’ बेटी को खिजाने के बाद भी माँ, यूँ ही, छोड़ने नहीं वाली थी। उसे अपनी पूरी तसल्ली कर लेनी थी। ‘हां ममा’ इस बार, बिटिया को उत्तर देना पड़ा। 

‘ठीक है जा'

माँ, बेटी ने सोचा होगा कि दिन के सारे काम, निर्विघ्न रूप से, शांतिपूर्वक निपटते चले जायेंगे। उन्हें अनुमान तक न था कि कुछ अनिष्ट भी हो सकता था। इधर लड़का छत वाले जीने से उतरकर, जाने को हुआ; उधर नीरा ताला लगाकर, निकलने वाली थी। लड़के की दृष्टि नीरा पर पड़ी। वह गर्दन पर अटका हुआ मास्क, चढ़ाने जा रही थी। 'तो यह सुंदर, कमसिन लड़की, घर पर अकेली थी’ उसने सोचा। उसकी आँखों ने, हठात ही, विपरीत छोर वाले फ्लैट का मुआयना किया। वहां भी एक अदद ताला लटक रहा था। उसके दिमाग में बिजली की तरह, छत वाली निरापद जगह कौंध गई...साथ ही, एक शैतानी चाल भी!!

वह तेजी से लड़की की तरफ लपका। नीरा की पीठ उसकी तरफ थी। जाते जाते उसे माँ की हिदायत याद आ गयी थी। वह लॉक को खींचकर देख रही थी कि वह ठीक से लगा था अथवा नहीं। लड़के ने पीछे से उसका मुंह दबोच लिया और हाथ पकड़कर, छत की तरफ, खींचने लगा। कहते हैं, हादसा बताकर नहीं आता...सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि ‘ ऊपरवाला साथ है तो डरने की क्या बात है!’ संयोगवश उसी समय, रमन शर्मा प्रकट हुए। वे घर पर, दफ्तर की कोई फाइल भूल गये थे...वही लेने के लिए आये थे। अनजान छोकरे का दुस्साहस देख, आगबबूला हो उठे। उन्होंने झट, उसे एक, झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया। 

छोकरे को दिन में, तारे नजर आ गये। वे उसे और कूटते; पर सदमे से नीरा, बेहाल होने लगी थी। उसे संभालने के फेर में, लड़के को भागने का मौका मिल गया। रमन जानकर नहीं चिल्लाये। शोर मचाकर लड़के को पकड़वाते तो अफवाहें जोर पकड़ लेतीं और अफवाहें एक कुंवारी लड़की को क्या नुकसान पहुंचा सकती थीं - कहने की जरूरत नहीं...! नीरा के पिता की अनुपस्थिति में, उन्होंने स्वयम, एक जिम्मेदार पिता की भूमिका ओढ़ ली। जैसे ही बच्ची के सर पर हाथ फेरा, वह फफक पड़ी। 

वे उसे देर तक समझाते रहे, ‘रोओ मत बिटिया...देखो तुम्हारे जैसी मेरी भी बेटी है। चिंता मत करो...मैं हूँ ना! ‘

नीरा कुछ न बोली। वह सही सलामत बच गयी थी। फिर भी आंसू, थमने का नाम नहीं लेते थे। रमन फिर बोले, ‘डरो नहीं बेटा...उसे तो ऐसा सबक सिखाऊँगा कि उसकी सात पुश्तें भी कांपने लगेंगी। देखा नहीं...कैसे दुम दबाकर भागा डरपोक!’ इतने में नीरा का मोबाइल बज उठा। रमन शर्मा ने उस दिशा में देखा। आवाज बच्ची के बैग से आ रही थी जो खींचातानी में, नीचे गिर गया था। 'देखो बेटा किसका फोन है...तुम्हारी मॉम का तो नहीं...अभी उन्हें कुछ मत बताना. घबरा जायेंगी.’ 

‘नहीं बेला...अभी नहीं आ पाऊंगी.’ नीरा ने कॉल का जवाब देते हुए कहा था. ‘पर क्यों...क्या हुआ ?’ उसकी सहेली हैरान थी। ‘थोड़ी सुस्ती सी लग रही है ...अभी तीन दिन हैं ना, होम- असाइनमेंट, सबमिट करने के लिए...विल सी लेटर’ कहते हुए, उसने रमन अंकल की तरफ देखा था। वहां से, कुछ ना बताने का, संकेत मिला। नीरा ने आगे बात न करके, फोन काट दिया था। रमन शर्मा बोल पड़े, ‘यह क्या बिटिया...अभी भी मुंह लटका रखा है। मेरे हाथ की कॉफ़ी पिओगी ? मूड बिलकुल सही हो जाएगा’ 

‘अभी नहीं अंकल...फिर कभी. कुछ देर पहले ही लंच किया था.’ नीरा अचरच में थी। जिन्हें देखकर, वह रुखाई से भर जाती थी- आज उनके लिए, बोलों में, आप ही शहद घुल गया था! 

‘बिटिया... अब तुम रिलैक्स करो... आर यू श्योर...कॉफ़ी नहीं चाहिए ?’ रमन ने माहौल को हल्का किया। ‘नहीं अंकल’ इस बार नीरा, हल्के से मुस्कराई। ‘फिकर मत करना। तुमको जूडो के, वह दांव- पेंच सिखा दूंगा कि किसी की हिम्मत नहीं होगी- तुमसे पंगा लेने की’ बदले में नीरा के चेहरे पर, एक उजली मुस्कान खिल गयी थी। रमन शर्मा यह कहकर, अपने फ्लैट चले गये कि जब तक, उसकी माँ नहीं आ जातीं, वह घर पर ही रहेंगे। जाते जाते गम्भीरता से बोले थे, ‘कोई भी कॉल बेल, बजाए- मुझे फोन कर देना'

  अपने फ्लैट में जाकर, रमन ने तेजी से, मुआमले पर काम शुरू कर दिया। पहले तो अपने इंस्पेक्टर दोस्त रवि को फोन कर, सारा माजरा समझाया; फिर सुपरमार्केट से, छोकरे के डिटेल्स पता करके, रवि को दिए। पूरा सिलसिला, सावधानीपूर्वक चला...कुछ इस तरह कि किसी को, कानोंकान खबर न हो। नीरा की प्रतिष्ठा का ध्यान रखना, आवश्यक जो था। इतना तो तय था कि उस धृष्ट लड़के की खैर नहीं! अपने ऑफिस का काम, शर्मा ने दूसरे दिन तक के लिए, टाल दिया।

एक- डेढ़ घंटे में, गबरू को टीका लगवाकर, अनुराधा लौट आई थी। घटना के बारे में पता चला तो वह भौंचक्की रह गयी। भगवान का लाख- लाख शुक्र था कि बेटी सुरक्षित थी। रमन शर्मा बड़े प्रेम से, उसे तसल्ली दे रहे थे, ‘कोई परेशानी नहीं अनुराधा बहन...अपने गाँव से, एक भरोसेमंद दाई बुलवा लूँगा- बिटिया की देखभाल के लिए...’ रमन और भी बहुत कुछ, बोल रहे थे- जो अनुराधा सुन नहीं पा रही थी। वह तो अपने ही विचारों में उलझ गयी थी... सोच रही थी कि हमारी पुख्ता धारणाएं भी, निर्मूल साबित हो सकती हैं। कितनी आसानी से, हम दूसरों के बारे में, झूठे भरम पाल लेते हैं ...और सच... हाशिये पर धकेल दिया जाता है।


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