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Vinita Shukla

Drama

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Vinita Shukla

Drama

जीना इसी का नाम है

जीना इसी का नाम है

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कई दिन बाद, निमिष के साथ, बाहर निकली थी। ड्राइव करते हुए, वे बतियाते जा रहे थे...मुझे उनसे बात करना अच्छा लगता है; किन्तु गोपकुमार की चर्चा से, दिल उखड़ सा गया। 
 गोपकुमार- उनके मित्र राजन के पड़ोसी...जिन्होंने मॉलीवुड (मलयालम सिनेमा) के साथ- साथ, बॉलीवुड में भी, अपनी सफ़लता के झंडे गाड़े हैं! वही गोपकुमार...कभी जिनकी, ‘गौरव- गाथा’, लिखने पर, मैं विवश हुई थी!! 
हमारी कार, रास्ते में अटक गयी; वाहनों का तांता जो लगा था। निमिष मुझे संबोधित करते हुए बोले, “बीनू ...तुम्हारा मनपसन्द गाना लगा रहा हूँ ; ताकि तुम...बोरियत की शिकायत नहीं कर सको!” ...और उन्होंने वाकई, मेरा मनपसन्द गाना चालू कर दिया; गुनगुनाते हुए।
 मुझे तो, उत्साहित होना चाहिये था...फिर भी न जाने क्यों, मन बुझा बुझा सा रहा।  
विस्मृत यादों का भंवर, अवचेतन में, सुगबुगा उठा। बीते हुए पल, जीवंत होने लगे। तब निमिष के सहकर्मी, सुरेश की पत्नी राधिका, नई- नई, पत्रकार बनी थी। उसे एक प्रतिष्ठित समाचार- पत्र में, नियुक्ति मिली। उसके दैनिक- पत्र में, हर रविवार, किसी स्थानीय नागरिक के बारे में, विशेष जानकारी दी जाती। 
जाने कहाँ से, उसे पता चला कि मैं अपनी, हिन्दी कहानियों की, पुस्तक छपवा रही हूँ। वह बिना कोई देरी किए, मेरे पास आई और पूछा, “ तुम बच्चों के लिए, लिखती हो?”
“नहीं...बच्चे मेरी कहानियों के पात्र अवश्य हो सकते हैं...किन्तु मैं बाल- साहित्य, नहीं लिखती। “ मेरा उत्तर था। 
  उसने अविलम्ब पूछा,
“तुम्हारा इंटरव्यू लेना है...कब आऊँ?”
“मेरा इंटरव्यू?” मैंने चौंकते हुए कहा, “आई एम नॉट दैट इम्पॉर्टेंट” 
“ऑफ कोर्स यू आर!”
उसके विशेष आग्रह के समक्ष, मुझे हथियार, डालने ही पड़े।
 उस साक्षात्कार की, हमारे परिचितों में, खूब चर्चा हुई। यह उनके लिए बड़ी बात थी कि एक अहिंदीभाषी क्षेत्र में रहते हुए, मैं हिन्दी की अलख जगा रही थी। गृहस्थान पर जाने का अवसर मिलता तो वहाँ, साहित्यिक गोष्ठियों का, हिस्सा बन जाती।
 अपने संपर्कों के माध्यम से, मैं साहित्य की दुनिया से जुड़ी थी। गृहस्थान पर, मेरी जो संस्था थी; वहाँ अपनी कहानियों की, कॉपी भिजवाती रहती। संस्था में, मेरी शुभचिंतक सहेलियाँ भी थीं। मेरे लेखन की विशेषताओं और कमियों की जो चर्चा, संस्था की गोष्ठियों में होती; उनसे फोन- वार्ता कर, जान लेती।
 उन दिनों अंतर्जाल नहीं था; अतएव इस तरह का प्रयास, अभूतपूर्व और अनोखा माना जा रहा था। निमिष की बॉस की पत्नी ने भी, उस साक्षात्कार को देख, मुझे फोन किया था। तब वे फूले नहीं समाये थे। जिस रेस्तरां में हम, खाना खाने जाते थे; वहाँ के मैनेजर ने भी, मेरे पति से कहा, “आपकी फॅमिली (पत्नी) की फोटो देखी, अखबार में।“
कुल मिलाकर, एक सुखद अनुभव। लोगों की बधाई, मिलती चली गयी। सब कुछ, ‘ मुंगेरीलाल के हसीन सपने’ जैसा था। एक साधारण गृहिणी, जिसका अधिकतर समय; अपने घर, पति और बिटिया के इर्द-गिर्द, डोलने में, निकल जाता...अप्रत्याशित रूप से, प्रसिद्ध हो गई थी। 
राधिका के परामर्श और सौजन्य से, मेरा लैंडलाइन नंबर भी, साक्षात्कार के अंत में दे दिया गया। उन दिनों, स्मार्टफोन नहीं हुआ करते थे। ( ले देकर, एक छोटा सेलफोन घर पर था, वह भी पतिदेव के पास) जो भी हो... एर्नाकुलम के, चंद हिन्दी भाषियों के, ढेर सारे कॉल, आने लगे।
अजब, अनोखे कॉल्स! एक देवीजी तो साहित्य के सन्दर्भ से, भटककर, दुनियादारी की तरफ मुड़ गयीं और बाकायदा भाषण पिलाने लगीं; तदुपरांत, कोई ‘महापुरुष’, मेरी पुस्तक पर, चर्चा की आड़ लेकर... सपत्नीक प्रकट हुए; फिर हमारे सामने, अपने लचर कारोबार के, प्रमोशन का, प्रस्ताव रखा...उस पर तुर्रा यह कि “ अपने बिजनेस के लिए, हमें, आप जैसे स्मार्ट बन्दे चाहिए।“ वाह जी वाह! जान ना पहचान, बड़े मियाँ से सलाम!! 
इस सिलसिले का, अंतिम और सबसे धमाकेदार प्रकरण, तब शुरू हुआ- जब इसमें, लिजो विजयन की एंट्री हुई। लिजो विजयन- करोड़ों, अरबों में खेलने वाले, शहर के, जाने- माने व्यवसायी। उन्होंने फोन पर निवेदन किया कि वे फिल्म- निर्माण के क्षेत्र में, भाग्य आजमा रहे थे व एक पटकथा के सन्दर्भ में, उन्हें मुझसे मिलना था।
सुनकर, अपने ही कानों पर, विश्वास नहीं हुआ। एक मामूली स्त्री की, इतने बड़े व्यापारी से बातचीत...जो सिनेमा में, धन का निवेश करना चाहते थे। मुझे तो यह इंसान ‘फ्रॉड’ लग रहा था। अलबत्ता, निमिष से चर्चा की तो उन्होंने कहा, “लेट अस गिव इट अ ट्राई” 
“ बीना, सो रही हो क्या? मुझे आँखें मूँदे, कार की सीट पर, पसरी हुई पाकर, निमिष ने पूछा। मैं चौंककर, अतीत से बाहर निकली।
ट्रैफिक अभी भी, छंट नहीं रहा था। प्रतिक्रियावश मुँह से, इतना ही निकला, “ नहीं...बस यूँ ही...आराम कर रही थी। 
निमिष ने भी मुझे और नहीं कुरेदा; उन्होंने, गाड़ी का म्यूजिक- सिस्टम बंद किया और कानों में, हेडफोन लगाकर, मोबाइल में, कुछ सुनने लगेl उनकी तटस्थता ने मुझे, अपने विचारों के साथ, अकेला छोड़ दिया। टूटी हुई विचार- श्रंखला, आगे बढ़ी।
लिजो विजयन जैसे, धनवान आदमी का, हमारे यहाँ आना, हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लिए, एक ऐतिहासिक घटना थी। वे केरल की, परम्परागत वेशभूषा में आए थे। मुंड व शर्ट तथा कन्धे पर ओढ़ा गया दुशाला।
आते ही उन्होंने, दोनों हाथ जोड़कर, नमस्कार किया। यह आश्चर्यजनक था कि वे, ठीकठाक हिन्दी बोल पा रहे थे; शायद उनके दुबई- कार्यालय वाले, हिन्दी भाषी सहयोगियों की बदौलत। 
सिनेमा की दुनिया के बारे में, कुछ ‘ऐसी- वैसी’ बातें, सुनी थीं; इसी से मैं, संकुचित हुई जा रही थी। लिजो ने मेरे संकोच को ताड़ लिया; और इसीलिए, उन्होंने पहले मेरे पति से, बातचीत शुरू की। संपर्क के लिए, उनका ही मोबाइल नंबर माँगा। उनके इस रवैये ने, मुझे असहज नहीं होने दिया।
उन्होंने पहले तो अपना मंतव्य दोहराया, फिर अपनी लघु फिल्म दिखाई- जिसमें उन्होंने, एक मोची के, चरित्र को जिया था। फिल्म प्रथम- दृष्टया, प्रभावित करने वाली थी। उन्होंने, उसकी कथावस्तु को, प्रभावी ढंग से समझाया; सम्भवतः इसीलिए! अलबत्ता उस लघु- चलचित्र की, मलयालम तो, हम पति- पत्नी की, समझ से बाहर थी।
उन्होंने बताया, “ बीना जी, इसमें एक मोची होता है। वह अपने इकलौते बेटे के जन्मदिन के अवसर पर, उसे सैन्डल, देना चाहता है। जूतों के जिस शो- रूम में वह काम करता है, वहाँ उसने ‘ सेकेंड्स’ वाली सेल में, सैन्डलों को, देखा भी होता है। सेल्समैन ने, वादा किया था कि वह उसके लिए , दाम में, कुछ और, रियायत कर देगा। इस वास्ते मोची, धीरे-धीरे, पैसे जुटा रहा था।“
“ ‘ सेकेंड्स’ वाली सेल’ ...हम्म...” निमिष ने ऐसा जताया, जैसे कि वे, बड़े ध्यान से सुन रहे हों।“
उनकी ऐसी प्रतिक्रिया ने, लिजो विजयन पर, जादू सा किया। वे और ज्यादा, जोर- शोर से बताने लगे, “ इस सेल में, ऐसे फुटवियर होते हैं, जिनमें कोई, छोटी- मोटी खामी रहती है। मोची उनकी मरम्मत कर, पॉलिश से उन्हें चमका देता...नए जैसा कर देता।“
बातचीत थोड़ा उबाऊ हो चली थी। दोपहर को यूँ भी, मेरे ऊँघने का ‘ कोटा’, पूरा होता था; लिहाजा जमुहाई को आने से, किसी तरह रोका।
  सहसा अन्यमनस्कता ने, स्मृतियों को बाधित किया। कार की विंड स्क्रीन पर, गहमागहमी का नजारा, दिखाई पड़ रहा था। ट्रैफ़िक पुलिस का बंदा, बौराया हुआ, इधर उधर, घूम रहा था। चौपहिया वाहन वाले लोग, अपनी गाड़ी से बाहर निकल, ट्रैफ़िक- जाम का, जायज़ा ले रहे थे। 
विचारों ने, फिर करवट बदली। चिन्तन की दिशा, पुनः, उस प्रकरण की तरफ, मुड़ चली। जब राधिका ने पूछा कि उसके लेख में, मेरा कॉन्टेक्ट- नंबर देने का, कोई फ़ायदा हुआ या नहीं...तो मैं, लिजो विजयन के बारे में, बताए बिना, रह न सकी। लिजो का नाम सुनते ही, राधिका के कान खड़े हो गए। वह बोली, “एक नंबर का ‘पब्लिसिटी- क्रेजी’ है, वह आदमी...अपने किसी पर्सनल- इवेंट को कवर करने के लिए, मुझे बुलाया था...मैंने तो साफ़ मना कर दिया।“
राधिका ने बतलाया कि कम्प्यूटर के दस्तावेजों पर, तिथि, अपनेआप ‘सेव’ हो जाती है। यह सुझाया भी कि मुझे उस व्यक्ति के लिए, कुछ भी लिखते हुए, उन दस्तावेजों को, सम्भाल कर रखना होगा...अपने पक्ष में प्रमाण की तरह; ताकि वह उनका, दुरुपयोग न कर सके। 
जाहिर था कि राधिका को, उस ‘घनचक्कर’ पर, थोड़ा भी भरोसा, नहीं था। मानों उसे, उसकी शॉर्ट- फिल्म पर पुरस्कार, किसी ‘जुगाड़’ से मिला हो। 
 यह सोचकर, डर लगा कि कहीं वह राधिका का बदला, उसकी सहेली- यानी मुझसे ना निकाले। शिरीष से जिक्र किया तो वे हँसकर बोले, “ होता है...चलता है...दुनिया है!” 
‘हर फिक्र को, धुएँ में उड़ाता चला गया’ वाली तर्ज़ पर, उन्होंने उस प्रसंग को, टाल ही दिया। मैं सोच में पड़ गयी। यद्यपि लिजो विजयन की, शॉर्ट- मूवी, सम्वेदना जगाती थी तथापि जिस कहानी को लिखने का, उन्होंने प्रस्ताव दिया था, वह बड़ी बेढंगी थी।
 मुझे मुंबई में बसे, सफल अभिनेता, गोपकुमार के बारे में, लिखना था। मूलतः उनका गृहस्थान, एर्नाकुलम( केरल) में था। मलिन बस्ती का कोई मोची, उनके घर, जूते- पॉलिश करने जाता था। मोची बेहद खुशमिजाज़ था। बस्ती वालों के साथ, घुलमिल कर रहता था। 
वह बस्ती वालों की मदद कैसे करता था- इस बारे में, दो-चार, काल्पनिक घटनाओं का मुझे सृजन, करना था। इसके लिये, बम्बईया भाषा व उसमें प्रयुक्त होने वाली शब्दावली पर, शोध करना आवश्यक हो गया। बॉलीवुड की चंद मसाला- फ़िल्में, यहाँ सहायक हो सकती थीं।
 अपनी सेहत को नजरअंदाज करने वाला मोची, अपनी बिन माँ की बेटी से, जब तब झिड़की खाता था। लिजो विजयन के प्रस्तावित चलचित्र वाला मोची; उनकी छोटी वाली मूवी के मोची से, कितना भिन्न था! उस मोची पर, बैठे- बिठाए, ‘सुपरमैन’ बनने की, झख नहीं सवार होती थी! जब उसकी दुकान से, सेकेंड्स वाले माल को, किसी दूसरे ‘आउटलेट’ में, शिफ्ट कर दिया गया तो 
मन मारकर, बेटे के लिए, उसने, रबर सोल वाली, नई चप्पलें खरीद लीं।
बेटा उसमें ही, खुश हो गया! इस कथा का निहित सन्देश था कि मूल्य उपहार का नहीं, वरन, उसके साथ जुड़ी भावना का होता है। परन्तु मेरी वाली कथा- साम्रगी, बहुत अगड़म- बगड़म टाइप की थी। उसमें ऐसा कोई, सार्थक सन्देश नहीं था। 
जो भी हो, किसी प्रकार मैंने, सौंपा हुआ काम निपटाया। लिजो विजयन ने, मेरे लेखन की पड़ताल के लिए, हमें(मुझे व मेरे पति को), अपने यहाँ बुलाया। हम बाइक से, उनके विशालकाय आवास पहुँचे। वहाँ की भव्यता देख, हमने बाइक को, बाहर ही खड़ा कर दिया। हमारी बाइक, उनके वैभव से, मेल नहीं खाती थी- इसी से! 
हम उनके राजसी घर की, शोभा देखकर, दंग रह गए। मनमोहक उद्यान, छोटे तालाब में गुलाबी कमल, लिविंग रूम की सजावट...रेशमी पर्दे...कालीन...फर्नीचर आदि! उनकी पत्नी स्वयं, ट्रे में, नारियल पानी और नींबू से बना पेय लेकर आयीं तो भला सा लगा। 
लिजो विजयन ने, मुझे, आगे लिखने के लिए, कुछ निर्देश दिए। उनके द्वारा सुझाई कहानी, मानसिक रूप से दीवालिया, किसी व्यक्ति द्वारा, रची गयी कथा जैसी थी; जिसकी अपनी कोई सोच, अपनी कोई अभिवृत्ति नहीं। भारतीय सिनेमा के शोमैन, राजकपूर जी की फ़िल्मों से, स्पष्ट रूप से, मलिन बस्ती वाला आइडिया चुराया गया था। मोची के रूप में, मलिन बस्ती का बाशिंदा था जो अपनी ही ‘ इश्टाइल’ में, ‘ रमैया वस्तावैया’ करते हुए, बस्ती वालों का चहेता बन जाता है... थुलथुल शरीर होने के बावजूद, ‘स्लम’ वाले गुंडों को, ललकारने का माद्दा रखता है।
 ‘कहाँ की ईंट कहाँ का रोड़ा, भानुमती का कुनबा जोड़ा’! प्रस्तावित मूवी में तरह तरह के मसाले थे। सबसे अहम हिस्सा- ‘गोपकुमार द्वारा, कैंसर ग्रस्त मोची की, आर्थिक मदद करना ताकि बेटी के कन्यादान तक, वह जीवित रह सके।‘ गोपकुमार और मोची को केन्द्र में रखकर, रचा गया कथानक, घूम- फिरकर, इन्हीं दो पात्रों में सिमट जाता था।
सबसे हास्यास्पद बात यह कि वह स्वयं मोची का रोल करना चाहते थे। यह जानने के बाद मुझे, उनका चेहरा भी कुछ वैसा लगने लगा। अपनी पुरस्कृत लघु फिल्म में मोची के किरदार का, डंका पिटवाने के बाद, कदाचित ... उनको वह किरदार, कामयाबी की गारन्टी लगने लगा होगा l इससे ज्यादा कुछ कर पाने की उनके पास, न तो योग्यता थी और न ही प्रत्यक्ष ज्ञान! उनके विचार, पान के दुकान पर बैठने वाले, फिल्मी गॉसिप के रसिया... नाकारा, आवारा, लौंडों- लपाड़ों के, बौद्धिक स्तर से मेल खाते थे।
उनके ऊटपटांग दिशानिर्देशों पर, कथानक को ढालते हुए, मुझे घुटन सी होने लगी...निमिष को बोला तो कहने लगे, “तुम्हें अभी तक कोई ऐसा ‘ऑफर’ मिला है...नहीं ना?! शुरू शुरू में, स्क्रिप्ट- राइटर को समझौते करने पड़ते हैं...बाद में ही, उसकी कोई सुनता है।“
पतिदेव ने ऐसे कहा, मानों वे ‘फिल्मी लाइन’ के बहुत बड़े ज्ञाता हों। घरेलू औरत को तो यूँ ही, हर कोई, कुएँ का मेढक समझ, ज्ञान देता रहता है। फिलहाल, जैसे- तैसे, पटकथा – लेखन को जारी रखना था।
‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार...जीना इसी का नाम है’ फिल्म का टाइटल सॉन्ग...किसी पुरातन चलचित्र से, उधार लिया गया था। लिजो विजयन के, सपनों की उड़ान मुझे, बहुत अटपटी लगी। वे मुम्बईया फ़िल्मों की, निर्धन बस्ती वाले राजकपूर जी का, आधुनिक अवतार बनना चाहते थे- वह भी मोची के रूप में...सोचकर हँसी छूट गयी थी। विलासिता का आदी इन्सान, सस्ती लोकप्रियता के लिए, गरीबों का मसीहा कहलाना चाहता था।
  उन्होंने एक- एक योजना, हिसाब-किताब से, बनाई थी, कुशल कारोबारी की तरह। पुराने प्रोजेक्ट में मोची के चरित्र को, अभिनीत करने का अवसर मिला...उसे पुनः, पर्दे पर उतारना, उनके लिए आसान था। ‘मलयाली बंधु’ गोपकुमार को, विशिष्ट भूमिका देकर, उपकृत करना और उनका लाभ उठाना...
 किसी प्रतिष्ठित पटकथा- लेखक से कहानी लिखवाते तो पारिश्रमिक न मिलने पर, वह ‘स्कैंडल’ खड़ा कर देता। ‘ एक्सपेरिमेंट’ के लिए, एक आम इंसान पर, रौब गांठकर...अपने दिमागी फितूर को, कागज पर उतरवाना, सर्वथा सुगम और निरापद था। 
और फिर; एर्नाकुलम जैसे स्थान में, जहाँ मुर्गा भी, मलयालम में बांग देता था...हिन्दी वाला, स्क्रिप्ट- राइटर, ढूँढना- रेत के ढेर में, सुई खोजने जैसा था! 
घर की व्यस्तताओं से, समय चुराकर, स्क्रिप्ट लिखी । आँखों के नीचे, काले घेरे पड़ गए। लिजो के दिमागी कचरे को ‘ग्लोरीफाई’ करने की पूरी कोशिश की- अपनी लेखन- दक्षता से...ज्यों परिशोधन का, दायित्व ले रखा हो; लेकिन मेरे उसी परिश्रम का, कोई मोल नहीं। उसे नकारा जाना मेरे लिए, दुखदाई था- किसी को, इस बात से, कष्ट नहीं। पतिदेव ने हल्की सी सहानुभूति अवश्य जताई थी, “ इन्सानियत के नाते ही सही, लिजो को एक बार, खेद तो जताना ही था...” यह कहकर बेपरवाही से, अपने संसार में, मगन हो गए।
और लिजो...जब बॉलीवुड के सभी निर्माता- निर्देशकों ने, उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया...तब उन्होंने फोन पर, निमिष से, कितनी आसानी से कह दिया था- “ बीना जी इस प्लॉट का, कहीं भी उपयोग कर लें, मुझे आपत्ति नहीं...” मैं भला, उस ऊलजलूल कथानक का, कैसे और कहाँ, उपयोग करती जो गोपकुमार और मोची जैसे, विचित्र पात्रों की यशोगाथा रहा... किसी ‘ एलियन’ की ‘अद्भुत’ सोच जैसा, ‘चूँ – चूँ का मुरब्बा’...! 
हालाँकि मुझे, कहीं-न-कहीं, यह अंदेशा जरुर था कि यह परियोजना, औंधे मुँह, गिरकर धड़ाम हो जाएगी; तथापि पतिदेव ने आश्वासन दिया था कि फ़िल्मों में, बेकार कहानी को चलाने के भी, कई टोटके होते हैं। उदाहरण के तौर पर, मोची की बेटी का, उसके मंगेतर संग, रोमांटिक गाना रख सकते थे- रोमांस के तड़के के लिए। संवादों में एकाध बाजारू शब्द चिपकाकर (जैसे कोई भद्दी गाली), उनकी ‘ कर्णप्रियता’ बढ़ाई जा सकती थी। मोची के ‘स्लम’ वाले गुंडों से कहासुनी होने पर, जोरदार फाइट- सीन, फ़िल्माये जा सकते थे। उनकी बात सुनकर, ऐसा लगा, जैसे अपनी किशोरावस्था में, वे जरुर ‘ फिल्मी कलियाँ’ जैसी पत्रिकाएँ, पढ़ते रहे होंगे।
मुझे याद आया कि मेरे उत्साहवर्धन के लिए, लिजो विजयन ने कहा था,”अपनी लघु फिल्म की कहानी मैंने, एक कम उम्र के, कॉलेज जाने वाले, बच्चे से लिखवाई थी...वही कहानी बाद में, इतिहास बन गयी! खुद को कम न आकें, बीना जी...हाउसवाइफ किसी से कम नहीं होती। मेरी माँ एक हाउसवाइफ थीं और मेरी पत्नी भी है। आपने तो देख लिया; घर से ही... ‘ प्ले- स्कूल’ चलाती है। खूब चलता है, उसका स्कूल! “
सच ही तो था...उनके महलनुमा भवन से सटा; उस परिसर की, शोभा बढ़ाता हुआ- वह ‘प्ले- स्कूल’...! उन लोगों ने हमें, वहाँ का दौरा भी कराया था। देखकर हम चकित हुए। एक से एक आधुनिक उपकरण, साफ- सुथरा स्विमिंग पूल, आकर्षक चित्र...सब कुछ बेहद सुन्दर, सुव्यवस्थित! 
घरेलू स्त्री का महिमामण्डन, उन्होंने बहुत बढ़िया ढंग से, किया था; परन्तु गृहणी सा विषपाई, नीलकण्ठ कोई नहीं। परिवार वाले, बच्चे, बड़े, बूढ़े, जब तब उसे, डपटते रहते हैं और वह सहजता से, उस अपमान को गटक लेती है, मानों कुछ हुआ ही न हो। उसके मान- अपमान, महत्व नहीं रखते...इसी से, उसकी असफलता, एक सामान्य घटना की तरह, दर्ज की जाती है।
 पतिदेव को थोड़ा खयाल होता तो चार लोगों में, मेरे ‘असाइनमेंट’ की चर्चा न करते। अब- जब असफलता का मुँह देखना पड़ा, जगहँसाई की, प्रबल सम्भावना बन रही है। निमिष, एक अरबपति के शानदार घर और कारों की चमक दमक को, हजम नहीं कर सके। ‘बड़े आदमी’ के साथ, उठने- बैठने का अवसर, उसके आतिथ्य का भागी बनना, कोई छोटी बात नहीं...दोस्तों, संबंधियों पर धाक जमाने के लिए, काफी थी।
मेरी 8- 10 साल की बेटी, जो अपनी सहेलियों के बड़े से बड़े राज भी, अपने छोटे से पेट में, पचा लेती थी; उसने ही माँ के, तथाकथित ‘अभियान’ के बारे में, टीचरों और सहपाठियों से, गा- गाकर बताया।
खैर... फिल्मी दुनिया में सेंध लगाना कोई हँसी- खेल नहीं। लिजो विजयन का अति उत्साह, मुझे शुरू से ही, खटक रहा था। उन्हें शायद...यह सब, बच्चों का खेल लग रहा हो...एक छोटी सी सफ़लता ने, उनका भेजा घुमा दिया था। लिजो को सम्भवतः अनुमान न हो कि मॉलीवुड तक पहुँच, उतनी दुष्कर नहीं...जितनी कि बॉलीवुड की, उलझी हुई राहों तक!
निमिष की जान- पहचान में ही, कितनों का ‘कनेक्शन’ मॉलीवुड, से है। गली- कूचों में कैमरों के फ्लैश और शूटिंग का धमाल देखा जा सकता है। 
सोच में व्यतिक्रम हुआ। गाड़ी का म्यूजिक- सिस्टम, पुनर्जीवित हो उठा था...ट्रैफिक छँटने के साथ-साथ। चिर परिचित सा गीत, गूंज रहा था- 
“ किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार
   किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार 
    किसी के वास्ते हो, तेरे दिल में प्यार 
    जीना इसी का नाम है “ 
 यह तो लिजो विजयन का ‘तथाकथित’ टाइटल- सॉन्ग था! मैं सह न सकी। “ निमिष, प्लीज, इस गाने को, म्यूट कर दीजिए।“ औचक ही, मेरे मुख से निकला। 
“पर क्यों श्रीमती जी?! यह तो आपको अच्छा लगता था...जीना इसी का नाम है! “ वे गाने की, पहली पंक्ति को, गुनगुनाकर बोले। 
“ कोई जरूरी नहीं कि जो चीज पहले अच्छी लगती हो; वह हमेशा ही अच्छी लगे। “ 
मेरी आँखों में कठोरता थी। दिल कह रहा था- ‘ जीना, इन आदर्शवादी चोंचलों का नाम नहीं...जीना नाम है- चुनौतियों से आँखें मिलाने का...संघर्ष का, यथार्थ से, दो-चार होने का...’
निमिष, मेरी मुखमुद्रा को देखकर, स्तब्ध थे। उन्होंने बिना प्रतिवाद, गाने को बंद कर दिया। गाड़ी ने गति पकड़ ली थी।






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