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Vinita Shukla

Others

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Vinita Shukla

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अधूरे प्रेम की कथा

अधूरे प्रेम की कथा

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    दो दिन बाद, उसकी भांजी नीला की शादी थी. मन में कुछ दरक सा रहा था. उसने प्रौढ़ता की ओर, कदम तो बढ़ा दिए पर कभी डोली नहीं चढ़ी...कभी दुल्हन का जोड़ा नहीं पहना, सप्तपदी के वचनों में नहीं बंधी...विवाह- संस्कार, उसके लिए, बना ही नहीं था! ढोलक लगातार थपकती जाती थी. स्त्रियों की समवेत हँसी और होने वाली दुल्हन संग, हल्की- फुल्की दिल्लगी; गुड्डन को, कछुए की तरह, खुद में सिमट जाने पर, विवश कर रही थी. कभी वह भी पहनने- ओढ़ने की शौक़ीन रही; पर आज अम्मा की बरसों पुरानी, साड़ी पहने थी...अन्तस् में घोर विरक्ति...मूकदर्शक बनी, तटस्थता को कवच की भाँति, धारण किये हुए.  

   किन्तु वे वाचाल औरतें, उसे सहज नहीं होने दे रही थीं. तिर्यक दृष्टि, उस पर डालकर, न जाने क्या, खुसपुसाने लगतीं! आज उसके माँ- बाप जीवित होते तो उनको, बिरादरी की सौ- सौ बातें सुननी पड़तीं- इस उम्र तक, बेटी को, कुँवारी बिठाये रखने के लिए. उसके आत्मीय मित्र जानते थे कि गुड्डन बनाम हिया, क्यों विवाह, नहीं कर रही ...किसलिए, हर अच्छे रिश्ते को, निर्दयता से, ठोकर मार देती है. 

    हिया की, बालसखी रमा को, दीदियों ने; उसके अविवाहित रहने का, कारण बताया था. वह उसको, ज्ञान देने से, चूकी नहीं, “ जिसे तुम चाहती थीं, किसी और का, हो गया था...अब तो दुनिया से भी चला गया; उसके कारण, तुम, साध्वी बन जाओगी क्या?! प्रेम को ओढ़ा, पहना, बिछाया, नहीं जा सकता. प्रेम तो भूखे पेट को, एक दाना भी नहीं दे सकता. उसके आसरे, जीवन नहीं चलता. मेरी मानों तो ब्याह कर लो...अभी नहीं, लेकिन बुढ़ापे में, एक साथी की जरूरत, हरेक को रहती है.”

   परन्तु ‘चढ़त न दूजो रंग’ की अवधारणा ने, उसके जीवन में, गहरी पैठ कर रखी थी. उसकी बड़ी बहन, हंसा दी के पति- उसके बड़े जीजू ने भी, उसे बार- बार समझाया, पर वह टस से मस नहीं हुई. अम्मा जब जीवित थीं; उन्होंने कुटुंब के, दूसरे दामादों को भी कहा, उसे समझाने को. उन सबने भी कोशिशें कीं; परन्तु वे कोशिशें, रंग नहीं लाईं. ये जरूर हुआ कि समझाते- समझाते, वे सब, उसके ख़ास दोस्त बन गये. बिरादिरी को, यह बात खटकती है...हालाँकि अम्मा को उससे, ऐसा मोह था कि वे बिरादिरी वालों के, ‘ऐसे- वैसे’ आरोपों को, सदा ख़ारिज करती रहीं. कोई कुछ कहता तो वह, यह कहकर, उसे झाड़ देतीं कि ‘उन सबों के आगे, तो वह, छोटी सी बच्ची है!’ 

   सुन्दरी तो वह है ही, देह के भीतर भी उथल- पुथल होती रहती है...स्त्री सुलभ हारमोन, उसे भी उद्वेलित करते हैं- फ़्लर्ट करने के लिए. उसके अपने ही, दो सगे जीजा हैं. छोटे वाले तो थोड़े खड़ूस हैं...अलबत्ता बड़े वाले...! उसकी दीदियाँ भी, उसकी हरकतों पर, मौन धारण किये हुए हैं; हालाँकि अम्मा की तरह, उन पर पर्दा नहीं डालतीं. ‘जनता’ की राय है कि इस सबके पीछे, उसकी भारी कमाई है. उसका बुटीक, सफलता की ऊँचाइयाँ, छू रहा है. अम्मा के लिए तो वह, बुढ़ापे की लाठी थी और दीदियों के लिए- चलता- फिरता, ए. टी. एम. !

  सामाजिक वर्जनाओं के बारे में, क्या कहें? गुपचुप- गुपचुप, कोई मंत्रणा चल रही थी. कॉलोनी के, बाहर वाले गेस्ट- हाउस में, भोपाल वाली काकी, इंदौर वाली भाभी, रुढ़की वाली मौसी और कानपुर वाली बुआ इकट्ठा थीं. उसको देख, अर्थपूर्ण इशारे करने वाली, यह स्त्रियाँ; एकांत पाकर, ‘सक्रिय’ हो गयी थीं. यह और बात थी कि उन्हें स्वप्न में भी, यह आभास न था कि गेस्ट- हाउस में, पानी की व्यवस्था देखने आई, गुड्डन, उनकी सारी बातें, सुन सकती थी. घूम फिरकर, उनकी बातों के केंद्र में, उसे ही आना था. काकी कह रही थीं, “छोकरिया के लच्छन देखे...कइसी ऐंठ में रहती है...ना दुआ ना सलाम!” 

   “पैसे का रुआब है काकी”, इस बार भाभी ने मोर्चा संभाला जो छोटे चाचा की, बहू रहीं. कहने लगीं, “जब घर के, बड़े ही बिगाड़ें, तो छोटों को, बिगड़ते देर नहीं लगती.”  

    कानपुर वाली बुआ, जो उसकी ममेरी बुआ थीं, कुछ संकोच से बोलीं, “छोड़ो भी बहुरिया...बिन माँ- बाप की बच्ची है”. कदाचित वे डैड की, निजता को, चीर- फाड़ से, बचाना चाहती थीं. लेकिन भाभी कहाँ मानने वाली थीं! अड़ियल टट्टू की भाँति, अपनी बात पर अड़ गयीं, “आप बहुत भोली हो बुआ...आपके दामाद को भी तो टहला रही थी...ये तो कहो, हमारी नन्दरानी ने, समझदारी से काम लिया और पति को, यहाँ नहीं लाईं...”

      आगे के शब्द, कहीं शून्य में विलीन हो गये थे. बुआ, बहुरिया के दुस्साहस को, पचा नहीं पाईं और तमाम अस्वीकृतियों के संग, उस पर पिल पड़ीं, “गुड्डन की तो... जो है सो है; हमारे जमाई राजा के बारे में, ऐसी जबान निकाल रही हो? तुम्हारे संस्कार, क्या हुए बहूरानी...शर्म- हया, घोलकर पी गयी हो क्या?”

       भाभी चुप तो हो गयीं; परन्तु काकी और मौसी की, मूक सहमति, उनके साथ थी. वैसे, कुछ गलत भी नहीं कह रही थीं वे! बुआ के जमाई पर, उसका ‘क्रश’ अवश्य था!! क्रश तो, हंसा दी के पति पर भी था. जीजू भी, उसे बहुत मानते. लेकिन दी की सतर्क निगाहें, उनके मेलमिलाप को, बाधित करती रहीं. माँ ने दी को, समझाया कि पिता और बड़े भाई की, कमी हिया, जीजू में पूरी करती है. 

        माँ के जाने के बाद, अकेली पड़ गयी गुड्डन के प्रति, एक नैसर्गिक सहानुभूति, हंसा दी को हो गयी और उनका बैर भाव, तिरोहित हो गया. किन्तु हंसा दी की बेटी, नीला का क्या? वह तो अभी भी, बैर भाव, पाले हुए है; पिता और हिया मौसी के, आपसी समीकरणों को, नकार नहीं पा रही! उसका मन मलिन है...इसी से, गुड्डन का मन भी, उसके लिए, मलिन हो गया है.

      कल नीला की, हल्दी की, रस्म होनी है. हिया की, दूसरे नम्बर वाली बहन, हरिता दी; होने वाली दुल्हन को, निर्देश दे रही हैं, “आज रात, जल्दी सो जाना...व्हाट्सएप और फेसबुक पर, ना लगी रहना. हल्दी वाले दिन, तुम्हारा चेहरे पर, ताज़गी होनी चाहिए- थकावट नहीं.” नीला ने सर हिलाकर, इस हेतु, बड़ी मौसी को, अपनी स्वीकृति दे दी. 

       गुड्डन के भीतर, सोई हुई दानवी, जाग उठी. उसने तय कर लिया कि कैसे भी करके, नीला की नींद में, खलल डालनी होगी. उसने जानबूझकर, अपना सर; अल्मारीनुमा, इनबिल्ट- शोकेस, के पल्ले पर, दे मारा! खून निकलने लगा तो वह चिल्लाई. उसी कमरे में सो रही नीला और उसकी छोटी बहन इला, हड़बड़ाकर उठ, बैठीं. हिया ने, उन दोनों को, लताड़ा, “कैसी लापरवाह हो! अपनी अलमारी, ठीक से, बंद नहीं कर सकतीं? इसका पल्ला, खुला रह गया...और मेरे सर पर, चोट लग गयी!” 

       उन बेचारियों के, हाथ- पाँव फूल गये. सब लोग सो रहे थे. किसे जगाएँ, यह उन्हें ना सूझा. कोई दवा या मरहम भी, मिल नहीं रहे थे. आखिर इला ने, किसी तरह, ‘आफ्टर शेव लोशन’, ढूंढ निकाला और रुई से, छोटी मौसी का, घाव साफ़ किया. राम राम करके, सुबह हुई. सुबह-सवेरे, बगल वाले कमरे में, हड़कम्प मचा हुआ था. कानपुर वाली बुआ, अपनी बेटी नैना से, पूछ रही थीं, “तुम्हें ठीक से याद है न? बैग में ही रखा था??” 

      “हाँ...यही तो था...जाने किधर गया!” गुड्डन को पता था कि वे क्या खोज रही थीं. उसने ही तो कल रात, नैना दी का, मेकअप- किट, छुपा दिया था. यह एक तरह से, उन पर, प्रतिबन्ध जैसा था. एक तो उसके प्रिय जीजू को, साथ लेकर, नहीं आईं और दूसरे...बनठन कर, अपने जलवे दिखाना चाहती हैं! इन दिनों, वह उसे...अपनी प्रतिद्वंद्वी जैसी, लगने लगी हैं. जलन तो उसे, अपनी सगी भांजी से भी होती है. गौरी- पूजन के समय, कुछ बड़ी- बूढ़ियाँ, आपस में बतिया रही थीं, “नीला तो डंके की चोट पर, जाति- बाहर, ब्याह कर रही है; गुड्डन के, भाग्य में ही नहीं था, अपनी पसंद, से शादी करना.”

      “कौन था वह...अब कहाँ है?”

      “यह तो पता नहीं, सुनते हैं, गैर- बिरादिरी का था” किसी वृद्धा ने, ठुड्डी पर हाथ रखकर, ‘विचारशील मुद्रा में’ बतलाया.  

      “तो क्या हुआ? ब्याह कर लेती तो इस समय, बड़े- बड़े बच्चे होते!” इस बार, एक प्रगतिशील विचारों वाली महिला ने, वार्तालाप में, ‘क्रांति का तड़का’ लगाया.

       सुनकर हिया, मन ही मन हंसी और रोई भी! किसी को क्या मालूम कि उसके जीवन का, मूल रहस्य क्या है...मन की गाँठों में, दबी कुंठा का, असली कारण क्या है...किसी शादीशुदा जोड़े की खुशहाली, उनकी सुखी गृहस्थी- उससे देखी नहीं जाती. रिश्ते की बहनें; यहाँ तक कि सगी भांजी भी, उसकी ईर्ष्या से, अछूती नहीं हैं! 

      हिया की पास और दूर की बहनें; उससे काफी आतंकित हैं. उनके पतियों को, अपनी ओर आकर्षित कर, उन्हें जलाने से; उसे एक, क्रूर संतोष मिलता है... और फिर... फुफेरे, ममेरे, मौसेरे, तयेरे और मुंहबोले जीजाओं का तो कहना ही क्या?! सयानियों का मत ठहरा कि जैसे शेर से, मेमने को बचाने के लिए, उसके आगे, बोटी डाल दी जाती है... वैसे ही गुड्डन की अम्मा ने, अपने सगे दामादों को, उससे बचाने के लिए; उन महानुभावों का, जानबूझकर, ‘आखेट’ होने दिया. ज्ञानीजन तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘जीजा- साली’ की आड़ में, छोटी बेटी की मनमानी, उनकी शह पर, होती रही.

     वह उन सबसे लड़ना चाहती है. आजकल तो लड़के- लडकियाँ, खुल्लमखुल्ला, एक दूसरे से, गले मिलते हैं. उन पर कोई, उंगली, क्यों नहीं उठाता? जीजा लोग, उसे थोड़ा- बहुत, भाव दे देते हैं तो आपत्ति कैसी? लोग कहते हैं, उसे जीजा- साली सिंड्रोम है...क्या सच में? क्या वास्तव में, वह अनैतिक कृत्य, करती है? हिया नहीं जानती. नैतिकता और अनैतिकता के बीच, सूक्ष्म सीमा- रेखा का निर्धारण, बहुत दुष्कर कार्य है...तिस पर, दैहिक और मानसिक तृष्णा, कुछ ऐसी कि आकर्षक पुरुषों को देख, मन में घंटी बजने लगती है.  

     हरिता दी के, किशोर बेटे को, उसने; अपनी गोद में, खिलाया है. उसे बेटा कहकर, दुलराने से, देखने वालों की ऑंखें, चुगली करने लगती हैं. क्या उसे, कोई मानसिक- विकार है? स्वयं हरिता दीदी भी, ऐसा नहीं मानतीं; परन्तु लोगों की दृष्टि, उसे, भ्रमित करने लगी है. उसका खुद पर से, विश्वास उठता जा रहा है. 

     जीजा लोगों का जमावड़ा, बालकनी में है. उसका दिल, उसे, वहाँ जाने को, उकसा रहा है...’जीजा- साली सिंड्रोम’? वह, स्वयं से, पूछती है. नहीं, नहीं...यह तो, कुछ और ही है! वह- जिसमें, मर्यादाएँ, लस्त- पस्त हो जाती हैं और नैतिकता, पानी भरने लगती है! 

      स्मृतियों पर, कोई अभिशप्त परछाईं, थरथरा उठी. सुदूर अतीत में, स्त्री- रोग- विशेषज्ञ की, डूबती हुई, आवाज गूंजती है, “मिसेज शर्मा…! आपकी बेटी को…!!” चिकित्सक ने, एक ऐसे सिंड्रोम का जिक्र किया जो…! समस्या का लंबा- चौड़ा सा नाम और उतना ही कातिलाना उसका असर…! अपनी माँ, गिरजा शर्मा के चेहरे पर; वह, फूटे हुए नसीब की, इबारत पढ़ती है. लेडी डॉक्टर ने, आगे कहा, “हर यूट्रेस इज मिसिंग..! बट ऑफ़ कोर्स...ओवरीज़ आर देयर. शी कैन स्टिल हैव बेबी...यू नो, आजकल, आई. वी. ऍफ़. और सरोगेसी जैसी तकनीकों से...बहुत कुछ संभव है”

      डॉक्टर का चेहरा, अम्मा की, डबडबाई हुई आँखों में, धुँधला गया था. वह कहती जा रही थी, “शादी के बाद, पति के साथ, सम्बन्ध बनाने में, परेशानी न हो...” इस बिंदु पर, वह रुकी; फिर अर्थपूर्ण ढंग से, कहने लगी, “इसके लिए, एक सर्जरी, करनी होगी...बस...!!” 

      गुड्डन को, काटो तो खून नहीं! उसने अम्मा पर, सरसरी दृष्टि डाली. वह माँ- जो बच्चों की, यौन जिज्ञासाओं को, बड़ी सफाई से टाल जाती थी...छोटी- छोटी बात में, पर्दादारी करती थी; आज उसकी बेटी की दुर्बलता, उसका निर्मम भविष्य... डॉक्टर के शब्दों में- बेपर्दा हो गया था! चिकित्सीय- परीक्षण ने, मानों; दुनिया की, हर शै को, बदल दिया हो!!

     यह ऐसी शारीरिक कमी थी जिसमें गर्भाशय ही नदारद था, हालाँकि अंडाशय अवश्य था और स्त्रियोचित, क्रोमोजोम्स भी…किन्तु दैहिक सम्बन्ध, सहज नहीं!

  माँ- बेटी दोनों, हतप्रभ थीं. जीवन ने, यह कैसा, अभिशाप दिया था...कैसे अवांछित मोड़ पर, ला खड़ा किया था; लहूलुहान भावनाएँ, चीख रही थीं...परन्तु उस दुःख को, प्रकट करना, व्यवहारिक न था! 

       यादें उसको, समय के उस बिंदु से, कहीं अधिक पीछे, खींच ले गयीं; वहाँ- जहाँ, शैशव के मासूम सपने थे...ढेर सारी, भोली शरारतें...कोई तनाव, कोई चिंता न थी! दो बहनों के बाद, वह घर की, सबसे छोटी संतान- परिवार में, सभी की लाडली. उसे अम्मा और डैड ने, बेटे की तरह, पाला था. वह खेलते- कूदते, पढ़ाई करते, धीरे- धीरे बड़ी हो रही थी. कालचक्र घूमता रहा. देखते ही देखते गुड्डन, १३ बरस की हो गयी. अभी तक उसे, माहवारी नहीं हुई थी. अम्मा का माथा, ठनकने लगा था. 

        नानी ने, हैरान होकर, कहा था, “बड़ी खिलाड़ी, बनी फिरती है, छोकरी! इसकी उछल- कूद, बंद करवाओ, पहले...देखो तो, कैसी, सूखती जा रही है! तनिक सब्जी, फल खिलाने का, जतन करो. दूध- दही की, आदत डालो...सारा दिन, जाने क्या- क्या, ठूंसती रहती है!”

        डैड के खिलाफ जाकर, अम्मा ने, उसकी ‘स्पोर्ट्स- एक्टिविटीज’ पर लगाम लगाई; फिर खानपान पर भी ...हर बार की तरह, इस बार, डैड; खुलकर, गुड्डन का पक्ष, नहीं ले पाए. उनको भी बिटिया के, शारीरिक- विकास को लेकर, फिकर होती थी.

        और फिर यूँ ही, कशमकश में, दिन गुजरते गये. ‘वेट एंड वॉच’ के तहत, दो साल और निकल गये. हिया की, पंद्रहवीं वर्षगांठ के बाद, अम्मा उसे; स्त्री- रोग- विशेषज्ञ के पास, ले गयी थीं. उसके पश्चात् तो जो कुछ हुआ...इतिहास बनकर, रह गया! डैड, अवसाद में डूबने लगे थे.

                   एक दिन हृदयाघात, उसके प्यारे जनक को, उससे छीन ले गया. उसके ही दुःख में तो, घुल रहे थे वे! अब तो माँ भी, चली गयीं. रमेंद्र की तरफ से भेजे गये, विवाह- प्रस्ताव को, अम्मा ने, बेदर्दी से ठुकरा दिया था. उसकी जाति का, अलग होना; इस अस्वीकृति की, ठोस वजह, जान पड़ती थी. किसे खबर थी कि वह, स्वयं ही, ब्याह के योग्य, नहीं थी! 

                   सच बात तो यह थी कि उसका मन भी, विवाह के स्वप्न, देखता था. उसके चेहरे की लुनाई और देह के कटाव को देखकर, कौन कह सकता है कि वह एक अधूरी स्त्री है?! ३९ पार करके चालीसवें में लगी है; किन्तु २५- २६ से, कम नहीं लगती. रमेंद्र के साथ, कॉलेज- मैगजीन का, सम्पादन करते- करते; प्रेम का अंकुर तो, उसके भीतर भी, फूटा था; हालाँकि उसने, कभी कहा नहीं. ना जाने कैसे रमेंद्र, उसके दिल का हाल, जान गया! 

                 “किन ख्यालों में डूबी हो? भांजी की शादी में, काम करवाने आयी हो या ‘टाइम- पास’ करने? याद है कि नहीं...कल मेहँदी की, रस्म है. चलो तैयारी करवाओ!” हंसा दी की, मीठी घुड़की ने, उसे अपनी सोच से, बाहर निकाला. दीदी को पता है, किसी भी विवाह- समारोह में, वह असहज हो जाती है; इसलिए उससे, संभलकर, बात कर रही हैं. 

                 दूसरे दिन, उसने भी, निर्लिप्त भाव से, मेहँदी लगवाई. सबके संग, फोटो भी खिंचवाई. ऐसे मौंकों पर, मुस्कराना, एक अनिवार्यता है. वह भी, एक दिखावटी मुस्कान, धारण कर लेती है. अभी तक तो उसने, नीला की शादी का, कार्ड भी, ध्यान से नहीं देखा. हालाँकि हंसा दी ने, परिवार वाले, व्हाट्सएप ग्रुप और उसके पर्सनल व्हाट्सएप पर भी, डाला था. उसे किसी भी, वैवाहिक- निमन्त्रण में, दिलचस्पी नहीं. कोई इसे लेकर, उसे कुरेदता भी नहीं! 

              शादी के पहले वाली रात को, बार- बार, रमेंद्र के खयाल, आते रहे. वह होता तो बताती- कैसे पैतृक घर में, पुरानी नौकरानी संग, अकेली पड़ी है! बचपन में, ‘लिटिल मरमेड’ वाली, कहानी पढ़ी थी. उसमें एक जलपरी और एक राजकुमार को, एक-दूजे से, प्यार हो जाता है. जलपरी को, प्रेमी के साथ, गठबंधन के लिए, एक पूर्ण स्त्री बनना था. उसकी कहानी भी तो, उस जलपरी जैसी ही है! वह अक्सर, सपने में देखती है कि अगले जन्म में, वह भरी- पूरी नारी, बन गयी और रमेंद्र उसका पति!! 

               फेसबुक और इंस्ट्राग्राम पर, उस तथाकथित सिंड्रोम से ग्रसित, महिलाओं के समूह हैं. जीवन की विडंबना से… जटिल ‘मेडिकल कंडीशन’ से, लड़ने के लिए, भावनात्मक संबल, प्रदान करना और सामजिक जागरूकता और स्वीकार्यता की, राह प्रशस्त करना, जिनका उद्देश्य है. सदस्य स्त्रियों की, मानसिक समस्याएँ बहुतेरी हैं; मनोग्रंथियाँ भी अनगिनत …कुछ तो प्रेम नामक ‘दुर्घटना’ के, फेर में ही नहीं पड़तीं; तो कुछ, भ्रामक प्रेम- सम्बन्धों के जाल में…उलझती ही चली जाती हैं!

वहीं देखा कि इस स्थिति से, उबरने के लिए, एक महिला ने; अपने और अपने पति के, अंशों का, कृत्रिम गर्भाधान कराया और किराये की कोख में, भ्रूण का, विकास हुआ. आज उसे, एक सुंदर सा, बेटा है. आजकल तो, कृत्रिम गर्भाशय का, प्रत्यारोपण भी, सम्भव है. 

                 वह उदास होकर सोचती है कि काश वह भी, ऐसा कुछ, कर सकी होती. भारतीय समाज में तो लड़की की, छोटी सी कमी भी, बदनामी का सबब, बन जाती है! लाचारी में, उसे, छुपाना पड़ता है. हिया के समय में, इसके लिए, चिकित्सा- पद्धति अवश्य थी किन्तु इतनी उच्च तकनीक व संसाधन नहीं थे. उसके अभिभावकों के सामने, आर्थिक समस्या भी थी. मध्यमवर्ग वालों के लिए, तीन बच्चों का, पालन- पोषण ही, कठिन होता है. महंगे इलाज का, पैसा कैसे जुटाते?! 

                 विवाह वाले दिन, शुरू से ही चहल- पहल, हो रही थी. मेहमान आपस में, बोल- बतिया रहे थे. नये परिधानों की बहार और तीखे परफ्यूम्स की, मिली- जुली महक थी. महिलाएं खूब चहक रही थीं. बच्चे इधर- उधर, मंडराकर, शोर कर रहे थे. सुबह, गाने- बजाने- नाचने का, एक दौर चला. फिर सब जन, अपना ‘गेट- अप’, बनाने लगे. द्वारचार के समय, दूल्हे को देखकर, हिया का दिल, उछलकर; हलक तक, आ गया! यह तो हूबहू, रमेंद्र की प्रतिकृति था! उसने चुपके से, व्हाट्सएप पर, विवाह का आमन्त्रण देखा. उसमें दूल्हे के, पिता का नाम, रमेंद्र लाल ही तो लिखा था...तो क्या, हंसा दी ने, जानकर; उससे, इसकी चर्चा नहीं की?! 

                 निःसंदेह... यह एक, सुखद आश्चर्य रहा! आगे के पल, परीकथा से, सरकते रहे. दूल्हे में, रमेंद्र का अंश और दुल्हन में... उसकी सगी भांजी में – उसके अपने गुणसूत्र! यों लगा, ज्यों मंडप में, दुल्हन के स्थान पर, वह ही बैठी थी और दूल्हे की जगह पर रमेंद्र. विदा के समय, ऐसा लगा, मानों; वह स्वयं, विदा हो रही हो! नीला के गले लगकर, वह, हिलक- हिलककर, रो रही थी. नीला स्तब्ध थी- छोटी मौसी के हृदय- परिवर्तन पर ...उनकी सहसा, उमड़ आयी, ममता पर!! 

                

       

      

          

   



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