घर
घर
सामने लगे ऊंचे ऊंचे वृक्षों की ओट से झांकते हुए दो तीन छोटे-छोटे चिड़िया के बच्चे खूब शोर मचा रहे थे। पीली पीली चोंच के भीतर का लाल रंग जैसे सूखता गया था। लाचार से कभी इधर लुढ़कते तो कभी उधर परंतु करीने से बुने हुए उस घोंसले के भीतर ही लुढ़क जाते। तभी दूर से उड़ती हुई चिड़िया आई चोंच में दाने भरे हुए थे कुछ कीड़े मकोड़े भी दिख रहे थे। पहले एक डाल पर बैठी चारों ओर नजर घुमाई, फिर दूसरी डाल पर बैठी और वैसे ही चारों ओर घूम घूम कर जब यह विश्वास हो गया कि उसे कोई नहीं देख रहा तो फुर से उड़कर बच्चों के पास घोंसले में लौट आई और धीरे-धीरे अपनी चोंच से उनकी चोंच में दाने डालने लगी। यह क्रिया निरंतर एक से डेढ़ महीने चली जब तक कि उसके बच्चे उड़ने में समक्ष नहीं हो गए और फिर एक दिन घोंसला छोड़ कर उड़ गए। नई उड़ान नया रोमांच और एक आजाद जिंदगी जीने के लिए। घोंसला खाली हो गया। चिड़िया को भी शायद कोई रंज ना था। वह निश्चित थी कि उसने अपनी जिम्मेदारी बखूबी पूरी करी और उसमें सफल भी हो गई।
कविता अपनी बालकनी से यह दृश्य कई दिनों से देख रही थी। यूं ही उसके मन में ख्याल आया कि कितनी समानता है इन पक्षियों में और हमारे जीवन में। कल ही आदि का फोन आया, कुछ महीने में विवाह है उसका। यूं तो मां से अटूट प्रेम करता है परंतु अनजाने में कही हुई बात कविता को अपना आत्मनिरीक्षण करने के लिए मजबूर कर गई।
बहुत सुनते थे अपेक्षा ही सारे विवाद, मतभेद की जननी है। यही तो बोला आदि ने की ‘मां धीरे-धीरे ही घर सजाऊंगा, वक्त नहीं है सब एक साथ करने का’। ‘घर’ तो यह क्या है? जहां तुम जन्मे, बड़े हुए सारा बचपन बिताया, पढ़ाई करी, हंसे, खेलें, रोए, बीमार हुए और फिर ठीक भी हो गए- मां बाप के साथ बिताए हुए 20 साल अगर इस चारदीवारी को घर ना बना सके तो हम किस आशा में जी रहे हैं? यह मेरा घर, वह तेरा ….
यह समस्या हमारे उभरते पनपते और विकसित समाज की है। अक्सर बहुत जगह माता-पिता भी यही बोलते नजर आते हैं- बेटे के ‘घर’ जा रहे हैं और बेटा या बेटी भी ‘घर’ शब्द से संबोधन करना भूल सा जाते हैं। यही बोला जाता है- पेरेंट्स के पास जा रहे हैं, या वह गली, वह शहर का नाम लिया जाता है जैसे महारानी बाग, लाजपत नगर, चितरंजन पार्क वगैरा-वगैरा ।
मन में उभरते हुए प्रश्नों के चक्रव्यू से बाहर निकलना कविता के लिए नामुमकिन सा हो रहा था। समझाना चाहती थी मन को की आदि की जिंदगी उसकी है, उसे कैसे जीना है? कहां रहना है?, किसके साथ रहना है? इसका निर्णय सिर्फ और सिर्फ उसी का है। उसके जीवन में जिस समय प्रमुख भूमिका मां की निभानी थी, वह तो तुम निभा चुकी और वह भी बड़ी संजीदगी से। यह शायद नए युग का नया चलन है, जहां बच्चे घर से बाहर कदम रखते हैं वहीं से घर की परिभाषा में परिवर्तन शुरू हो जाता है। पहले हॉस्टल, फिर कमरे और फिर अपार्टमेंट जो आखिर में ‘मेरा घर’ में रूपांतरित हो जाता है। तुम आओ ‘मेरे घर’ मां -बेटा बोलता है, और मां भी एक आस भरी दृष्टि से देखते हुए बोलती है ‘घर’ कब आओगे बेटा?