अपनों पर एहसान कैसा? ये तो मेरा फर्ज था।
अपनों पर एहसान कैसा? ये तो मेरा फर्ज था।
इंद्रावती ने बृजमोहन को आवाज दीऔर एक पंक्ति में सोते हुए पांचो बच्चों के ऊपर से रजाई को हटाते हुए पूछा-यह सब कौन है बृज?कोई अंतर दिखता है तुम्हें इनमें?बृज की आंखें नम थी,धीरे से बोला–’मां,अपने ही बच्चे हैं, अंतर कैसा?और अंतर हो भी कैसे सकता है?देखो तो कैसे मासूमियत से एक दूसरे से सटकर सो रहे हैं।
इंद्रावती ने तुरंत बच्चों को रजाई से ढका ।
दिसंबर के महीने में कश्मीर में सर्दियांअपनी चरम सीमा पर होती हैं,चारों ओर घाटी सफेद बर्फ की चादर से ढकी हुई थी।ऊपर दीवार पर टंगे हुए बल्ब से छनती हुई रोशनी में वास्तव में किसी भी बच्चे की सूरत देखना या पहचाना असंभव सा था,हां उनकी लंबाई से उनके नाम का अंदाजा लगाया जा सकता था।
इंद्रावती ने बृज की बाहं पकड़ कर बोला–बस, यही सुनना चाहती थी मैं “अपने बच्चे”।आवाज में कठोरता थी परंतु आंखों से अश्रु धारा बह रही थी।वह फिर बोली-जानते हो “अपने”शब्द के साथ अधिकारऔर फर्ज दोनों जुड़ जाते हैं। भेदभाव की गुंजाइश नहीं रहती।तुम समझ रहे हो ना बृज? बृजमोहन सर झुकाए सिर्फ सुन रहा था,उसकी आंखेंअभी भी नाम थी।आंखों के आगे3 महीने पहले का हादसा चलचित्र की तरह घूम रहा था।
चुन्नीलाल बृजमोहन का बड़ा भाई था।दोनों भाईअपने परिवारों के साथ एक साथ रहते थे।परिवार एक संयुक्त परिवार की मिसाल था।चुन्नीलाल की पत्नी सुशीला उनके दो पुत्र गोपी और विजयऔर बृजमोहन की धर्मपत्नी सीता और उनके तीन पुत्र अजय आनंद और अमर एक साथ एक ही घर में रहते थे।घर का नियंत्रण दादी इंद्रावती के हाथ में था।दोनों बहुएं मिलजुल कर घर का काम करती।
कुल मिलाकर सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि अचानक चुन्नीलाल को किसी भयंकर बीमारी ने घेर लिया।बृजमोहन ने बड़े भाई के इलाज में कोई कसर न छोड़ी,शहर- शहर, गांव- गांव, जहां भी, जिसने भी, जो भी डॉक्टर या हकीम बताया,वह उसे वहां ले गया।बड़े भाई की बीमारी ने उसे उसी का पिता बना दिया था। परंतु ईश्वर के निर्णय के आगे बृजमोहन हार गया।
यह घटना कश्मीर के एक छोटे से गांव की हैऔर और उस समय की है जब घरों में मिट्टी के चूल्हे होते थे,पानी के लिए घाट पर जाना पड़ता था,अधिकतर लोगअपने ही घरों के बाहर की जमीन पर छोटी-मोटी खेती सेअनाज सब्जियां उगाया करते थे और घरों में बिजली के बल्ब तो संपन्नता का संकेत हुआ करते थे।
वचन तो बृजमोहन ने मां को दे दिया,पर छोटी सी जगह में रहकर आठ सदस्यों का पेट पालना सरल ना था। सरकारी मुलाजिम था ब्रजमोहन और वेतन ₹50।पांच बच्चों की शिक्षा इतनी कम आय में कतई संभव न थी।कुछ निश्चय कर ब्रजमोहन दिल्ली की ओर निकल गया।मां को आश्वासन दिया की इन पांचो बच्चों का भरण पोषण एक सा ही करूंगा।
दिल्ली पहुंचकर सबसे पहले उन्होंने एक सेकंड हैंड साइकिल खरीदी। बी ए पास तो था बृजमोहन तो थोड़ा खोजबीन करने के बाद उसे वहां नौकरी मिल गई।यहां पर वेतन ₹100 था परंतु रहने की व्यवस्था नहीं थी।दिल्ली पहुंचकर बृजमोहन को शहर और गांव के बीच काअंतर समझ आ गया था।बच्चों कोअच्छी शिक्षा यही मिल सकती थी।
किसी सज्जन व्यक्ति की मदद से उसने दो कमरों का एक क्क्वार्टर किराए पर लिया।20 किलोमीटर की दूरीपर स्थित ऑफिस वह अपनी साइकिल से ही आता जाता ताकि रोजाना के बस के किराए के 20 पैसे बचा सके।
तीन महीने बाद बृजमोहन पांच बच्चे अपनी पत्नी और भाभी सुशीला को लेकर दिल्ली आ गया।
यह कठिन संघर्ष की शुरुआत थी।।बच्चों ने स्कूल में दाखिला ले लिया।बड़ी खींचा तानी करके महीने का गुजारा होता। बच्चे भी पिता के इस संघर्ष और कठिन परिश्रम को देखकर बहुत ही परिपक्व हो गए थे। कुछ भी मांगने से पहले बहुत सोच विचार करते।समय से पहले ही वह मानसिक रूप से वयस्क हो गए थे ।
अब ब्रजमोहन जी की समद
र्शीता का उदाहरण देखिए-पांचो बच्चों को एक से ही कपड़े पहनाए जाते,एक ही रंग के,एक से ही जूते। वैसे तोअपने व्यवहार से और सभ्यता के कारण सभी बच्चों को उनके पड़ोसी पांच पांडव के नाम से बुलाते थे परंतु जिस दिन सभी एक साथ एक से कपड़े पहन कर निकलते ,उन्हें छेड़ने से ना चूकते।
बच्चे बड़े हुए तो खर्च भी,और ज़रूरतें भी।अब शाम कोऑफिस से लौटने के बाद बृजमोहन ने पड़ोस पड़ोस के बच्चों की ट्यूशन लेना शुरू कर दिया।अब इस संघर्षमयं जीवन को जीतना ही उसका एकमात्र लक्ष्य था।
घर में पत्नी और भाभी के बीच का संबंध मैत्रीपूर्ण रहे और भाभी को किसी हीन भावना से ग्रसित ना होना पड़े, इसका पूरा- पूरा ध्यान रखता था बृजमोहन।
मोहताजी का एहसास आपके स्वाभिमान को तहस-नहस कर देता है। अब यहां सुशीला की मन स्थिति का अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है ।उसे कई बार अपनी शोचनीय और दयनीय स्थिति पर क्रोध आता बहुत कुलबुलाहट होती।कितनी बार अकेले में रो लेती,कई बार ईश्वर को कोसती फिर दूसरे ही पल सोचती कि वास्तव में यदि बृजमोहन भैया माताजी को वचन न देते तो वह इन दो बच्चों को लेकर कहां जाती?
आपके व्यक्तित्व को निखारने में आपकी परवरिश की एक अहम भूमिका होती है। पांचो बच्चे एक आदर्श बालक का उदाहरण थे।किसी को भी उन पर गर्व हो सकता था।
अब नौकरी की बारी आई तो चुन्नीलाल जी के बेटों को कश्मीर जाना पड़ा।काफी मार्मिक दृश्य था,20 साल के बाद पहली बार दोनों घर से बाहर जा रहे थे।
गोपी और विजय अक्सर आते और ब्रजमोहन को कश्मीर के किस्से, कहानी, गांव में हुए विकास के बारे में बताते।
एक समय वह भी आया जब पांचो भाई अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त थे।ब्रजमोहनऔर उनकी पत्नी सीता घर में अकेले रह गए,परंतु बृजमोहन को संतोष था कि उन्होंने मां को दिया हुआ वचन पूरा किया।
अब संघर्ष का एक और दौर शुरू हुआ ।
बच्चों का भविष्य बनाने में वह इन 25 सालों में इस तरह जुटा रहा कि रिटायरमेंट के बाद घर चलाने के लिए वह कुछ धन संचित ना कर सका,या शायद इसकी गुंजाइश ही नहीं थी।सभी बच्चे अलग-अलग शहर में बस गए थे तो उन्हें घर की आर्थिक स्थिति काअनुमान ही नहीं रहा था।
घर से थोड़ा ही दूर एक लाइब्रेरी में उसने लाइब्रेरियन की नौकरी ले ली।वेतन इतना ही था की घर का निर्वाह ठीक-ठाक तरीके से हो जाता।बृजमोहन अब 61 साल का वरिष्ठ नागरिक था,और जीवन की इस दूसरी पारी को खेलने के लिए उसने नई साइकिल ले ली।
जीवन सुचारु रूप से चल रहा था,अचानक एक दिन चुन्नीलाल का बड़ा बेटा गोपी कश्मीर से ट्रांसफर होकर दिल्ली आ गया।घर में बृजमोहन को न देखकर उसने उनकी पत्नी सीता से पूछा-छोटी मां,पापा कहां है? इससे पहले कि सीता उसकी बात का जवाब देती,बाहर साइकिल की घंटी सुनाई दी।सीता दरवाजा खोलने के लिए गईऔर पीछे-पीछे गोपी।वही प्रश्न गोपी ने बृजमोहन के सामने दोहराया। बृजमोहन ने बड़ी सादगी से उत्तर दिया-बेटा घर में सारा दिन समय नहीं कटता,तो कुछ देर लाइब्रेरी में निकाल लेता हूं।
गोपी समझ तो गया परंतु उनके आत्म स्वाभिमान को ठेस न पहुंचे,बड़ी विनम्रता से बोला- -पापा,मेरा दिल्ली ट्रांसफर हो गया है,तो आप हमारे साथ रहिए।घर में सभी रहेंगे तो समय अच्छे से कटेगा।आपने इतना काबिल तो हमें बनाया ही है कि हम यह जिम्मेदारी उठा सके।
बृजमोहन ने मुस्कुराते हुए बोला–क्यों भाई गोपू, मैंने तो पापा का फर्ज निभाया,मैं जानता हूं कि तुम क्या सोच रहे हो। तुम सभी बच्चों पर मुझे अभिमान है। अपनों पर एहसान कैसा? अपने दिल पर कोई बोझ ना लो। मैं और तुम्हारी छोटी मां यही इसी घर में रहेंगे।
बच्चों से प्रेम अपनी जगह था परंतु जीवन का रहा सहा समय वह निश्चित हो कर बिना किसी बंधन के बिताना चाहता था।