घिन
घिन
"क्या देख रही है ? लेगी क्या ?"
"तू देगी ?"
"मैं नहीं देगी तो ये भी रंडी बन जाएगी।"
हिला दिया था इस वाक्य ने मुझे। बड़ी मुश्किल से मैं बाहर जीप तक पहुँची। कुछ नहीं सूझ रहा था। मैं जिसने कि बड़े से बड़े केस सुलझाए थे, कठिन से कठिन सवालों के जवाब ढूँढ निकाले थे, इस एक वाक्य का जवाब नहीं तलाश पा रही थी।
आज विश्वस्त सूत्रों से हमें एक होटल में धंधे की खबर मिली। इन दिनों इस शहर में ये घटनाएँ ज़ोरो पर थीं। मैं आग बबूला हो उठती थी। एक औरत होने पर घिन आने लगती थी। कैसे कुछ पैसों के लिए कोई अपनी इज़्ज़त से खेल सकता है ? मैं कभी नहीं समझ पाई थी। ऐसी औरतों से मुझे शर्म महसूस होती थी। जब जब भी रेड डालने जाती, मुझे इन्हें छूना भी न भाता। अक्सर ही साथ की किसी कांस्टेबल से गिरफ्तार करवाती मैं इन्हें। और इनके चेहरे पर बिखरी वो बेशर्म मुस्कान! मुझे चुभ जाती थी आँखों में। जैसे मेरा मज़ाक बना रही हों, " देख, तेरे ही सामने कुचली गयी मैं!"
मैं समझ ही न पाती थी कि आखिर क्या मजबूरी रही होगी।
मैं, मैं कौन ? मैं इस देश की एक खास नागरिक, जी मेरे कंधों पर इस समाज के ज़ुल्मों के नाश का भार है। एक पुलिस इंस्पेक्टर हूँ मैं।
कांस्टेबल के खबर करते ही चल पड़ी थी मैं ड्यूटी निभाने। होटल पहुँच बिना किसी पूर्व सूचना के एक झटके में ही दरवाज़ा तोड़ मैं घुस गई थी भीतर कमरे में।
जहाँ कोई मेरे ही बाप- भाई की उम्र का अपनी "ज़रूरतें" पूरी करने के बाद अपनी पेंट की ज़िप बन्द कर रहा था। कांस्टेबल से कह उसे धरा मैंने तो अपने चेहरे को छिपाता वो अपने कर्मो को छिपाने की कोशिशों में लगा था। और वहीं एक कोने में लगभग 3 से 4 साल की लड़की उस औरत का पल्लू पकड़े उससे खेल रही थी। शायद अभी नींद से जागी थी। उसकी आँखों के कोरो पर अभी भी सपने तैर रहे थे। मैं कुछ यूँ खोई उन सपनों में कि कुछ पलों के लिए अपने होश खो बैठी।
मुझे यूँ घूरता देख ही शायद पूछ बैठी थी वो-
" लेगी क्या ?"
और मैं न जाने किस धुन में बोल उठी," देगी क्या ?"
उसने जो कहा सुनकर पैर थरथरा गए थे मेरे। मुश्किलों से संभाल खुद को, कांस्टेबल को उसे गिरफ्तार करने और बच्ची को सुरक्षित खुद के पास रखने का बोल घर चली आई थी मैं।
" पागल हो गई हो क्या ?" ये शब्द थे मेरे पति के, जब उन्हें बताया था मैंने कि उस बच्ची को गोद लेना चाहती हूँ मैं।
" तुम्हें तो घिन आती है ऐसी औरतों से ? कुछ देर का पागलपन है बस! ले लोगी उसे गोद! संभाल पाओगी। घिन दूर हो जाएगी तुम्हारी ? सो जाओ! हम्म, गोद लूँगी।" एक कटार की तरह जाकर लगे थे शब्द मेरे सीने में धड़कते उस दिल पर!
पूरी रात करवटों में बीती।
सुबह हो चुकी थी, सूरज निकल आया था, कुछ नए फैसले और कुछ नई राहें लिए।
वो बच्ची मेरी गोद में थी। एक बचपन को अपने आँगन में देखने को तरसती इस कठोर औरत के मन में प्यार के बीज रोपने वाली उस बच्ची को सीने से लगाये मैं एक सुखद मातृत्व को महसूस कर रही थी। वादा किया था पति से और खुद से भी कि इसे घिन का मसौदा नहीं बनने दूँगी। न खुद की, न किसी और की।