Jhilmil Sitara

Inspirational Children

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Jhilmil Sitara

Inspirational Children

फ़रिश्ता भाई

फ़रिश्ता भाई

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रक्षाबंधन आते ही वो मंज़र भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है जिसे भुला देना आसां नहीं है अबतक मेरे लिए। जब मैं लगभग आठ नौ साल की थी अपने परिवार के साथ मुंगेर जिले में रहती थी। उन दिनों वहाँ के हालात इतने खराब थे जिनका जिक्र आज मुमकिन नहीं है। हम एक किराये के मकान में दूसरे तल्ले पर रहते थे। कॉलोनी अच्छी थी वो। बड़ी - बड़ी इमारतें थी और नौकरी - व्यवसाय करने वाले मध्यम वर्गीय लोग रहते थे। कॉलोनी के अंदर एक हनुमान जी का मंदिर था जो कॉलोनी के गेट के ठीक पास था। सुबह - शाम वहाँ भजन - कीर्तन हुआ करते थे। आरती के समय होने वाले भजन की आवाज़ घर तक आती थी जिसे सुनकर बहुत सुखद अनुभूति होती थी। कॉलोनी के अंदर काफ़ी परिवार थे जिसके कारण बहुत बच्चे एक ही उम्र के थे हमलोग जो साथ खेलते और धमाल मचाते थे। कुछ महीनों में ही हम सब का मन लग गया यहाँ और आस - पड़ोस में अच्छी जान - पहचान भी हो गई जिससे वक़्त अच्छा गुजरने लगा। अबतक सबकुछ सामान्य और अच्छा चल रहा था क्यूँकि, अबतक मैंने इस शहर का वो भयानक रूप नहीं देखा था जिसने मेरे बचपन को, मेरे मासूम मन को डर से भर गया था।


एक दिन स्कूल से आकर मैं अपने छोटे भाई के साथ कुछ चॉकलेट खरीदने पास के दुकान में गई जो कॉलोनी के ठीक बाहर था सड़क के उस पार। मैं छोटे भाई को चॉकलेट दिला कर सड़क के बाई ओर उसका हाथ पकड़ कविता सुनाते हुए चल रही थी की, अचानक ठीक हमारे आगे चल रहे एक मेरी ही उम्र के बच्चे को कुछ लोग उठाकर वैन में जबरदस्ती डालने लगे। वो बच्चा चिल्लाने की, हाथ पैर मारने की पूरी कोशिश कर रहा था जो नाकाम साबित हुआ और उसे वो दरिंदे उठा ले गए। मेरे तो जैसे बूत बनकर रह गई। जबतक कोई हालात समझकर मदद करता वो उस मासूम को लेकर जा चुके थे। तभी हमारे पास एक पंद्रह - सोलह साल के भईया आए जो हमारी कॉलोनी में सब्जी बेचने अपने पिता के साथ आते थे। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और छोटे भाई को गोद में लेकर तेज चलते हुए कॉलोनी के अंदर ले गए और हनुमान मंदिर की सीढ़ियों पर छोड़ते हुए बोले तुमलोग घर चले जाओ जल्दी। और कॉलोनी का गेट बंद कर खड़े होकर हमारे घर पहुंचने तक देखते रहे। उनका नाम शारीब था। घर पहुंच कर मैंने सबकुछ माँ को बताया रोते हुए जिसे सुनकर माँ घबरा गईं और झट से दरवाजा बंद कर दिया। कुछ दिनों तक डर के सदमे से स्कूल भी नहीं गए। उस बच्चे के आपहरकर्ताओं ने फिरौती नहीं मिलने पर उसकी जान ले ली। उफ्फ़ कैसे निर्दयी लोग थे जिनका जरा भी कलेजा नहीं कांपा किसी के कलेजे के टुकड़े की हत्या करते हुए... क्या उनकी औलादें नहीं थीं, अपने बच्चों का चेहरा क्यों नज़र नहीं आया उस बेबस रोते - तड़पते बच्चे के चेहरे में आख़िर...? उसकी जगह मैं भी हो सकती थी, मेरा पाँच साल का भाई भी हो सकता था। उसके दर्द को मैं आज भी महसूस करती हूँ और कहीं किसी बच्चे के अपहरण की खबर उस घटना को फिर से मेरे सामने लेकर खड़ा कर देती है।


कुछ दिनों बाद मैं अपनी दोस्त पूजा के साथ स्कूल से घर आ रही थी की, पुलिस की गाड़ियों की आवाज़ें आने लगी। एक साथ कई गाड़ियां हर तरफ फैलने लगी थी। लोगों के चीखने - चिल्लाने की आवाज़ें बढ़ने लगी। पूजा यहीं रहती थी जन्म से इसलिए उसे अंदाज़ा हो गया की हो क्या रहा है और वो छुपने की जगह खोजने लगी और मेरा हाथ पकड़ कर एक तरफ ले गई। अभी भी हमारी कॉलोनी आने में समय था। घरवालों को शायद अब तक पुलिस सायरन से पता चल गया होगा की बाहर हालात खराब हो चुके हैं और कर्फ्यू का माहौल हो चूका था। सबको अपने घरों में रहने के लिए माइक से कहा जा रहा था। मैं इतना नहीं समझ पा रही थी तबतक जबतक मैंने लोगों को आपस में लड़ते हुए और हिंसा की पराकाष्ठा को देखा नहीं अपनी आँखों से। उस दिन भी शारीब भईया फ़रिश्ते की तरह आ गए। वो भी अपने पिताजी के साथ उसी गली से छुपते हुए गुजर रहे थे अपनी सब्जी के ठेले के साथ जो उनकी रोजी - रोटी का जरिया थी। शारीब भईया की नज़र हम दोनों पर पड़ी और वो दौड़ कर हमारे पास आए। और हम दोनों उनके साथ पास ही रखी ईंटों के पीछे छुप गए इतने में उनके पिता उनको आवाज़ देने लगे तो भईया ने उनको चुप रहने का इशारा किया और हम तीनों उनके पिताजी के पास भागते हुए गए। अब दंगाइयों की नज़र हम पर पड़ चुकी थी। कुछ हमारी तरफ दौड़ने लगे। इतने में शारीब भईया ने हमें खिंचा और उसके तरफ दौड़े जिधऱ उनका छोटा सा मकान था। उनके पिताजी हमारे पीछे ही थे। वो जल्दी चलो बच्चों कहते हुए अपनी उम्र के हिसाब से भाग रहे थे। दो तीन पतली गलियों के बाद हम शारीब भईया के मकान पहुँचे। अंदर आते ही उनके पिताजी ने दरवाजे को बंद कर दिया और शारीब भईया दरवाजे पर अनाज की बोरियां लगाने लगे जिससे दरवाजा आसानी से ना खुले। हम दोनों को भईया ने रसोई में छुपा दिया और खुद खिड़की के पास खड़े हो गए। उनके पिताजी दरवाजे के पास ही बैठे थे। अब मुझे बहुत डर लग रहा था और रोना आ रहा था। ऐसा लग रहा था अब जिंदा लौट पाना मुश्किल है घर। माँ - पापा और छोटे भाई की बहुत - बहुत याद आ रही थी। मैं रसोई के फर्श पर बैठ कर रोने लगी। पूजा मेरी उम्र की होकर भी मुझसे ज्यादा हिम्मत वाली और होशियार थी उसने मेरा मुँह बंद कर दिया और गले लगाकर बोली आवाज़ मत करो वरना हम दोनों के साथ शारीब भईया और उनके पिताजी की जान भी खतरे में पड़ जाएगी। वो खुद भी सुबक रही थी फिर भी हौसला रखे हुए थी। उसे देख कर मुझे कुछ हौसला मिला और मैं उनके गले लगी रही। थोड़ी देर बाद दरवाजे पर दस्तक हुई जिसे सुनकर हम और घबरा गए। शारीब भईया ने चुप रहने का इशारा किया और दरवाजे की तरफ बढ़े जहाँ उनके पिताजी पहले से मौजूद थे। मैंने पूजा को और कसकर पकड़ लिया। तभी दरवाजे के उस तरफ से एक औरत की आवाज़ आयी जो शारीब भईया की माँ थीं जो सर पर टोकरी में रखकर सब्जी बेचती थीं। माँ की आवाज़ सुनकर दोनों ने दरवाजे से बोरियां हटाई और उनकी माँ जल्दी से अंदर आ गई और दरवाजे को पहले की तरह बंद कर दिया। उनकी माँ को सिर पर चोट लगी थी उन्होंने बताया भागने में गिर गई थीं। फिर उनकी माँ ने मुझे और पूजा को प्यार से देखा और हमारे पास आकर बैठ गईं। थोड़ी देर बाद हो - हल्ला कुछ कम होता हुआ महसूस हुआ क्यूँकि, पुलिस की गाड़ियों की सायरन बढ़ने लगी थी। शारीब भईया ने बाहर जाकर हालात का मुआयना किया और अपने साथ पुलिस लाये और हम दोनों को खुद पुलिस जीप में बिठाकर आए। रास्ते में अब भी दंगे के निशान थे। कहीं आग लगी थी दुकानों में, कहीं गाड़ियों के शीशे टूटे थे, कहीं एम्बुलेंस पर घायलों को ले जया जा रहा था, कहीं सड़क पर लाठियाँ पर तेज धार हथियार गिरे हुए थे, कहीं खून के निशान थे दीवारों पर और सड़क पर। पूजा मेरा चेहरा छुपाना चाहती थी मगर, मैंने उसके कंधे पर सर रख कर उसका हाथ जोर से थामे हुए भी सब देख रही थी और अब आँसू भी रुक चुके थे मेरे हाँ मगर मैं सहमी हुई थी अंदर ही अंदर अब। घर पहुंच सबको सही सलामत देख बहुत हद तक मैं सामान्य हो गई। मेरे पापा को भी दफ़्तर से पुलिस सुरक्षा में घर लाया गया था। घर पहुंच कर मैंने शारीब भईया और उनके पिताजी ने कैसे मेरी और पूजा की जान बचाई बताया। उन्होंने उनका तहेदिल से शुक्रिया अदा किया और हालात कुछ बेहतर होने पर उनको सम्मानित किया साथ ही अपने दफ़्तर में काम पर रख लिया।


कुछ महीनों बाद रखी का पावन त्यौहार आया और मैंने और पूजा ने शारीब भईया को राखी बाँधी जिन्होंने सही मायनों में भाई होने का फर्ज़ निभाया था अपनी परवाह किये बिना। दो साल के बाद मेरे पिताजी का मुंगेर से तबादला हो गया। पूजा का घर वहीं था उसे और शारीब भईया को छोड़ते हुए दुःख भी बहुत हुआ। दोनों मेरे जीवन का अहम हिस्सा जो बन चुके थे। मैं मुंगेर से जाने के बाद भी उन दोनों को ख़त लिखा करती और दोनों जवाब भी देते। हर साल राखी भेजने का सिलसिला भी चल रहा था। लेकिन कुछ सालों पहले शारीब भईया का देहांत हो गया। मगर, आज भी उनकी राखी मैं अलग रहती हूँ खरीद कर उनकी याद में। वो फ़रिश्ता ही थे जिन्होंने मुझे जीवन के इतने रंगों को देखने के लिए मेरी जान बचाई थी।


( सत्य घटना से प्रेरित मेरी ये रचना है ) 


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