Jhilmil Sitara

Tragedy Crime

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Jhilmil Sitara

Tragedy Crime

दर्दनाक दर्दहीन

दर्दनाक दर्दहीन

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बड़े ख़ौफ़नाक मंज़र देखे थे समीरा ने जब से उसका अपहरण कर उसे यहाँ उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ लाया ही नहीं गया बल्कि दिन - रात उसपर जुर्म ढाये गए थे। कसूर सिर्फ इतना की उसने नापसंद कर दिया था उस जबरन बनाने की कोशिश के रिश्ते को। समीरा आगे पढ़ना चाहती थी,19 की उम्र में किसी की पसंद बन गई तो क्या उसे अपना भविष्य अपनी उम्मीदों के अनुरूप बनाने का हक़ नहीं रह गया था। लेकिन, वो बददिमाग़ बतमीज़ शैतान से कम नहीं था। समीरा का इंकार उसे तिनका भर भी मंजूर नहीं था। उठा ले गया उस मासूम को जिसको जरा भी ऐसा होने का उसके साथ हादसा इल्म नहीं था। सपने में भी कौन सोचता है उसकी सामान्य जिन्दगी में ऐसा तूफान आ जाये जो सम्भले का एक अवसर भी ना दे।

अब वो पिछले तीन सालों से उसकी कैद में थी, कोई उसे खोज पाएगा कभी अब यह आसरा भी मर चुका था। पहले पहल समीरा ने बहुत कोशिश की उसे बिगड़ैल को समझाने की, वो नहीं माना। फिर गिड़गिड़ाई, पैर पड़े, वो नहीं बदला। खुद को चोट पहुंचाई, अपनी जान लेने का हरसंभव प्रयास किया फिर भी ना पिघला उस दरिंदे का मन एक कतरा भी। ना वो समीरा को मरने देता ना उसके जख़्मी शरीर पर रहम करता। यातना हद से अधिक होकर भी वो मौत के दरवाजे से वापस खींच कर ले आयी जाती बार - बार, हर बार। फिर अत्याचार सहने की ज्वाला में झोंक दी जाती समीरा। ना भागने का रास्ता, ना मदद की पुकार निकल किसी मददगार तक पहुंचने की रांह मिली उसे अबतक। पत्थर जैसे कलेजे वाले लोग उसकी पहरेदारी में जो थे लगे।

वक़्त बिता जिस तरह उसके अंदर से दर्द का हर अहसास चला गया। अब कोई चाबुक उसे ना रुला पाती है, ना झुका पाती है। वो सब ले लेती है इस माटी के शरीर पर। ज़ख्म नासूर बने या ख़ून फूटे कहीं से वो ना चीखती है ना भागती है इनसे अब। आँसू का कोई कतरा आँखों के किसी कोने में नहीं बचा है अब जो दर्द में होने का अनुमान कराये। खुद को चोट पहुंचना बहुत पहले उसने छोड़ दिया और अब उस सैतान पर भी हमला नहीं करती। जो हो रहा है उसे नहीं रोकती, ना अपनी तरफ से कोई हरकत बची है उसमें। सामने क्या खाने को रखा है नहीं देखती, बस खा लेती है। प्लेट में कुछ नहीं छोड़ती, चाहे कच्चा हो या जला हुआ हो। कपड़े तन पर क्या डाले हैं नहीं होश रखती, जो मिलता है लपेट लेती है। बिस्तर है या पथरीली जमीन फर्क नहीं पड़ता उसे नींद आए जहां सो जाती है। नहीं समीरा पागल नहीं हुई है, क्यूँकि ना वो बेवजह हँसती - रोती है, ना अपने कपड़े फाड़ती है ना अपने बाल नोचती है वो बस शांत हो चुकी है इस कदर की कोई सोच भी नहीं सकता।

मगर ये समीरा तो उसे अच्छी लगने लगी है शायद पहले से कहीं ज्यादा ही। जो जिद्द थी कभी उसकी अब उसे वो पत्थर दिल इंसान चाहने लगा है। जिस समीरा को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ जाकर उसने हासिल किया था, तड़पाया था, इस कदर रुलाया और सताया था, इतनी पीड़ा देकर उसपर अपना अधिकार जमाया था वो अब जैसे अब मिट्टी का पुतला बनकर भी जिंदा थी। चलती थी, हिलती - डुलती और कहने पर नाचती भी थी। कुछ नहीं करती थी बिल्कुल तो वो था मुस्कुराना। मुस्कुराहट आती भी कैसे लबों पर ज़ब मन का कुछ हो ही ना। समीरा ने तन का ध्यान त्याग दिया था क्यूँकि, ये उसका होकर भी अब किसी और के जबरन अधिकार में था। लेकिन, मन और उसकी आत्मा उसका है और रहेगा सदा। ऊपर से पूरी तरह शांत समीरा अपने मन में रहती है अब पूरी तरह। उसी से बातें करती है, उसी से अपने जीने का मक़सद बताती है। वो नहीं जानती यहाँ से कभी जीते - जी निकल पाएगी या नहीं, उसके साथ कबतक यही सब होना लिखा है या इनका कहीं अंत भी है अथवा नहीं। कहीं से कोई उम्मीद की किरण आएगी या नहीं कभी इस भयावह नदी को पर करने के लिए एक तिनके का सहारा मिलेगा भी या नहीं, इन पीड़ाओं का कोई पार है या नहीं..... पता नहीं। भविष्य को लेकर कोई अनुमान भी नहीं करती समीरा अपने लिए भूलकर भी। ना वो तपस्या करती है ना किसी ईश्वर की उपासना कर आस पाती है जीने की। वो अपने मन में सहेजे उन पुराने दिनों की यादों को याद कर जी रही है जिनमें वो वाकई जिंदा थी, तन से भी और पुरे मन से भी।

वो वहसी सोचता है समीरा ने समझौता कर लिया है और अब वो अच्छी तरह रहने लगी है उसके साथ इस कैद में भी। लेकिन, ज़ब उसने देखा गौर से उस बेबस को ओह्ह। आखिर वो रो पड़ा। कैसे वो चुपचाप सामने परोसा हुआ कुछ भी खा लेती है बिना हिचकी लिए बिना नज़र उठाये। किस तरह वो जो हाथ आए कपड़े लपेट उसके करीब आकर बिना बोले लेट जाती है आँखें बंद कर। उसके शरीर पर ऐसे - ऐसे अत्याचार के निशान हैं जो कभी नहीं जाएंगे। वो अपना सिर पकड़ लेता है। ये क्या कर गुजरा वो अपने अहंकार के कारण। कितना तड़पाया उस बेचारी को जो अपने परिवार में कितनी खुश थी, जिंदादिल और होनहार थी। बेधड़क बातें किया करती थी, खुलकर जीती और लहरों सी बलखाती थी। जिसकी मोहक और दिलकश अदाओं को देख वो उसके लिए पागल हुआ था वही सब उससे छीन कर उसका क्या हस्र बना दिया था उसने।

जो घंटो आईने से भी बात किया करती होगी सजते - संवरते हुए उसकी एक आवाज़ नहीं सुनी उसने ना जाने कितने महीनों से। उसका पूरा अस्तित्व ही उसने अपनी खातिर मिटाने की कगार पर था। ये अफ़सोस करने वालों में से नहीं था फिर ये आत्मग्लानि क्यूं भर गया इसके अंदर। नहीं जी सकता वो उसे इतना तोड़ कर, जीवन से विमुख बनाकर। जिसे सालों तक सताया उसकी दशा देख अब उसकी नींद और सुकूँ जा चुका है। वो उसने फैसला किया है उसे उसकी जिन्दगी लौटने का। खुद पुलिस को फोन कर बुलाता है और आखिरी बार समीरा के चेहरे की तरफ देख बारी - बारी सारे पहरेदारों को बाहर ले जाकर गोली मार देता है जिससे आगे इनमें से कोई कहीं समीरा को ना नज़र आएं ना उसकी जिंदगी में कोई दखल देने की गुस्ताखी करें। जैसे ही पुलिस उसके बताये पते पर पहुंचती है वो मुस्कुराते हुए खुद को भी गोली मार लेता है। अपने गुनाह तो ऐसा कर वो मिटा नहीं सकता मगर, उसकी राहों में आगे कभी उसका वजूद मौजूद भी नहीं रहने देगा। अपनी सारी दौलत और जायदाद साथ में शानदार बंगलों समीरा के नाम छोड़ जाता है।

कुछ सालों बाद समीरा अपनी अलग जिन्दगी जी रही है, अलग नाम और पहचान के साथ किसी शहर में नहीं एक हरे भरे गाँव में। परिवार के पास लौटकर उनका दर्दनाक दुखड़ा रोकर उनकी तकलीफ़ नहीं बढ़ाना चाहती थी। अब वो खुश है और कुछ नहीं तो सुकूँ है उसके जीवन में।


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