एक त्योहार ऐसा भी
एक त्योहार ऐसा भी
जैसे-जैसे राखी का त्योहार नजदीक आ रहा था, प्रियांशी का मन उदास हो रहा था।
ये शायद पहली राखी होगी, जब उसके दोनों भाइयों में से एक भी घर पर मौजूद नहीं था।
बड़े भाई की शादी को साल भर ही हुआ था इसलिए भाभी को लेकर वो दो-तीन दिन पहले ही ससुराल गये थे। दूर शहर में भाभी का पीहर था, तो राखी के दिन वापस लौटना संभव नहीं था, आखिरकार बसें, ट्रेन, फ्लाइट सब में प्री-बुकिंग जो चलती है त्योहार की वज़ह से।
और छोटा भाई छः महीने पहले ही आउट ऑफ़ इंडिया गया था, एमबीए की स्टडी के लिए तो उसका भी आना मुमकिन नहीं था।
तो अब घर पर सिर्फ मम्मी-पापा और प्रियांशी ही थे इस बार।
बचपन से लेकर आज तक प्रियांशी को सभी त्योहारों में से राखी का त्योहार सबसे प्रिय था।
पहले जब वो तीनों भाई-बहन छोटे थे तो हर राखी मम्मी-पापा के साथ गाँव जाया करते थे।
वहाँ अपने हमउम्र दोस्तों, छोटे-बड़े भाई-बहनों को राखी बाँधने और फिर धमा-चौकड़ी मचाने का अलग ही मज़ा था !
पूरा हाथ चमकीले धागों वाली स्पंज की राखियों से भर जाता था, रंग-बिरंगे धागों से समूचा त्योहार ही जीवन के पवित्र रंगों से सरोबर हो उठता था।
आज के त्योहारों में वो वाली बात तो नहीं रही मगर फिर भी भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक त्योहार प्रियांशी को हमेशा ऊर्जावान रखता।
सुबह-सुबह पूजा कर के सबसे पहले भगवान के राखी चढ़ायी जाती, फिर सज-धजकर प्रियांशी अपनी पायल से घर को गुंजित करती हुई भाइयों के राखी बाँधती।
रंगीन धागों से सजी, चमकते मोतियों से जगमगाती और चंदन के इत्र में भीगी राखी बंधवा कर दोनों भाई अपनी लाड़ली बहन को उपहारों से लाद देते।
प्रियांशी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता मगर इस राखी भाइयों के दूर रहने की वज़ह से उसका गुलाब सा चेहरा मुरझाया सा था।
हालांकि प्रियांशी ने बड़े भइया और भाभी को पहले ही राखी खरीद कर साथ ले जाने के लिए थमा दी थी और छोटे भाई के लिए भी सुन्दर सी राखी डाक से पोस्ट करवा दी थी मगर फिर भी त्योहार पर भाइयों की गैर मौजूदगी उसे खल रही थी।
आखिर राखी का त्योहार आ ही गया। प्रियांशी ने हर बार की तरह पूजा की, भगवान के राखी चढ़ायी और फिर सबसे पहले बड़े भइया को विडियो कॉल लगाया।
भाई-भाभी दोनों ने प्रियांशी द्वारा दी गई राखी बाँध रखी थी, प्रियांशी का मन खुश हो गया। फिर उसने छोटे भाई से बात की, साहबजादे भी दीदी की भेजी राखी बाँध चुके थे।
विडियो कॉल पर बात खत्म हुई ही थी कि मम्मी के कोई दूर के रिश्ते
दार भाई मिलने आ पहुंचे।
मम्मी उनकी आवभगत में लग गई...अब चूंकि वो राखी के दिन आये थे और रिश्ते में मम्मी के भाई लगते थे तो उन्हें भी राखी बाँधने का ख्याल मन में आया। मगर घर पर कोई एक्स्ट्रा राखी मौजूद नहीं थी इसलिए प्रियांशी को राखी लाने के लिए बाज़ार जाना पड़ा।
राखी की दुकानों पर अभी भी भीड़ थी। शाम तक राखी बाँधने का मुहूर्त था तो लोग अभी भी राखियाँ खरीद रहे थे।
प्रियांशी ने एक दुकान से राखी खरीदी और भुगतान कर दिया। दुकानदार के पास छुट्टे पैसे नहीं थे तो उसने अपने नौकर को पास की दुकान से खुले पैसे लाने भेजा।
प्रियांशी वहीं खड़ी हो इन्तज़ार करने लगी तभी उस दुकान पर एक आदमी आया, शक्ल-सूरत और कपड़ों से गरीब लग रहा था।
उसका हाथ थामे दो छोटे-छोटे से बच्चे भी साथ थे।
आदमी सस्ती राखियाँ देखने लगा और दोनों बच्चों की निगाहें कार्टून राखी पर जा टिकी।
"पप्पा, ये राखी ले लो ना..."-दोनों बच्चों का अलाप शुरू हो गया मगर उनके पिता ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया।
"पप्पा, लो ना...ले लो ना पप्पा...पप्पाsssss...."
आदमी ने उनकी लगातार होती गुजारिश को अनमने भाव से सुना और फिर कार्टून राखी का दाम पूछा।
"चालीस रूपये की एक राखी"- सुनते ही आदमी के चेहरे पर एक के बाद एक भाव आते गये और वो फिर से गर्दन झुकाये दस रूपये के गुच्छे वाली राखियों को चुनने लगा।
प्रियांशी सब देख रही थी, बच्चों की ज़िद, उनके पिता के चेहरे पर छाया बेबसी का भाव, बच्चों का उतरा चेहरा...
वह आगे बढ़ी और दोनों बच्चों से पूछा-" कौनसी राखी चाहिए तुम्हें?"
दोनों बच्चे अपने पिता से चिपट गये। देहाती बच्चों ने कभी किसी मॉर्डन दीदी से बात जो नहीं की थी !
"अरे, क्या हुआ ? बताओ ना कौनसी राखी पसंद है तुम दोनों को ?"
बच्चों ने धीरे से अपनी पसंदीदा कार्टून राखी की तरफ़ ऊँगली उठाई।
"इसमें तो बहुत सारे कलर हैं...तुम्हें किस रंग की चाहिए ?"- प्रियांशी ने मुसकराते हुए पूछा।
"मुझे तो लाल पसंद है।"
"और मुझे ये, नीले रंग की।"
प्रियांशी ने दोनों बच्चों को उनके पसंद के रंगों की राखी खरीदवा दी।
बच्चे बहुत खुश हो गये और उनके पिता ने कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए हाथ जोड़ दिये।
प्रियांशी का मन भर आया । हर राखी उसके भाई उसे काफी उपहार देते थे, जिससे उसे बहुत खुशी मिलती थी मगर इस बार इन दोनों बच्चों को राखी दिलवाकर जो खुशी और सुकून मिला था, वो अनुपम था।