एक सफ़र
एक सफ़र
बीसवीं सदी के आखरी सालों का कोई समय रहा होगा। इलाहबाद रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं.1 पर दिल्ली जाने वाली ट्रेन तैयार खड़ी थी। स्टेश्न पर लगी रेलवे की बड़ी दीवार घड़ी रात के 10:45 बजा रही थी । अभी पद्रंह मिनट बाकी थे ट्रेन छूटने में । प्लेटफार्म पर जाने वालों व उन्हें विदा करने आए लोगों, रिश्तेदारों, मित्रों की अच्छी खासी भीड़ थी। ट्रेन के अंदर भी यात्रियों की अच्छी भीड़ थी। वहीं एक सामान्य डिब्बे के अंदर एक अधेड़ महिला खिड़की की सीट पर बैठी बाहर प्लेटफार्म पर खड़े एक 20-21 साल के लड़के से बातें कर रही थी।
महिला - बेटा एक बार वापिस चार्ट देख ले, क्या पता अब सीट कंफर्म हो गई हो । पाण्डे जी हमेशा करवाते ही हैं ।
लड़का - अरे अम्मा, इस बार नहीं हो पाया होगा। मैंने चार्ट देख लिया, उसमें तुम्हारा नाम वेटिंग में दिखा रहा है । अब कुछ नहीं हो सकता।
महिला थोड़ी उदास होती हुई बोली '' चल ठीक है, यहॉं बैठने की जगह तो मिल ही गई है, चली जाऊँगी ।''
लड़का थोड़ा गुस्से में - अम्मा तुम भी न जिद्दी हो, चार दिन बाद हमारे साथ ही चलती तो एसी तकलीफ ना उठानी पड़ती। अब सारी रात बैठे-2 जाओगी।
महिला - अरे, एक रात की ही तो बातहै, जैसे तैसे पहुँच जाऊंगी , तू चिंता मत कर बेटा ।
लड़का - तुम तो इतनी तकलीक उठाकर जा रही हो, लेकिन नानी और मामा को तो नहीं पता। उन्होंने तो फरमान निकाल दिया बस, उनको कौन समझाए कि इस भीड़ में अकेले आना कोई आसान काम नहीं है । अभी शादी में पॉंच दिन पड़े हैं ।
महिला -अरे क्यों नाराज हो रहा है, देख अभी तेरी नानी बैठी है तो बुला रही है, उसके बाद किसके पास टाईम है, हमें बुलाने का ।
लड़का थोड़ा झुँझलाते हुए चुप खड़ा रहा । फिर थोड़ा शांत होकर बोला -'' पानी की बोतल बैग में ही रख दी है, और हॉं मामा को कह तो दिया था कि किसी को लेने भेज देना।''
उन दोनों की बातों से लगा कि महिला अपने पीहर किसी की शादी में जा रही है । पहनावे से कोई साधारण मध्यमवर्ग परिवार के ही नजर आ रहे थे ।
महिला ने खिड़की से दोनों हाथ बाहर निकालकर अपने बेटे के मुँह व माथे पर हाथ फेरते हुए बोली'' तू परेशान मत हो, कोई आ जाएगा तो ठीक और नहीं भी आएगा तो मैं घर जानती हूँ अपने आप चली जाउँगी।''
वहीं पास में एक 24-25 साल का युवक अपने दोनों कंधों पर एक छोटा बैग लटकाए खड़ा था। शक्ल सूरत से किसी सभ्य खानदान का लग रहा था। महिला ने उस युवक को देखकर पूछा '' बेटा दिल्ली जा रहे हो''
उसने कहा, '' हॉं माताजी''।
ये सुनकर उस महिला के बेटे ने उस युवक से निवेदन किया कि वो उसकी मॉं का ख्याल रखे ।
गाड़ी ने सीटी दे दी थी और चलने के लिए तैयार थी । महिला ने अपने बेटे को हिदायत देनी शुरू कर दी । पिताजी का ध्यान रखना और हॉं मुनिया कॉलेज से घर आ जाए तभी कहीं बाहर निकलना वगैरह वगैरहा.........'' वो बोलती रही तब तक ट्रेन चल चुकी थी और उसके बेटे को कुछ सुनाई दिया, कुछ नहीं ।
वो युवक जो बाहर खड़ा था वो भी अब डिब्बे में चढ़ चुका था और जिस केबिन में वो महिला बैठी थी वो उसी ओर जाने लगा, महिला की नज़रें भी उसी युवक को ढूंढ रही थी । और जैसे ही उसने उसे देखा वो थोड़ी आश्वस्त हुई । वो युवक वहॉं पहुँचकर बैठने की जगह ढूँढने लगा लेकिन उसे बैठने की जगह नहीं मिल रही थी तो उस महिला ने उसे थोड़ी जगह दी बैठने के लिए और दोनों के बीच बातों का सिलसिला चल पड़ा ।
''क्या नाम है बेटा'', '' जी राकेश''।
'' कहॉं के रहने वाले हो और यहॉं किसलिए आए थे ।''
“जी मॉं जी, रहने वाला तो दिल्ली का ही हूँ और यहॉं नौकरी के लिए इंटरव्यू देने आया था।''
''अच्छा-अच्छा, कैसा हुआ तुम्हारा इंटरव्यू, बेटा ।''
''जी ठीक ही हुआ है, बाकी ऊपरवाला जाने।''
''कोई नहीं बेटा, चिंता न कर हो जाएगा।''
'' जी माताजी देखते हैं ।''
और बातों बातों में महिला ने बताया कि उसके सगे भतीजे की शादी है तो भाई और मॉं ने जिद करके जल्दी आने को कहा है । और कहने लगी '' अब तुम ही बताओ बेटा, अपने भतीजे की शादी में तो थोड़ा जल्दी जाना ही पड़ता है। ये तो घर की शादी हुई ना। फिर अभी मॉं भी बैठी है तो वो इंतजार करती है । अब देखो बेटा हम तीन बहनें हैं और एक भाई है । मेरी एक बहन तो बैंगलोर रहती है, वो भी कल पहुँच जाएगी और एक दिल्ली में ही रहती है । अब कल कितने वर्षों बाद हम तीनों बहनें एक साथ होंगी। घर गृहस्थी में फंसने के बाद ये शादी ब्याह के मौके ही तो होते हैं, जब सबसे मिलना हो जाता है ।'' ये कहते हुए उसके चेहरे पर एक अजीब सी चमक फैल चुकी थी । फिर जरा रूककर बोली । '' वो मन्नू , अरे वो मेरा बेटा जो मुझे छोड़ने आया था, खामाख्वाह नाराज हो रहा था, और चिंता कर रहा था। अभी छोटा है ना, तो रिश्ते -नाते और समाज के बारे में ज्यादा पता नहीं है । फिर अंदर की बात तो ये है बेटा कि उसका मेरे बिना मन नहीं लगता, इसलिए परेशान हो रहा था।''
फिर एक गहरी सांस लेकर बोली,'' एक औरत की जिंदगी भी अजीब होती है, शादी के बाद उसकी खुद की घर गृहस्थी की चिंता, तो अगर पीहर में कोई काम पड़ जाए तो वहॉं भी जाना उतना ही जरूरी । हालॉंकि मुझे ही कौनसा अच्छा लगता है कि मैं इन सबको छोड़कर पॉंच-पॉंच दिन के लिए घर से दूर रहूँ, लेकिन क्या करें करना पड़ता है।''
फिर मुस्कुराकर राकेश से बोली, ''अरे बेटा मैं भी कहॉं अपने घर गृहस्थी की बातें लेकर बैठ गई। अच्छा ये बताओ खाना खाया या नहीं ।''
राकेश-'' खा लिया माताजी, आप चिंता न करें । '' थोड़ी देर चुप रहकर वो फिर बोलने लगी। '' फिर तुम्हें तो पता ही है बेटा कि एक बार घर में भाभी आ जाए तो बेटियॉं वैसे भी पीहर जाना थोड़ा कम कर देती हैं । नहीं, नहीं, मैं ये नहीं कह रही कि हमारी भाभी खराब है या हमें आने से रोकती है, लेकिन हम बहनें खुद ही ज्यादा नहीं जाती । वो क्या है न, थोड़ी दूरी सही रहती है नहीं तो भाभी को लगने लगता है कि हम उनके घर की पंचायती कर रही हैं,तो धीरे-धीरे रिश्तों में खटास आने लगती है । लेकिन कुछ भी हो इस बार जब हम सारी बहनें मिलेंगी तो खूब धमा चौकड़ी करेंगी, बस वही बचपन वाली छेड़खानी, हंसी-ठिठोली, रूठना-मनाना, गाना-बजाना और हॉं मॉं से भी तो बहुत बातें करनी हैं।'' ये शब्द कहते-कहते उसके चेहरे के भाव ऐसे हो गए जैसे कोई छोटी बच्च्ी बहुत दिनों बाद अपनी मॉं से मिलने के लिए जा रही हो । फिर कहने लगी “माँ डाँटती रहती है, कहती है – तीनों इतनी बड़ी हो गई हो, घर गृहस्थी वाली हो गई हो लेकिन तुम तीनों का बचपन नहीं जाता। वैसे माँ भी तो एक औरत ही है, वो भी समझती है कि पीहर जगह ही ऐसी होती है कि हर औरत वहाँ पहुंचकर एक बार फिर अपने बचपन में पहुँच जाती है”। ये कहते हुवे उसके चेहरे की मुस्कुराहट ज़रा और मासूम हो गई थी। फिर थोड़ी उदास होकर बोली, “बाबूजी को गए चार साल हो गए, तब से माँ अकेला महसूस करने लगी है। आज बाबूजी होते तो अपने पोते की शादी देखते और कितने खुश होते।लेकिन जैसी भगवान की मर्जी।“ और भी ना जाने क्या-क्या घर गृहस्थी की बातें करती रही और पता ही नहीं चल कब रात के एक बज गए।
सभी अपने सोने का जुगाड़ करने लगे, एक सीट पर दो-दो लोग फंस फंसाकर लेटने लगे। लेकिन वो महिला तो अब भी बातें करने के मूड में थी, तो बोली -
''अच्छा बेटा, दिल्ली में कहॉं रहते हो,''
'' जी सराय रोहिल्ला''
'' अच्छा अच्छा, तो कैसे जाओगे।''
''माताजी स्टेशन के बाहर से कई बसें जाती हैं, उसी से जाउँगा।''
फिर राकेश ने यूँ ही बातों का सिलसिला जारी रखने के लिए पूछा''आप कहॉं जाएंगी, माताजी।''
''मैं, अरे बेटा पहाडगंज के पास ही है। '' ये कहते हुए उसके माथे पर कुछ चिंता की लकीरें उभर गई।
राकेश ने फिर पूछा “आपको तो कोई लेने आ ही जाएगा स्टेशन पर”।
महिला अपनी शंका छुपाते हुए बोली, '' हॉं जरूर आ जाएगा कोई न कोई, ये और बात है कि शादी का घर है, सभी काम में व्यस्त होगें और कोई नहीं आ पाया तो मैं खुद ही चली जाऊँगी।'' ये कहते हुए वो थोड़ी चिंतीत हो गई । तो राकेश बोला, '' कोई न कोई आ ही जाएगा माताजी, नहीं तो आप कह रही हैं कि पहाडगंज के पास ही है तो रिक्शा कर लेना।''
इस पर कुछ देर चुप रहकर बोली, ''बेटा क्या है न इतने सालों में आज पहली बार मैं अकेली जा रही हूँ, और फिर दिल्ली के किस्से तो रोज सुनते हैं, कहीं लूट पाट और महिलाओं के साथ बदसलूकी , न जाने क्या क्या, इसलिए थोड़ा डर लगता है। लेकिन घर ज्यादा दूर नहीं है, मैं पैदल ही चली जाऊँगी ।''
तो राकेश बोला,'' माताजी चिंता न करो कोई न कोई आ ही जाएगा, अब आप आराम से सोईए, मैं भी कहीं जगह देखता हूँ।'' ये कहकर वो वहॉं से उठ खड़ा हुआ तो महिला ने उसका हाथ पकड़कर कहा,''अरे बेटे कहॉं जाओगे इस भीड़ में। मुझे नींद नहीं आ रही, तुम सोना चाहो तो मैं थोड़ा और सरक जाती हूँ ।''
''अरे नहीं, माताजी आप लेटिए न आराम से।''
लेकिन महिला ने उसका हाथ नहीं छोड़ा। उसे जो अकेले सफर करने का डर था वो राकेश से मिलने और बात करने से काफी हद तक कम हो चुका था इसलिए वो नहीं चाहती थी कि राकेश उसे छोड़कर कहीं और जाएं ।
वो बोली,''एक काम करते हैं बेटा, मैं अपनी चादर यहॉं फर्श पर बिछा लेती हूँ ओर वहॉं सो जाती हूँ और तुम इस सीट पर सो जाओ।''
ये सुनकर और महिला के चेहरे के हाव भाव देखकर राकेश को ये समझते हुए देर नहीं लगी कि उसके होने से वो थोड़ी आश्वस्त है और उसके कहीं और चले जाने से वो फिर परेशान हो जाएगी। तो उसने कहा,'' अरे माताजी, आप क्यों नीचे सोएंगी, आप आराम से सीट पर सोईए और मैं अपनी चादर नीचे लगाकर सो जाता हूँ ।'' ये कहकर अपने बैग से उसने चद्दर निकाली और फर्श पर बिछाने लगा। ये देखकर एक बार फिर महिला को थोड़ा संतोष हुआ और थोड़ी आश्वस्त हुई ।
सोने से पहले राकेश उस अंजान महिला जिससे अब एक अंजान रिश्ता कायम हो चुका था हो हाथ पकड़कर जैसे तैसे बाथरूम तक ले जाकर वापस सीट पर लाकर बिठा दिया।
ट्रेन के डिब्बे में भी एक अजीब बात होती है, सफर चाहे छोटा ही हो, लेकिन साथ में सफर कर रहे यात्रियों के बीच बहुत जल्दी ही एक अनजान रिश्ता कायम हो जाता है। वो रिश्ता न धर्म देखता है, न जात पात देखता है, न उंच नीच देखता है और न ही कुछ और देखता है। बेशक ज्यादातर रिश्ते सफर खत्म होने तक ही रहते हैं, लेकिन वो एक दूसरे का सफर आसान जरूर कर देते हैं, जिसकी यादें उनके दिलो-दिमाग में कई बरसों तक रहती है। और ऐसा ही एक रिश्ता राकेश और उस महिला के बीच कायम हो चुका था।
गाड़ी अपनी रफ्तार से चली जा रही थी, महिला सीट पर लेट चुकी थी और राकेश नीचे फर्श पर । महिला की ऑंख बीच में कई बार खुली और खुलते ही उसकी नज़र सीधे फर्श पर लेटे राकेश पर जाती कि वो कहीं चला तो नहीं गया। उसे वहीं पाकर वो आश्वस्त हो जाती और फिर ऑंखें बंद कर लेती। सुबह के सात बज चुके थे, यात्रियों में हलचल शुरू हो चुकी थी। जिन्हें गाजियाबाद उतरना था वो अपने सामान के साथ रेलगाड़ी के दरवाजे के पास पहुँच चुके थे । राकेश भी अपनी चादर समेटकर अपने बैग में डाल चुका था। महिला भी अपनी चादर अपने इकलौते बैग में डाल चुकी थी। राकेश वहीं उनके पास ही सीट पर बैठ गया। महिला फिर बोली,''बेटा नीचे तकलीफ तो हुई होगी?'' ''नहीं माताती, इस भीड़ में इतनी जगह मिल गई वो ही काफी है।''
फिर थोड़ा रूककर वो बोली, ''बेटा एक बात कहूँ, मेरी बात मानोगे ।''
''क्यों नहीं माताजी, आप कहो तो।''
एक गहरी सांस लेते हुए वो बोली, ''बेटा वैसे तो शायद मुझे कोई लेने आ ही जाएगा”, ये कहते हुए उसकी आवाज़ में विश्वास कम और शंका ज्यादा थी। अपनी बात जारी रखते हुए उसने कहा,'' लेकिन अगर कोई नहीं आया तो तुम मुझे मेरे घर तक छोड़ दोगे?'' ये सुनकर राकेश बोला'' मैं आपको रिक्शा करवा दूँगा ।'' ये सुनकार वो थोड़ी निराश हो गई और निराशा में ही अपना सिर हॉं में हिलाने लगी। थोड़ी देर चुप रहरकर फिर कहने लगी,'' बेटा, वैसे घर ज्यादा दूर नहीं है, पैदल भी कोई 15-20 मिनट ही लगेंगे, वो क्या है ना गलियां है न तो रिक्शा वाले को जाने में कठिनाई होगी।'' ये कहकर वो आशा भरी नज़रों से राकेश की तरफ देखने लगी।
उसकी बातें सुनकर राकेश समझ गया कि माताजी को विश्वास नहीं है कि कोई उन्हें लेने आएगा और अकेले रिक्शे में जाने से भी डर रही हैं । तो राकेश बोला'' कोई बात नहीं माताजी, आप चिंता न करें, मैं आपको सही सलामत घर छोड़कर फिर ही जाऊंगा ।'' ये सुनकर उनका चेहरा एकदम खिल गया और राकेश को दुआऍं देने लगी।
गाड़ी नई दिल्ली के प्लेटफार्म नं.5 पर आकर रूक चुकी थी। सभी यात्री नीचे उतरने लगे । फिर राकेश और वो महिला भी गाड़ी से नीचे उतर गए। कुछ देर वहीं प्लेटफार्म पर उस महिला की नज़र इधर उधर दौड़ती रही कि कहीं कोई उसे लेने आया हो। करीब दस मिनट तक इंतजार करने के बाद वो निराश होकर राकेश से बोली,'' लगता है बेटा सभी काम में व्यस्त हो गए हैं, इसलिए लेने नहीं आ पाए, अब तुम्हें ही तकलीफ दूँगी । ''नहीं माताजी, कोई बात नहीं, आईए पुल पार करके बाहर निकलते हैं । '' ये कहकर राकेश ने अपना बैग तो दोनों कंधों पर लेकर पीछे लटका लिया और उनका भारी बैग एक हाथ में ले लिया, और चलने लगा। वो महिला भी उसके साथ चल दी और कहने लगी'' बेटा तुम दो-दो सामान लेकर पुल पर कैसे चढ़ोगे, तुम अपना बैग मुझे दे दो।'' राकेश बोला,'' आप चिंता न करें, आप तो मेरे साथ चलते रहिए।'' लेकिन जब उस महिला ने एक दो बार फिर दोहराया कि वो अपना बैग उसे दे दे, तो राकेश को लगा कि वो उस पर विश्वास तो कर रही हैं लेकिन फिर भी दिल में कहीं एक डर हैं कि मैं उनका सामान लेकर न भाग जाऊँ । वो दिल्ली की घटनाओं को लेकर वैसे भी अपनी शंकर जाहिर कर चुकी थी ।
तो राकेश ने उनको विश्वास दिलाने के लिए कहा,'' अच्छा आप ऐसा करिए मेरा बायां हाथ पकड़ लीजिए, इस भीड़ में कहीं आप खो न जाएं ।''
ये सुनकर उसने राकेश का हाथ जोर से पकड़ लिया और चलने लगी।
स्टेशन से बाहर निकलकर एक बार फिर राकेश ने पूछा कि वो रिक्शा कर लेते हैं, लेकिन वो बोली '' बेटा मैंने कहा न घर ज्यादा दूर नहीं है । और हॉं तुम थक जाओगे इसलिए मेरा बैग मैं खुद उठा लेती हूँ , तुम तो बस मेरे साथ मेरे घर तक चले चलो।''
अब राकेश ने भी ज्यादा जिद नहीं की और दोनों बैग उठाए और बोला,'' अच्छा ठीक है आप फिर से मेरा हाथ पकडि़ए और चलिए मैं आपको आपके घर पहुँचा देता हूँ ।
और वो दोनों उस महिला के घर की ओर चल दिए। स्टेशन के सामने पहाड़गंज के मार्केट से होते हुए आगे न जाने कितनी गलियों से गुजरते हुए आखिरकार अपनी मंजिल तक पहुँच गए । वहॉं देखा एक बुढि़या और एक व्यक्ति घर के मेन गेट के पास खड़े थे और जैसे ही उनकी नज़र उस महिला पर पड़ी उनके चेहरे चमक उठे । राकेश ने देखा कि अपनी मॉं को देखते ही उस महिला का चेहरा एकदम बच्चों की तरह खिल उठा और वो तेजी से जाकर अपनी मॉं से लिपट गई । राकेश ने जब उनका बैग उनकी तरफ बढ़ाया तो सभी राकेश को देखकर उसे पहचानने की कोशिश करने लगे । और इसके पहले कि वो महिला राकेश के बारे में सबको बताती, वो बैग संभलाकर ये कहकर मुड गया'' माताजी अब चलता हूँ, मेरी मॉं भी घर पर इंतजार कर रही होगी।''
जाते-2 उसने देखा जैसे उस महिला की आँखें उससे आभार व्यक्त कर रही हैं और उसे उसके घर तक पहुँचाने के लिए दुआऍं दे रही हैं ।
वापस लौटते हुए राकेश सोच रहा था कि इस छोटे से सफर में उसे दो बातों का अनुभव हुआ, पहला ये कि औरत चाहे कितनी भी बड़ी हो जाए लेकिन पीहर के नाम से वो बच्चों की तरह चहक उठती है, पीहर के नाम से जैसे उसके रोम रोम खिल उठते हैं, पीहर में उसका बचपन बसता है और चाहे जितनी मुश्किलें आ जाऍं लेकिन पीहर के काम के लिए वो बिना किसी शिकायत के तैयार रहती है । उसे महसूस हो रहा था जैसे वो एक छोटी सी बच्ची को उसकी मॉं के पास पहुँचाकर आया हो । वो अपने आपको बहुत संतुष्ट महसूस कर रहा था।
लेकिन दूसरे अनुभव से वो जरा निराश था। उसे निराशा थी कि आजा़दी के इतने वर्षों बाद भी देश में महिलाओं के मन से डर और खौफ़ समाप्त नहीं हुआ है, रात तो छोडि़ए अभी दिन में भी वो अकेले कहीं आने-जाने से हिचकिचाती हैं और किसी अनहोनी से आशंकित रहती है ।