Savita Negi

Tragedy

2.5  

Savita Negi

Tragedy

एक प्रेम ऐसा भी

एक प्रेम ऐसा भी

6 mins
440


सामान टैक्सी में रखते ही टैक्सी गेस्ट हाउस की तरफ बढ़ने लगी। सुमन खिड़की से झांककर अपने शहर को पहचानने की कोशिश कर रही थी। ये काशी वो काशी नहीं है जो पच्चीस साल पहले छोड़ कर गयी थी। सब कुछ बदल गया यहाँ तो। वो बूढ़ी हो गयी और शहर जवां। खुली सड़कें, साफ सफाई, चमचमाती रोशनी। नहीं बदली तो पान की अनगिनत दुकानें। बीच-बीच में पुराने स्कूल, कुछ पुरानी दुकानें, फ़िल्म हॉल दिख रहे थे। बीच में ही आ गया सुमन का पुराना कॉलेज। "भैया थोड़ा रोकना टैक्सी" कॉलेज भी बदल चुका था और भव्य दिख रहा था।


कितने सुनहरे दिन थे। सपनों से भरे हुए। एक-एक करके सारी यादें मस्तिष्क पटल पर विचरण करने लगीं और फिर से पुराने जख्म ताज़ा होने लगे। दिल मीठी, कड़वी हर तरह की यादों का संग्रह कक्ष ही तो है। उस गली से ही होकर टैक्सी ने गुजरना था जहाँ बचपन और जवानी बिताई। सुमन चश्मे को ठीक करती, उड़ती हुई लटों को कान के पीछे अटकाती एक-एक घर को बड़ी उत्सुकता से देख रही थी। अपना और उसका घर भी आने वाला था। एक ही मोहल्ले में तो था उसका घर भी। सुमन कुछ पहचान न पाई। गलियां चौड़ी हो गयी थी। पुराने घरों ने नया रूप ले लिया था।...

काशी की हवा ने एक बार फिर से दबी हुई यादों को उकेर दिया। विक्रम और सुमन, बचपन की दोस्ती बड़े होते-होते कब प्यार में बदल गयी पता ही नहीं चला। प्रेम भी ऐसा की जुदा होने की कल्पना से ही रूह कांप जाती थी। "मेड फ़ॉर इच अदर" बोलते थे उन्हें सब कॉलेज में। एम.ए. करना फिर पीएचडी करना, इतना लंबा वक्त गुजारा था साथ में। गंगा किनारे तो होती थीं सारी बातें, मुलाकातें और कसमें वादे। किनारे पर पंक्तिबध बंधी नावें जब हिलोरे खाती हुई ऊपर नीचे होती तो ऐसा प्रतीत होता मानों इस प्रेमी जोड़े के स्वागत में किसी प्रेम धुन में नृत्य कर रहीं हों।.... "ये क्या हर वक़्त पनवारियों की तरह पान चबाते रहते हो। होंठ देखो अपने।" 

....."पान न चबाउं तो तुम्हारी डांट कैसे पड़ेगी? फिर तुम्हारा गुस्से में रूठा चेहरा कैसे दिखेगा? तुम रूठोगी नहीं तो मैं मनाउंगा कैसे? मैं मनाऊंगा नहीं तो तुम शर्माकर मुस्कराओगी कैसे? हा हा हा हा।".....

 "तुम भी न।" ......"देखो देखो, मुस्कराई न।"

...तीसवां पतझड़ पार करने में बस दो महीने बाकी थे। दोनों परिवारों से विवाह के लिए दवाब बढ़ता जा रहा था। विक्रम ने सुमन को जीवनसाथी बनाने की बात जब घर में बताई तो कोहराम मच गया। ब्राह्मण परिवार, छोटी जाती की बेटी को कैसे स्वीकार करते।....

एक ही मोहल्ले में घर होने से दोनों परिवारों में बहुत तनाव का माहौल बन गया। यहाँ तक की विक्रम का परिवार सुमन के घर कई बार लड़ने भी चला गया। बढ़ते तनाव में दोनों की ख्वाइशें कहीं दबती चली गयी।...

हमारे समाज की विड़बना है कि हमेशा उंगलियां एक लड़की के चरित्र पर ही उठती हैं। रोज रोज के छींटाकशी से सुमन बहुत आहत रहने लगी। विक्रम थक चुका था परिवार को समझाकर। बहुत दलीलें दी उसको सभी ने" सुमन से विवाह किया तो परिवार की बाकी लड़कियों का ब्याह नहीं हो पायेगा।" बदनामी की वजह से सुमन का परिवार उस मोहल्ले से घर बेचकर दूसरी जगह चला गया। एक दिन विक्रम ने सुमन को मिलने के लिए बुलाया।.....

"तुमसे विवाह की ज़िद को लेकर कल माँ ने खुद को कमरे में बंद कर लिया और आत्महत्या करने की धमकी दी। मैं बहुत दुःखी हूँ सुमन। एक तरफ मेरा प्रेम और एक तरफ माँ। कुछ समझ नहीं आ रहा।"

..... एक लंबी खामोशी के बाद सुमन ने ही इस समस्या को हमेशा के लिए समाप्त करने का निर्णय लिया। "मुझसे पहले तुम्हारी माँ, तुम्हारी जिंदगी में आई हैं। अगर हमारी वजह से उन्हें कुछ हो गया तो हमारा मिलना किसी जुर्म से कम न होगा। तुमको जन्म दिया है उसने। पहला हक़ उनका है तुम पर। उनकी खुशी के लिए अपने प्रेम का त्याग करके आगे बढ़ो जिंदगी में। मैं तुमसे कभी कोई शिकायत नहीं करूंगी। इस रिश्ते को आज, अभी ,यहीं हमेशा के लिए दफ़्न करते हैं।".....

बुझे मन से विक्रम चला गया सुमन से वादा लेकर कि वो भी अपनी जिंदगी में आगे बढ़ जाये. सुमन बहुत देर तक गंगा किनारे बैठी रही। आज कोई भी नाव बंधी नहीं थी। सभी नावें अपने अपने मुसाफिरों को लेकर दूर क्षितिज तक जाती हुई दिख रही थीं।


डेढ़ साल बीत गया। दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी बन गए। इस बीच विक्रम एक बेटे का पिता भी बन गया। लेकिन सुमन ने उसकी यादों को जीने का सहारा बनाया।जनवरी की सर्द, कोहरे से भरी सुबह को विक्रम के दोस्त का फ़ोन सुमन को आता है। एक बुरी ख़बर देने के लिए। "सुमन विक्रम और उसका परिवार कहीं से लौट रहे थे, हाईवे पर घने कोहरे की वजह से भयंकर हादसे का शिकार हो गए। शायद कोई नहीं बच पाया। हम सभी दोस्त सिटी हॉस्पिटल में हैं अभी, हमें भी ज्यादा कुछ मालूम नहीं, अगर तुमको आना हो तो देख लो"....

ये सुनते ही सुमन घबराहट में ,जल्दी से खूंटे से शाल को खींचकर बाहर की तरफ भागी। घरवालों को जब पता चलता है तो वो सुमन को रोकते हैं। लेकिन नहीं अपनी यादों को हमेशा के लिए जाते हुए नहीं देख सकती थी। जैसे तैसे प्रार्थना करती हुई हॉस्पिटल पहुँचती है। वहाँ का नज़ारा दर्द भरा था। तभी विक्रम के दोस्त सुमन के पास आ जाते हैं। "कैसा है विक्रम? और...और.. उसका परिवार?" "वो सुमन हादसा बहुत भयानक था। विक्रम, उसकी पत्नी, मां, भाई कोई नहीं बचा।".....

"विक्रम का बेटा बच गया" पीछे से विक्रम के चाचा की आवाज आई। सुमन भागती हुई उस दो महीने की नन्ही जान को देखने के लिए दौड़ी। विक्रम की छाप देखकर सुमन फूट फूट रोने लगी। उसका इलाज चल रहा था।....

सबका अंतिम संस्कार हो चुका था। सुमन कुछ दिन तक विक्रम के बेटे के साथ ही रही हॉस्पिटल में। अब परिवार में विक्रम के बेटे की जिम्मेदारी कौन उठाये? इसके लिए खुसुर फुसुर होने लगी। चाचा ताऊ बुढ़ापे में थे उनके बेटे बहू के अपने बच्चे थे। सबने चुप्पी धर ली। तभी सुमन ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि इसकी जिम्मेदारी उसको सौंप दी जाए।" विक्रम को तो न सौंप सके। उसके बेटे को अपने बेटे जैसा ही पालूंगी। मुझे गोद दे दो।" कुछ सोच विचार कर ब्राह्मण परिवार ने अपना कुल दीपक छोटी जात की लड़की की झोली में डाल दिया और एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्ति पाई। सुमन ने अपने परिवार की नाराज़गी को देखकर अपना तबादला दूसरे शहर में करा लिया और अपने जीने के सहारे छोटे पीयूष को लेकर काशी से दूर दूसरे शहर में आ गयी और वहीं रम गयी।.....

"मैडम गेस्ट हाउस आ गया।" पुरानी यादों से खुद को बाहर निकाला तो सामने पीयूष खड़ा था। अपने पिता की कॉपी। "कैसे हो माँ? कोई दिक्कत तो नहीं हुई, आने में?" "दिक्कत कैसी? आज तेरी वजह से इतने सालों बाद अपने शहर आयी हूँ, बहुत खुश हूँ।"....

शायद विक्रम को पता भी नहीं होगा जिस जिम्मेदारी को छोड़कर गया था उसे सुमन ने कितने प्यार से पालकर बड़ा किया। सुमन अपने छोड़े हुए शहर में दोबारा कदम रखे, इसीलिए पीयूष ने अपनी शादी काशी से करने का निर्णय लिया था।



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